विश्लेषण: बिहार के शिक्षामित्र ही बन गये बिहार के शिक्षा व्यवस्था के शत्रु
प्रिय पाठकों ! बिहार के एक गाँव के दो वार्तालाप-दृश्य का आनंद लीजिए–
प्रथम दृश्य
“का हो खुरखुर भाई ! रामधनी के बड़का बिटवा पप्पू त शिक्षामित्र बन गया। हाँ हो कामेश्वर भाई ! अभिये रामधनी जी मिठाई खिला के गये हैं। ओहो, खुरखुर भाई, उनके बड़का बिटवा पप्पुआ तो गोबर-गणेश है, कैसे बन गया जी ? क्या आप भी कामेश्वर भाई ! बच्चा जैसा बतियाते हैं, इ सब नम्बरन आ पैरवी का खेला है, सब हो जाता है, जादे डीप में नहीं जाइए। लेकिन खुरखुर भाई, सब बात एक तरफ, लेकिन एगो बात तइयो हइये है कि उ पप्पुआ बच्चन सब को का पढ़ाएगा ? अरे छोड़िये कामेश्वर भाई, हमलोगन के इ सबसे का मतलब ! हाँ खुरखुर भाई, ठीके कहते हैं।”
द्वितीय दृश्य (कुछ साल बाद)
“की हो कामेश्वर भाई ! का हाल चाल है ! रामधनीजी मिठाई खिलाने आए थे, उनका बिटवा पप्पू जो शिक्षामित्र है वह प्रखंड शिक्षक के रूप में समायोजित हो गया है और उसका वेतन 20000 रुपिया हो गया है I हाँ हो खुरखुर भाई, उनका तो किस्मते चमक गया। घर बैठे 20000 रूपिया, गाँव के स्कूल में पोस्टिंग, स्कूल ज्यादा जाना नहीं, अपना किराना दुकान भी चलाता है, खेती-बाड़ी भी अपने कर लेता है। का बताया जाए, पप्पू का सब पैसा तो बचिए जाता है। लेकिन कामेश्वर भाई, एगो बात है ! का बात है खुरखुर भाई ! इहे सोच रहे हैं कि उ पप्पुआ बच्चन सबको का पढ़ाता होगा । अरे छोड़िये कामेश्वर भाई, हमें का मतलब ! हाँ आप ठीके कहते हैं I हमरा दुनू गोटे के बच्चन त कान्वेंट स्कूल में पढ़ता है “
कुछ वर्षों पहले बिहार में उच्च अंकों के आधार (न जाँच परीक्षा और न ही साक्षात्कार) पर स्कूलों में शिक्षामित्रों की भर्ती हुई जिन्हें बाद में पंचायत या प्रखंड शिक्षकों के रूप में समायोजित कर ग्रेड पे दिया गया जिसमें लगभग 20000-22000 रूपये कुल वेतन बनता है। अब इन हजारों/लाखों लोगों को, जो अपने प्रशंसनीय शैक्षणिक पृष्ठभूमि (क्योंकि उनके अंकपत्रों में अत्यधिक अंक थे) के कारण शिक्षामित्र बन पाए थे, व्यावहारिक रूप से अत्यधिक योग्य होना था और शिक्षा के क्षेत्र में बिहार को नई ऊंचाईयों पर पहुंचाना था। किन्तु क्या ऐसा हो पाया ? बिलकुल नहीं ! ऐसे लोग शिक्षामित्र बन गये जिन्हें बारह महीनों एवं सप्ताह के सातों दिनों की स्पेलिंग नहीं आती, जो भारत के प्रधानमंत्री को बिहार का मुख्यमंत्री बताते हैं, जो संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण को एक समान दृष्टि से देखते हैं और उनकी परिभाषा एक ही बताते हैं, जो मुंशी प्रेमचंद को अंग्रेजी का महान कवि बताते हैं, जो सरस्वती पूजा और दुर्गा पूजा पर एक ही निबंध बच्चों को लिखवा देते हैं, जिनके लिए ईद और मुहर्रम में कोई अंतर ही नहीं है I जब ऐसे महान समदर्शी लोग शिक्षा के पेशे में आ गए तो शिक्षा की महान अवनति को रोकने की हिम्मत कौन कर सकता है !
“पाया हमीं से था कभी जो बीज वर विज्ञान का,
उसको दिया है दूसरों ने रूप रम्योद्यान का।
हम किन्तु खो बैठे उसे भी जो हमारे पास था,
हा! दूसरों की वृद्धि में ही क्या हमारा ह्रास था !”
— मैथिलीशरण गुप्त
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि शिक्षक स्कूलों में मिड-डे मील योजना के अंतर्गत आता-दाल-चावल का हिसाब भी रख रहे हैं। इन्हें चुनाव ड्यूटी भी करना होता है, जनगणना भी कराना होता है एवं और भी कई सरकारी काम इनसे कराए जाते हैं। जो कुछ योग्य शिक्षक थे उन्हें लम्बे समय तक बहुत कम वेतनमान मिला। कुछ योग्य शिक्षक झारखंड/उत्तर प्रदेश (जहाँ वेतनमान ज्यादा है) प्रस्थान कर गए या करने की प्रक्रिया में हैं। इस तरह योग्य शिक्षकों के अभाव एवं स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण शिक्षा का स्तर उठेगा तो नहीं, गिरेगा ही।
जून 2007 में मुचकुंद दूबे की अध्यक्षता वाली कॉमन स्कूल सिस्टम कमीशन ने बिहार सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें बिहार में शिक्षा के स्तर को सुधारने एवं सहभागिता बढाने हेतु 9 वर्षीय एक्शन प्लान सुझाया गया था I इसमें स्कूलों की संख्या 2.5% बढ़ाने की बात कही गई थी I इस पर 17221.5 करोड़ रूपये वार्षिक खर्च का अनुमान किया गया था I हालांकि इस कमीशन की रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया गया I इस कारण प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ती गई और सरकारी स्कूलों का स्तर गिरता गया I यह भी गौरतलब है कि बिहार सरकार के 2016-17 के बजट में शिक्षा पर सबसे अधिक जोर देने की बात की गई है और इस मद में सर्वाधिक 21897 करोड़ की राशि (कमीशन द्वारा अनुमानित राशि से अधिक) आवंटित करने की बात कही गई है I अब सोचनेवाली बात यह है कि यदि इतनी ही राशि (हर वर्ष) कमीशन द्वारा सुझाए गई योजना के तहत 2008 से अब तक एक Planned Way में खर्च की जाती तो शायद हालात कुछ सुधर गए होते I
2011 की जनगणना आंकड़ों के अनुसार बिहार की साक्षरता दर 61.8% है और यह पूरे भारत में न्यूनतम साक्षरता दर वाला राज्य है I बिहार 1952 में कुछ राज्यों (उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश) से आगे था I अब ये राज्य बिहार से आगे हैं I 1988 में केन्द्रीय सहयोग से राज्य के कुछ जिलों में साक्षरता मिशन शुरू हुआ और 2000 में विभाजन के बाद यह कार्यक्रम राज्य के 38 जिलों में चलाया जा रहा है I किन्तु असल बात तो यह है कि आप कोई भी योजनाएं ले आयें, कितनी भी राशि आवंटित कर दें, पर जिन पर छात्र निर्माण का भार है, यदि वही योग्य नहीं होंगे तो सब व्यर्थ है, सब बेकार है I महर्षि अरविन्द घोष ने कहा था—‘अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं I वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींच कर महाप्राण शक्तियां बनाते हैं I’ आज माली तो है पर वह चतुर नहीं है I वह छात्रों के जीवन रूपी भूमि को सींचकर उर्वर नहीं बनाता क्योंकि वह खुद श्रम नहीं करना चाहता I यह ठीक है कि वे अयोग्य हैं पर स्वाध्याय द्वारा योग्य भी तो बना जा सकता है I पर इसमें श्रम की जरूरत है जो वे करना नहीं चाहते I उन्हें प्रेरित करना आवश्यक है-इसक सिवा कोई विकल्प नहीं I इसलिए यह कवि उन सभी पूर्व शिक्षामित्रों (अब वे शिक्षामित्र नहीं, वरन पूर्ण शिक्षक कहलाते हैं) का आह्वान करता है—
हे शिक्षामित्रों ! राज्य भर की दृष्टि अब तुम पर लगी
बनो विद्याव्यसनी, स्वाध्यायी बनो, आश तुम पर ही लगी
छात्र हैं भावी कर्णधार, उनके निर्माण का दायित्व तुम्हीं पर है
उनका उज्ज्वल भविष्य बनाने का, भारी दायित्व तुम्हीं पर है
करो स्वाध्याय तुम, अपने ज्ञान को नित दिन तुम तो बढ़ाओ
दिवा-रात्रि अहर्निश मेहनत कर, अपनी योग्यता तुम तो बढ़ाओ
सिर्फ पेट पालने के लिए जो है पढ़ाता, वह बनिया कहलाता है
लोगों की ऊँगली उठने पर भी चुप रह जाए वह कायर कहलाता है
जग को दिखा दो कि तुम भी ज्ञान-बुद्धि के धाम हो
दक्षता अपनी बढ़ाओ, बुद्धि-बल से काम लो
खुद भी पढ़ो, छात्रों को पढ़ाओ
खुद भी बढ़ो, छात्रों को बढ़ाओ
आओ मिलकर पढ़ें पढ़ाएं
हम सब ऐसा राज्य बनाएं
कोई फिर ऊँगली न उठाए
चतुर्दिक श्रेष्ठ तो हम कहलाएं
अविनाश कुमार सिंह