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बिहार के शिक्षा व्यवस्था का असल दोषी रूबी, गणेश है या सरकार ?

बिहार के ‘टॉपर्स’ का खूब मजाक उड़ाया जा रहा है. सोशल मीडिया और मेन स्ट्रीम मीडिया तक इनकी परतें उधेड़ रहा है. दरअसल मीडिया के लिये इस व्यवस्था का माखौल उड़ाने का इससे असमान्य मौका और क्या हो सकता है. टॉपर से सवाल जवाब कर उसे ‘बिहारी’ साबित करने में मीडिया को अद्भुद आनंद आ रहा है. अपनी काबिलियत से जिनको पछाड़ ‘बिहारी’ आज सफलता की बुलंदी तक पहुंचे हैं उन्हें नीचा दिखाने का इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है.
ऐसा नहीं कि मजाक उड़ाने के कारण नहीं हैं. लेकिन सवाल ये है कि असल दोषी कौन है. क्या वो बच्चे दोषी हैं जो पढ़ना तो चाहते हैं मगर रिज़ल्ट उनके सपनों को बिखेर देता है. एक नाकाम छात्र क्या शिक्षा व्यवस्था का आईना नहीं. तो इस आईने में आपको कौन-कौन दोषी नज़र आते हैं. क्या केवल और केवल रूबी और गणेश जैसे छात्र. इनको कोस भर लेने से क्या हम अपनी गल्तियों को ढांक नहीं रहे. क्या ऐसे छात्रों पर हंस कर समाज उनका मनोबल नहीं तोड़ रहा.
पिछले साल की टॉपर रूबी गिरफ्तार हुई, उसपर और उसके परिवार पर केस चल रहा है. इस बार का टॉपर गणेश भी अब गिरफ्त में हैं. फर्जीवाड़े का मामला उसपर भी बन रहा है. लेकिन क्या महज इनकी गिरफ्तारी से बिहार की शिक्षा व्यवस्था दुरूस्त हो जाएगी. अगर इस तरह की गिरफ्तारी और मीडिया ट्रायल से चीजें दुरूस्त होनी होती तो पिछले साल के टॉपर पर हुए बवाल के बाद इस साल सब सही होना चाहिए था. लेकिन हुआ क्या ये नतीजा सबके सामने है.
मसला सिर्फ टापर्स के घपले का नहीं

बिहार बोर्ड के बारहवीं के नतीजे मुंह चिढ़ा रहे हैं. मसला सिर्फ टापर्स के घपले का नहीं है, मसला नतीजों का भी है. बिहार में 12वीं में 65 फीसदी बच्चे फेल कर गए. रिजल्ट पर बिहार में हाहाकार मचा हुआ है. इनमें वो बच्चे भी हैं जिन्होंने JEE जैसी मुश्किल प्रतियोगिता परीक्षा पास की है. सवाल ये है कि इनके भविष्य की जवाबदेही किसकी है? महागठबंधन की सरकार चलाने वाले नीतिश कुमार के पास टॉपर्स फर्जीवाड़ा और रिज्लट से मचे हड़कंप पर क्या जवाब है? इन बच्चों के भविष्य के साथ कौन खिलवाड़ कर रहा है?
कौन सा संदेश दे रहे हैं ये नतीजे… बिहार में नकल के भरोसे बच्चे परीक्षा पास करते हैं, नकल रूकी तो रिजल्ट खराब हो गया… बिहार में टॉपर बनने के लिए किसी प्रतिभा या योग्यता की जरूरत नहीं है…बिहार में सबकुछ चलता है…42 साल का लड़का 12वीं का टापर बन जाता है… ये वो सवाल हैं जो बिहार पर खड़े किए जा रहे हैं.. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके सबसे बड़े साझीदार और बिहार के झंडाबरदार लालू प्रसाद यादव बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर उठ रहे इन सवालों का क्या जवाब देंगे…

 

टॉपर बनाने की फैक्टरी कहां कहां हैं?

 

ये तो हुई आंकड़ों की बात. सरकार के शिक्षा पर खर्चे और बेहतर बनाने की नीयत की बात. इसके साथ एक और अहम मुद्दा है. गिरिडीह का रहने वाला गणेश समस्तीपुर के किसी स्कूल में एडमिशन कराया और टॉप कर गया. रूबी भी जिस स्कूल से परीक्षा दी वो प्राईवेट स्कूल था. सवाल ये है कि ये स्कूल कैसे खुल रहे हैं. इन्हें मान्यता कैसे मिल रही है. यहां बेहतर रिजल्ट देने की गारंटी कैसे दी जा रही है. कौन से लोग हैं जो इस पूरे शिक्षा माफिया को प्रश्रय दे रहे हैं. टॉपर बनाने की ऐसी फैक्टरी कहां कहां खुली है. पिछले साल इतनी किरकिरी होने के बाद क्या सरकार ने पूरी शिक्षा व्यव्सथा को चौकस करने की पहल की. और अगर पहल की तो फिर इस बार भी सवाल क्यों उठ रहे हैं. और इसीलिए सवाल उन टॉपर्स से ही नहीं बल्कि बिहार के शिक्षा महकमे के हर जिम्मेदार व्यक्ति से पूछने की जरूरत है. उनसे इसका जवाब लेने की जरूरत है कि क्या वाकई यही बिहार की शिक्षा की सच्ची तस्वीर है. आखिर कैसे वो छात्र टॉपर बन रहे हैं जिन्हें विषय की जानकारी तो दूर अपने विषय का नाम तक सही तरीके से नही मालूम.

 

क्या शिक्षा मंत्री से जवाब तलब किया ?

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कांग्रेस के कोटे से शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी से क्या जवाब तलब किया? जिस राज्य के साढ़े सात लाख बच्चे 12वीं में फेल कर गए हों वहां के मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री के पास क्या सफाई है? जिस राज्य में लगातार दूसरे साल भी टॉपर पर फर्जीवाड़े का केस हो रहा हो वो शिक्षा में सुधार की बात कैसे कर सकता है? लालू प्रसाद यादव के 9वीं पास और 12वीं पास बेटे जिस नीतीश कैबिनेट में अहम मंत्री हैं, वहां शिक्षा को लेकर किस तरह की नीति और सोच है?

बिहार की शिक्षा व्यवस्था को लेकर किसी को कोई भ्रम नहीं होना चाहिये. बुनियादी दिक्कतों से कब तक मुंह मोड़ेंगे. स्कूलों की हालत, शिक्षा का स्तर, शिक्षकों और सुविधाओं की कमी नयी बात नहीं. सरकारें बदली लेकिन हालात पूरी तरह नहीं बदले. स्कूलों की इमारतें बन जाना और बच्चों को पोशाक मुहैया कराना ही शिक्षा का सुशासन नहीं है. शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए कितने ठोस कदम उठाए गए पिछले सालों में? CRY और Centre For Budget and Governance Accountability की एक स्टडी के मुताबिक बिहार शिक्षा पर कम खर्च करने वाले राज्यों में एक है. बजट आबंटन 17 फीसदी है लेकिन खर्च कम है. बिहार में प्रति छात्र महज 9,583 रूपये खर्च होता है, जो दूसरे राज्यों के मुकाबले बेहद कम है. इतना ही नहीं इस स्टडी के मुताबिक बिहार के 63 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात मानक से लगभग दोगुना है. ये आंकड़े जाहिर कर रहे हैं कि शिक्षा की बुनियाद को मजबूत बनाने में सरकार की इच्छाशक्ति कितनी है. प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी और उसपर शिक्षा मित्रों पर शिक्षा का भार डाल देना, ये बच्चों के भविष्य के साथ कौन सी संजीदगी दिखायी जा रही है? भविष्य से खिलवाड़ की बात वहां भी उठती है जब JEE में चुने गए बच्चे को दो नंबर और दस नंबर मिलते हैं. क्या यहां शिक्षक की भी स्क्रूटनी नहीं होनी चाहिए कि क्या वाकई कॉपी सही तरीके से जांची गयी, जिन्होंने जांची वो सक्षम थे.

 

बिहार के टैलेंट को ऐसे न परखिए

 

इन सारी कमियों के बावजूद ये बिहार की शिक्षा की असली तस्वीर रूबी या गणेश नहीं है. ये तो उस सड़े सिस्टम की तस्वीर हैं जो सत्ता की कमजोरी में पनपी हैं. क्योंकि अगर ये तस्वीर सही होती तो फिर देश के प्रतिष्ठित प्रतियोगिता परीक्षाओं में बिहार के बच्चे अपना लोहा नहीं मनवा पाते. मेडिकल, आईआईटी, यूपीएससी, कौन सी ऐसी प्रतियोगी परीक्षा है जहां बिहार की प्रतिभा ने खुद को साबित नहीं किया है. बिहार के टैलेंट को किसी रूबी..किसी गणेश की कसौटी पर मत परखिए.

तमाम कमियों के बीच भी पढ़े इन बच्चों में प्रतिभा की कमी नहीं है. जहां उस प्रतिभा को लगन के साथ तराश दिया जाता है वहां वो सबको पीछे छोड़ देते हैं. इसका उदाहरण है आनंद कुमार और अभयानंद का शुरू किया सुपर 30 है. जिनकी एक शुरूआत ने बिहार की काबिलियत को नयी पहचान दी.

बिहार का टैलेंट देखना है तो जाकर पटना के छात्रावासों में देखिए. रात को दिन और दिन को रात में तब्दील करते उन छात्रों से मिलिए जो सिर्फ अपनी काबिलियत और मेहनत के भरोसे हर परीक्षा में अव्वल आने का जज्बा रखते हैं. पटना के उन संकरी गलियों के अंधेरे कमरे में आपको प्रतिभा की चमक दिखेगी. जो अपने कंधों पर अपने परिवार, अपने गांव, अपने इलाके का नाम रौशन करने की जिम्मेदारी लिए पढ़ाई कर रहा है. यहां के ट्यूशन और कोचिंग के धंधे की बात फिर कभी. टैलेंट देखना है तो छोटे शहरों में, गांवों में जाकर देखिए. पढ़ने, कुछ बनने का ऐसा जुनून आपको विरले ही मिलेगा. गर्मी में बेहाल, लालटेन की रौशनी में ये किसी नकल या फर्जीवाड़े की बदौलत नहीं अपनी मेहनत के बूते अपनी पहचान बनाने का हौसला रखते हैं. इनकी मेहनत और लगन भी आज माखौल के दायरे में है. बिहार की नीतीश सरकार और सिस्टम की जवाबदेही इनके प्रति है. अपने जज्बे और जुनून से अपनी काबिलियत का लोहा मनवाने वाले हर बिहारी छात्र का कसूरवार है ये सिस्टम. सत्ता, धन और धंधे के इस सिस्टम को खत्म कर ही शिक्षा का सुशासन लागू हो सकता है.

 


सभार: संगीता तिवारी, एबीपी न्यूज़

 

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