बिहार की डूबती नांव का खेवैया ही किनारे बैठ तमाशा देख रहा है
हम सब मैदान छोड़ कर भागे हैं। भले ही अपनों के अच्छे के लिए, भले ही अपने परिवार के पेट के लिए, मगर सच यही है कि हम भागे हैं
‘बिहार’ एक ऐसा राज्य जिसका इतिहास इतना महान रहा है कि वर्तमान भी उसी की ओट में अपने फटे लिबास को छुपाता फिर रहा है। बड़े-बड़े सूरमाओं, बुद्धिजीवियों और अवतारों की धरती बिहार, आज रो रहा है अपने हाल पर। क्या कमी है बिहार के पास दूसरे राज्यों के मुकाबले में, जो बिहार को अपने ही नाम की लाज बचाने के लिए लड़ना पड़ रहा है और अपना गौरव बताने के लिए इतिहास का सहारा लेना पड़ रहा है? बिहार के इस हालत का जिम्मेदार आखिर है कौन?
इसके ज़िम्मेदार हैं सिर्फ और सिर्फ हम बिहारी!अगर दुर्भाग्य ने घेरा हो तो इंसान अपने भाग्य से लड़ता है, उसका सामना करता है, उसे मात दे कर उसे बदलता है, ना कि मैदान छोड़ कर भाग जाता है।
हम सब मैदान छोड़ कर भागे हैं। भले ही अपनों के अच्छे के लिए, भले ही अपने परिवार के पेट के लिए, मगर सच यही है कि हम भागे हैं। हम अभाव में जीते आए हैं मगर हमने कभी उनकी पूर्ती के लिए आवाज़ बुलंद नहीं की। हमें भूख लगी हमने मेहनत की मगर जब उस मेहनत के बदले भी पेट भर अनाज ना नसीब हुआ तब हमने आवाज़ उठाने की बजाए अपना रुख दूसरे राज्यों की तरफ मोड़ लेना बेहतर समझा।
टिकसवा से बलम मोरे जैहें, रे सजना मोरे जैहें,
पानी बरसे टिकस गल जाए रे, रेलिया बैरन।।
एक स्त्री के अपने पति के वियोग की कथा इन चंद शब्दों से सजी दो लाईनों में साफ तौर पर झलकती है। शायद यह वही दौर रहा होगा जब पेट की आग ने अपने बिहार से ही मोह तोड़ लेने पर विवश किया होगा इन लोगों को। अपने परिवार का पेट पालने के लिए लोगों ने अपने परिवारों से दूर जाना भी मंज़ूर कर लिया| ये लोकगीत महज़ एक लोकगीत नहीं अपितु कड़वा सच है उस रेल के युग से आज के हवाई युग का।
अब बहुत कुछ बदल गया है। कम से कम अब हर पेट को रोटी मिलती है, तन को पुराना ही सही मगर कपड़ा मिलता है, हर छत को खप्पर की ही सही मगर छत मिलती है। ये सब बिहारियों ने अपनी मेहनत से ही कमाया है मगर ये वो मेहनत थी जिसने दूसरे राज्यों की मिट्टी को सोना कर दिया। हम चाहते तो अपना हक़ मांग कर अपने खेतों से खज़ाना उपजा सकते थे मगर हमें आवाज़ उठाना ही नहीं आया|
जिन्होंने उस युग की मार झेली है, जब राज्य सूखे और संसाधनों के अभाव को झेल रहा था, जिन्होंने भुखमरी देखी है वो आज नहीं चाहते कि उनके बच्चों का भविष्य भी नर्क की काली आग जैसा अंधकार भरा और तपता हुआ हो। इसीलिए आज उन्हें वो खुद बाहर भेजते हैं। पहले पेट के नाम पर मजदूरी करने जाते थे अब भविष्य के नाम पर शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं।
इतना कुछ बदला, चिट्ठी लिखने से ई-मेल लिखने तक का सफ़र तय कर लिया मगर आज भी अपने हक़ के लिए आवाज़ उठानी किसी को नहीं आई। यहाँ सब अपने हाल में खुश हैं। जितना है सही है ज़्यादा पड़ोसी राज्यों से कमा लायेंगे मगर अपने हक़ की आवाज़ को ऊंचा नहीं करेंगे।
आज बिहार की राजधानी पटना सिर्फ और सिर्फ एक ब्यूटीपार्लर बन कर रह गया है। हंसी आयी ना कि मैंने ब्यूटीपार्लर क्यों कहा? ब्यूटीपार्लर जैसे दुल्हन को विदाई के लिए तैयार करता है ना, ठीक वैसे ही पटना तैयार करता है विद्यार्थियों को अपना राज्य छोड़ कर दूसरे राज्य के अच्छे काॅलजों में जाने के लिए। बिहार का एजुकेशन हब कहा जाने वाला पटना, खान है होनहार भावी इंजीनियरिंग स्टूडेटस का। मगर क्या फायदा ऐसी खान का जिसका खजाना दूसरों के घर में जा रहा है? अपने घर की छत टूटी है और दूसरों का महल बनाया जा रहा है। आपका बबुआ दसवीं आपने जिला में रह कर पास किया, इंटर पटना से, आईआईटी की तैयारी पटना से और फिर जब इंजीनियरिंग के लिए सलेक्ट हो गया तो चल दिया आपसे दूर।
अब माँ आँसू बहाती रहे और पिता जी सीना फुलाते रहे मगर जब यही बबुआ पूरी तरह से दिल्ली-बम्बई-चेन्नई आदि शहरों का हो कर रह जाएगा तो एक कोना में पड़े रहेंगे बबुआ और बबुआ के परिवार की राह देखते हुए। मगर आपकी इस हालत का दोषी कौन? आप खुद ही, आपने ही तो बबुआ को सिखाया कि यहाँ भविष्य नहीं है, बाहर जाओ। बबुआ चला गया। अब भला वो लौट कर क्यों आएगा?
पूरे भारत में हर वर्ष इंजीनियरिंग पास करने वाले विद्यार्थियों में एक बहुत बड़ी संख्या बिहारी विद्यार्थियों की होती है। गया जिले का ‘मनपुर टोला’ जहाँ हर घर में इंजीनियर है, केवल उसी टोला के 20 विद्यार्थियों ने इस बार आईआईटी एंट्रेंस पास किया। ये गर्व है बिहार का कि इतने होनहार बच्चे जन्म लेते हैं इस महान मिट्टी पर, मगर दुर्भाग्य है कि इनमें से बहुत बड़ी संख्या बिहार से पल्ला झाड़ कर निकल जाती है।
मैं मानता हूँ व्यवस्था खराब है| आए दिन इंजीनियर्स के कत्ल हो रहे हैं ऐसे में कोई क्यों यहाँ अपनी जान गंवाने आएगा, मगर एक बात यह भी सोचने वाली है कि अगर घर गंदा हो गया हो तो उसे छोड़ नहीं दिया जाता, उसकी सफाई की जाती है।
पढ़े-लिखे बाहर चले जाएंगे, अनपढ़ अपने अधिकार तक नहीं जान पाएंगे तो फिर यहाँ अपने अधिकार के लिए, अपने बिहार के लिए लड़ने वाला बचा ही कौन? कौन उठाएगा बिहार के हक़ के लिए आवाज़? फिर तो इसकी हालत अभी और गर्त में मिलेगी और इतना सब होने के बाद जब लोग आपके बिहार को गाली देंगे और आपको बिहारी कह कर हीन दृष्टि से देखेंगे फिर मन में मलाल मत लाना| क्योंकि ये सब आपके पल्ला झाड़ कर भाग जाने का नतीजा है|
युवा किसी देश, किसी राज्य के रीढ़ की हड्डी है, युवाओं के बिना तो देश या राज्य झुकने पर मजबूर हो जाएगा। शिक्षा से लेकर रोजगार तक हमारा अधिकार है। अगर नहीं मिल रहा तो उसकी माँग के लिए आगे आना और अपनी ऊंची आवाज़ में जायज़ मांग रखना हमारा हक़ है। हम कहीं भी रहें मगर कम से कम बिहार की बेहतरी के लिए सोचें तो, कुछ करें तो। अब भी वक्त है कुछ सोचिए अपने बिहार के लिए वरना एक दिन आप खुद रोएंगे अपने बिहार के लिए। बिहार डूब रहा है और हम किनारे खड़े तमाशा देख रहें हैं। अब तो कहने में भी शर्माते हैं कि ये नाव हमारी है। मगर इससे बात ना बनेगी, हमें इस पानी में कूदना होगा अपनी नाव बचाने के लिए। वरना हमारा ही आने वाला कल हम पर ही हंसेगा।
स्वाभाविक है, पोस्ट पढ़ कर चुभा होगा, मगर चुभना ज़रूरी है। बात की सत्यता का आभास हो जाता है चुभने से। बिहार हमारा अपना घर है इसकी अच्छाइयों और बुराइयों दोनों पर बोलना और उन पर सोचना ही हमारा कर्तव्य है।
-धीरज झा