सिविल सेवा परीक्षाओं में बिहारियों, अन्य हिंदी और क्षेत्रीय भाषीय छात्रों के साथ होता है भेदभाव
सिविल सेवा परीक्षा देश की सर्वोत्कृष्ट परीक्षा है जिसके माध्यम से देश भर के लिए प्रशासनिक अधिकारी चुने जाते है. इस परीक्षा के सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें कोई भी सामान्य स्नातक अभ्यर्थी भाग ले सकता है. इसके लिए उसे महंगी और अति विशिष्ठ संस्थानों की डिग्री का होना अनिवार्य नहीं है. कोई भी अभ्यर्थी अपने किसी भी मान्यता प्राप्त नजदीकी डिग्री कॉलेज से स्नातक उपाधि लेकर एक आई ए एस बनने का सपना देख सकता है. अर्थात कोई भी सामान्य और निम्न आर्थिक स्तर का छात्र भी प्रशासनिक अधिकारी बनने का स्वप्न देख सकता है.
परन्तु, अब शायद यह सपना केवल सपना ही बन के रह जाएगा. वर्तमान सरकारी नीतियों को देख कर तो ऐसा ही लगता है.
हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओ के विद्यार्थियों के साथ भेदभाव की शुरुआत तो वर्ष 2011 से प्रारम्भ हो गयी थी. जब सिविल सेवा परीक्षा “सी-सेट” प्रश्नपत्र को लागू किया गया था. इस प्रश्नपत्र के लागू होने के साथ ही सिविल सेवा परीक्षा में हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के अभ्यर्थियों के चुनाव में भारी गिरावट होने लगी. यह एक सुनियोजित योजना जैसा था कि ग्रामीण अंचल के क्षेत्रीय भाषाई अभ्यर्थियों के स्थान पर महंगे संस्थानों से तकनीकी डिग्रीधारी उच्च वर्ग के अभ्यर्थियों को प्रशासनिक सेवा में लिया जाए.
बड़े आन्दोलन किये गए, छात्रों ने लाठिया. डंडे खाए, गिरफ्तारीयां दी. तब जा कर कही सरकार ने अपनी गलती को स्वीकार किया. लिखित रूप से स्वीकार किया. संसद में ब्यान देकर स्वीकार किया कि सी-सेट प्रश्न पत्र भेदभाव पूर्ण था. पहले सरकार ने मात्र अंग्रेजी भाषा के प्रश्नों को प्रश्नपत्र से निकाला.
फिर भी सी सेट पेपर की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. प्रश्नपत्र की बनावट इस प्रकार की जाती रही कि हिंदी व किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा का विद्यार्थी निश्चित रूप से अंग्रेजी माध्यम की छात्रों से अधिक अंक ना ला सके. यदि ऐसा नहीं है, तो अभी तक जहाँ सामान्य अद्ध्याँ प्रश्नपत्र में हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओ के छात्र 200 अंको के प्रश्नपत्र में 160-170 अंक सहज ही ले आते है, वही ठीक इसके विपरीत सी-सेट प्रश्नपत्र में 50- 60 अंक लाना कठिन हो जाता है. इसके ठीक विपरीत तकनीकी डिग्री धारक, अंग्रेजी माध्यम के छात्र सामान्य अध्ययन में बहुधा पिछड़ जाते है और सी सेट पेपर उनका प्रदर्शन सामान्यत: अच्छा होता है.
इस विसंगति के चलते पुन: हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओ के विद्यार्थियों ने संसद से लेकर सड़क तक देशव्यापी प्रदर्शन किये. सरकार ने विवश होकर ४ साल बाद वर्ष २०१५ में सी-सेट प्रश्नपत्र को अहर्ता-मूलक बना दिता.
परन्तु इन ४ सालों में हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओ के विदयार्थियों के सिविल सेवा परीक्षा के लिए निर्धारित सीमित अवसरों में से ४ प्रयास व्यर्थ चले गए. सरकार ने इन लाखों युवाओं के भविष्य के साथ जो खिलबाड़ किया उसके लिए कोई क्षतिपूर्ति नहीं की.
हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओ के पीड़ित छात्र सरकार और विपक्ष के सभी राजनेताओ के समक्ष अपनी पीड़ा रख चुके है. वर्ष 2018 में छात्रों ने लगभग 200 संसद सदस्यों से अपने लिए न्याय हेतु हस्ताक्षर भी लिए. कई सांसदों ने संसद के दोनों सदनों में छात्रों का यह मुद्दा भी उठाया.
पर, सरकार एकदम से निष्ठुर और संवेदनहीन बनी रही. सरकार के द्वारा सिविल सेवा के हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओ के ग्रामीण एवं छोटे नगरों से आने वाले छात्रो. को कोई रहत नहीं दी गयी.
आखिर, यह सरकार इतनी युवा विरोधी क्यों है??
सी-सेट विक्टिम छात्र कोई नौकरी नहीं मांग रहे, वे केवल एक समान स्थिति में सिविल सेवा परीक्षा में बैठने का एक अवसर मांग रहे है.
अब, सरकार का एक और नया हिटलरी फरमान
प्रारम्भिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा, और साक्षात्कार के तीन जटिल चरणों को पास करके कोई छात्र अकादमी में पहुच भी जाए तो भी वह आईएएस बनेगा या नहीं, यह तय नहीं होगा.
भारत की सिविल सेवा परीक्षा को विश्व की सबसे कठिन परीक्षाओं में माना जाता है. पर हमारी कथित युवा-समर्थक सरकार इसको नहीं मानती. अब अकादमी में तीन महीने के प्रशिक्षण के दौरान यह तय किया जायेगा कि कौन आई ए एस बनेगा और कौन नहीं बनेगा. भले ही छात्र ने अपनी योग्यता के बल पर कोई भी रैंक हासिल की हो.
अब इसमें जो होगा , वो सुन लीजिए –
अब आप सिविल सेवा परीक्षा पास करने के बाद मसूरी की ट्रेनिंग कीजिये। फिर जिसकी केंद्र में सरकार होगी, वो अपनी राजनीतिक दल की विचारधारा के अनुसार अफसर को अपने मनमाफिक सेवा व सेवा क्षेत्र देने के लिए भरपूर हस्तक्षेप करेगा। साथ ही साथ राजनीतिक हस्तक्षेप, अमीर-पूंजीपतियों के दुलारो का हस्तक्षेप, बड़े-बड़े अफसरों का हस्तक्षेप बढ़ेगा। क्योंकि इनके लोग आसानी से अच्छी जगह सेवा क्षेत्र ले लेंगे और गरीब-दलित-पिछड़ा-अल्पसंख्यक अपनी बारी का इंतज़ार करता रहेगा ।
इन सब के साथ-साथ इस ट्रेनिंग सेंटर पर चापलूसी की एक परम्परा की भी शुरुआत हो जाएगी। लोग अपने ट्रेनर को खुश रखने के लिए पता नहीं क्या-क्या करेंगे। क्योंकि इन्ही ट्रेनर के हाथ मे इनका भविष्य होगा।
सबसे बड़ी बात, जो लोग अभी तक खुशनुमा माहौल में ट्रेनिंग किया करते थे, वे एकदूसरे को पीछे छोड़ने की तरकीब सोचने लगेंगे ।
कुल मिलाकर, भारतीय सिविल सेवा में वर्तमान सरकार अपनी राजनीतिक पार्टी व आरएसएस के विचारधारा के लोगो को अपने अनुसार सेवा व सेवा क्ष्रेत्र देना चाहती है। जिससे कि वो आने वाले समय मे भारतीय प्रशासनिक सेवा पर वैचारिक कब्जा कर सके। यह प्रशासकों को खुले तौर पर भारतीय संविधान के तहत नहीं, अपितु किसी खास विचारधारा के पोषक के तौर में पेश करना चाहती है ।
यदि ऐसा होता है तो फिर कमर कस लीजिये, संघर्ष के मैदान में उतरने के लिए।
-अनुरागेन्द्र निगम