बिहार व्यवस्था परिवर्तन पर व्यापक बहस होना चाहिए। राजनीति स्याह और सफेद कभी नही थी और आजकल राजनीति खुद को ढूध का धुला या खून में नहाया साबित करना भी नही चाहती। भारतीय राजनीति के विषय में अच्छी बात पिछले कुछ सालों में मुझे यही दिख रही है कि ये वास्तविकता के करीब होती जा रही है… भ्रष्टाचार का चरम खत्म हो रहा है और सत्ता का लोभ खुलकर सामने आ रहा है। बिहार के परिदृश्य में इन बातों पर रौशनी डाली जा सकती है।
- सबसे पहले तेजस्वी यादव के विषय में बात की जानी चाहिए। हम आप तेजस्वी यादव को अनुभवहीन कह सकते हैं लेकिन उनको नकारा, जाहिल या भ्रष्ट नही कह सकते। हम तेजस्वी के कामकाज पर भी सवाल नही उठा सकते फिलहाल। बिहार सरकार में तेजस्वी का रिपोर्ट कार्ड अच्छा था… काम काज ठीक ठाक चल रहा था… बड़बोलापन कहीं नही दिखता था… शैक्षणिक योग्यता कम होने पर भी व्यवहारिक ज्ञान में सबल प्रतीत होते थे। हालाँकि तेज प्रताप यादव के विषय मे ये बातें नहीं कही जा सकती… वहाँ योग्यता की कमी साफ झलक जाती थी।
तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे और पिछली कई परिस्थितियों में देखा गया था कि नीतीश कुमार ने कम से कम अपने मंत्रिमंडल में भ्रष्ट या आपराधिक चरित्र वालों को कभी जगह नही दी थी। बिहार में इससे अधिक संभव भी नही है… अपराध, जात, राजनीति और षडयंत्र बिहार में आपस मे गुत्थम-गुत्था रहते हैं… किसी एक को पूरी तरह से किनारे रख दूसरे के विषय मे सोचा भी नही जा सकता। लेकिन नीतीश कुमार को ये सोचना जरूरी था कि जो आरोप थे वो असल मे लालू यादव पर थे या तेजस्वी पर।
पैसा लालू यादव का था… सही गलत जो भी तरीका रहा हो, अर्जित लालू यादव ने ही किया था। तेजस्वी के नाम संपत्ति होने भर से तेजस्वी कम से कम व्यवहारिक तौर पर भ्रष्ट नही हो सकता। और सच सच कहा जाए तो ऐसे में देश की अधिसंख्य जनसँख्या अपने बाप, दादा, परदादा के द्वारा अर्जित संपत्ति के कारण अपराधी साबित हो जाएँगे, चाहे अपनी निज जिंदगी उन्होंने बेदाग ही क्यों न गुजारी हो।
और यदि बिल्कुल आदर्श व्यवस्था चाहिए तब भी तेजस्वी का मूल्यांकन उसके वर्तमान के आधार पर होना चाहिए था और पैतृक संपत्ति से खुद को मुक्त करने को उनको वक्त दिया जाना चाहिए था।
ठीक से देखा जाए तो लालू यादव की राजनीति (सत्ता-धन नीति ) तेजस्वी के राजनीति के हत्या की जिम्मेदार है। मुलायम-लालू ने अखिलेश-तेजस्वी के साथ बिल्कुल भी ठीक नहीं किया।
- आप लालू यादव और नीतीश कुमार को देखिए। लालू और नीतीश बिल्कुल अलग व्यक्तित्व हैं। नीतीश की राजनीति में न परिवार शामिल है, न व्यक्तिगत ध्येय, न धन का अंबार और न ही सत्ता की शक्ति का दुरुपयोग शामिल है। और लालू यादव ने इन सभी बुराईयों को उसकी पराकाष्ठा तक उपकृत किया है।
ये साथ संभव नही था। ध्यान रहे कि तेजस्वी और नीतीश के बीच कोई समस्या संभव ही नहीं है और लालू और नीतीश के बीच एक दिन भी बिना समस्या गुजरना सम्भव नही था।
लालू भी उतने ही असहज होंगे जितने की नीतीश और यदि लालू के पास कोई रास्ता होता तो यही होता और बहुत पहले होता जो नीतीश ने आज किया है।
- जब में बिहार का वर्तमान और भविष्य विचारता हूँ तो मुझे नीतीश सबसे श्रेष्ठ मुख्यमंत्री दिखते हैं। नीतीश राजद या भाजपा जिसके साथ भी सहज होकर अपना काम जारी रख पाएँ, वही ठीक है। भाजपा या राजद यहाँ गौण है।
इससे आगे ये कि बिहार में लालू यादव को सामाजिक न्याय का प्रणेता की तरह स्थापित करना या फिर ये कहना कि लालू यादव ने वंचितों को आवाज़ दी, सबसे बड़ा झूठ है।
वंचितों ने लालू यादव को वोट जरूर दिया लेकिन इस वोट के बदले उन्हें कभी भी कुछ न मिला। वोट देकर भी खुलेआम ये कहने का नैतिक बल न था कि हमने लालू यादव को वोट दिया क्योंकि वोट देने का कोई वाजिब कारण न था। लालू क्यों चाहिए था इसका जवाब कोई नही दे पाता था।
नीतीश ने वंचित बस्तियों को चमचमाती सड़कें दी… लगभग हर घर ईंटों की पहुँच हो गयी… भूख गायब हो गयी और जब पेट भरता है तब सामाजिक न्याय और समाज समझ आने लगता है। पिछले चुनाव में पिछड़े मुहल्लों में खुलकर ये कहने का सामर्थ्य था कि हम नीतीश को वोट देंगे क्योंकि नीतीश ने हमारे लिए बहुत काम किया है। इसी को कहते हैं वंचितों के मुँह में आवाज़ भरना।
ये काम जारी रहना चाहिए।
- हिन्दू-मुस्लिम करना या यादव-मुस्लिम करना बराबर का कम्युनल होना है। नीतीश जहाँ भी रहें बतवा बराबर ही है।और लालू जी के मुँह से एन्टी कम्युनल फ़ोर्स सुनना मुझे अच्छा नहीं लगता।
- जदयू-भाजपा गठबंधन बिहार के लिए स्वर्णिम युग था। नीतीश कुमार और सुशील मोदी दोनों ही सक्षम प्रशासक हैं। इस शासन में किसी धर्म/जाति को कोई शिकायत नही थी। भाजपा को अछूत भर मान कर विरोध वाजिब कारण कम से कम मेरे लिए नही है।
मैं बिहार की बेहतरी के लिए आशान्वित हूँ।
- जो ये सब जल्दी नही हुआ होता तो, जदयू टूट जाती। लालू का जुगाड़ काम कर जाता… उसके बाद जो होता वो ज्यादा कालिख पुता होता। उसके बाद जो होता उसके कारण बिहार पर लोग जमकर हँसते। उसके बाद जो होता वो बिहार के हित मे बिल्कुल न होता। उसके बाद बिहार में फिर से एक उदण्ड सत्ता होता और प्रजा सहमी सी होती।
विपक्ष ने दो में से एक संवेदनशील और सक्षम मुख्यमंत्री खोया है ( दूसरे नवीन पटनायक हैं) इसका मुझे दुःख है लेकिन बिहार का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री उसके पास सुरक्षित रहा, इसकी मुझे खुशी है।
बाकी सब कुशल मंगल है।
लेखक – पंकज कुमार