चंपारण सत्याग्रह गाँधी के रूप में एक मसीहा ही नहीं बल्कि कृपलानी के रूप में एक जुनूनी स्वतंत्रता सेनानी भी दिया
चंपारण सत्याग्रह का जिक्र जब भी होता है ग्रियर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज (अब लंगट सिंह कॉलेज) का नाम जरुर लिया जाता है। लेकिन वह नाम महज गाँधी के रुकने और जे बी कृपलानी के स्वागत करने के प्रसंग से आगे बढ़ नही पाता। सच तो यह है कि चंपारण सत्याग्रह ने केवल देश को गाँधी के रूप में एक मसीहा ही नही दिया बल्कि एल एस कॉलेज के शिक्षक कृपलानी के रूप में एक ऐसा जुनूनी स्वतंत्रता सेनानी भी दिया, जिसने आज़ादी से पूर्व व आज़ादी के बाद के दौर में देश की राजनीति में अपनी अमिट छाप छोड़ी।
महज तीन दिन रुकने का इरादा लेकर आये गाँधी मुजफ्फरपुर में केवल कृपलानी को जानते थे और कृपलानी ही थे जिन्होंने गाँधी की मुलाक़ात अधिवक्ताओं से करवाया, साथ ही पूरी रणनीति बनने की पृष्ठभूमि में भी रहे। गाँधी की आगवानी की वजह से नौकरी गंवाने वाले कृपलानी चंपारण सत्याग्रह से जुड़े और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेता बनकर उभरे, जिसमें 1934-45 तक महासचिव और आज़ादी के समय कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने। 1950 में कांग्रेस छोड़ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े कृपलानी 1952 से लेकर 1967 तक लगातार लोकसभा के सदस्य चुने जाते रहे और विपक्ष की भूमिका निभाई। इंदिरा गाँधी से मतभेद रखने वाले कृपलानी आपातकाल के दौरान पहले उन व्यक्तियों में शामिल थे, जिन्हें सरकार द्वारा गिरफ्तार किया गया था। 93 वर्ष की उम्र में सन 1982 में कृपलानी का देहांत साबरमती आश्रम में हुआ।
सिंध से मुजफ्फरपुर आये थे कृपलानी
एक लोकप्रिय शिक्षक व कुशल वक्ता रहे जीवंतराम भगवानदास कृपलानी का जन्म अब के सिंध पाकिस्तान में 11 नवंबर 1988 को हुआ था। शिक्षा दीक्षा पुणे और बंबई में पाई। एमए की पढ़ाई करने के बाद वे अपने भविष्य के प्रति चिंतित थे क्यूंकि सिंध में अपने परिवार व समाज के बीच अपने उग्र राजनीतिक विचार रखने की वजह से आसानी से स्वयं को स्वीकार्य नही पा रहे थे। इसी बीच उनके एक मित्र एच.एल.चबलानी जीबीबी कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए और उन्होंने ही इतिहास विभाग में जगह खाली होने की बात बताते हुए पत्र लिख कृपलानी को आवेदन करने को कहा। अपने आवेदन व चबलानी के अनुशंसा पर कृपलानी इतिहास विभाग में 1913 में नियुक्त हो गये।
देशसेवा का जूनून पैदा करने वाले ‘दादा’
पतले-दुबले शरीर और नाटे कद के कृपलानी विद्यार्थियों में अपने स्वभाव व अनोखे शिक्षण की वजह से अत्यंत लोकप्रिय थे, जो दिन में कक्षा में शिक्षक तो शाम में विद्यार्थियों के साथ फुटबॉल, टेनिस, हॉकी खेलते थे। अत्यधिक अनुशासनप्रिय कृपलानी कक्षा में सख्त तो बाहर अपने विद्यार्थियों के मित्र थे, जिनके लिए वे सदैव उपलब्ध रहते थे और यही वजह थी कि बच्चें उन्हें प्यार से दादा कहकर बुलाते थे। कॉलेज में आने का अपना मकसद बताते हुए एल एस कॉलेज के स्वर्ण जयंती विशेषांक में वे लिखते है कि मै यहाँ नौजवानों में देश के लिए प्रेम और इसकी सेवा के लिए इच्छा पैदा करने के साथ ही उन्हें आज़ादी के लिए कार्य करने लिए प्रेरित करता था। वे लिखते है कि पढ़ाई के दौरान में विद्यार्थियों से देश की समस्या के बारे में जानने के लिए प्रेरित करते हुए उन्हें यह बताता था कि कैसे विदेशी शासक देश को बर्बाद करने में लगे है, उद्योगों को चौपट कर रहे है और जनता का शोषण कर उन्हें असहाय बना रहे है।
कृपलानी श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और स्वामी राम तीर्थ के लिखे लेखों और उनके संदेशों को भी विद्यार्थियों के बीच रखते थे, जिससे उन्हें देश के प्रति कुछ करने का जूनून जगे।
कृपलानी लिखते है कि उनकी गतिविधियों के बारे में यूरोपियन प्राचार्यों को सब पता था लेकिन सरकारी कॉलेज नही होने की वजह से वे कुछ भी करने में असमर्थ थे, सिवाए सरकार को मेरी गतिविधियों के बारे में बताने के।
आज़ादी के दीवानों के हितैषी कॉलेज में आने के बाद कृपलानी मुजफ्फरपुर के सक्रीय लोगों के संपर्क में रहते थे। वे उनकी भी मदद करते थे जो आज़ादी के आन्दोलन में सक्रीय थे। बंगाल से भागकर आये क्रांतिकारियों को सुरक्षित स्थान मुहैया कराने से लेकर आर्थिक मदद तक की बंदोबस्त वे करते थे। वे अपनी 175 रूपये के वेतन में से 30 रुपया रखकर बाकी राष्ट्रीय हितों के लिए खर्च कर देते थे।
जब गाँधी से पहली बार मिले कृपलानी
गाँधी जब अफ्रीका से भारत आये तो कृपलानी उन चंद राजनीतिक कार्यकर्ताओं में से एक थे, जिनसे उनकी मुलाक़ात हुई। कृपलानी गाँधी से पहली बार मार्च 1915 में शांतिनिकेतन में मिले थे, जहाँ वे एक सप्ताह तक अपना काफी समय उनके साथ देश के राजनीतिक भविष्य और आज़ादी के लिए अहिंसा का प्रयोग से जुड़ी जिज्ञासाओं को शांत करने वाली चर्चा में बिताया। कृपलानी लिखते है कि मैंने गाँधी को बताया कि मै अहिंसा में विश्वास नही करता। हो सकता है अहिंसक तरीके से हम कुछ प्रशासनिक सुधार प्राप्त कर सके, जिनमे भारतियों को उच्च पदों वाली अधिक नौकरी और ज्यादा सुविधाए मिल जाए, लेकिन हमारा मकसद विदेशी सत्ता की जगह भारतीय सत्ता लाना है। गाँधी ने अपने प्रतिउत्तर में कहा कि इतिहास ने अपने आखिरी शब्द अभी तक नही लिखे है। यह जबाब सुनकर कृपलानी लिखते है कि मुझे लगा यह आदमी इतिहास में एक नया क्रन्तिकारी अध्याय जोड़ेगा।
1917 में मुजफ्फरपुर आने से पहले गाँधी से कृपलानी की कई बार मुलाक़ात बंबई में हुई। 1916 के लखनऊ अधिवेशन में भी वे गाँधी से मिले।
जब गाँधी आये मुजफ्फरपुर
1917 को 9:30 बजे रात में कृपलानी को एक तार मिला कि गाँधी रात की ट्रेन से मुजफ्फरपुर आ रहे है, तो कृपलानी ने पहले अपने साथी शिक्षक एन.आर.मलकानी के यहाँ रहने की व्यवस्था का बंदोबस्त किया और फिर छात्रावास के छात्रों को सूचित कर उन्हें अपने साथ गाँधी के स्वागत हेतु साथ चलने का आग्रह किया। विद्यार्थी गाँधी के बारे में नही जानते थे। कृपलानी ने उन्हें जानकारी दी। गाँधी के दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष में योगदान देख छात्र उत्साहित हुए। इसी बीच दरभंगा के रहने वाले एक विद्यार्थी ने गाँधी का हिन्दू रीतिरिवाज से आरती कर पारंपरिक तरीके से स्वागत करने का सुझाव दिया। कृपलानी को भी यह विचार पसंद आया।
विद्यार्थियों ने फुल की व्यवस्था लेकिन नारियल का अभाव था और दुकाने बंद हो चुकी थी। परिसर स्थित नारियल के पेड़ था मगर उसपर चढ़ने के लिए जब कोई राजी नही हुआ तो कृपलानी स्वयं चढ़े और हरे नारियल व ड्यूक छात्रावास के 25 विद्यार्थियों के साथ गाँधी का स्वागत करने स्टेशन पहुंचे।
गाँधी को उनके अलावा और कोई पहचानता नही था। रातवाली ट्रेन से एक बड़ी संख्या में यात्री सफ़र करते थे, स्वाभाविक था गाँधी को उस भीड़ में पहचान पाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में विद्यार्थियों की भीड़ देखकर गाँधी ने अपने साथी राजकुमार शुक्ल, जिन्होंने चंपारण के किसानों के शिकायत गाँधी तक पहुँचाया था, को भेजा तो पता चला विद्यार्थी गाँधी को ही खोज रहे थे। कृपलानी ने छात्रों के साथ उनका स्वागत किया।
कृपलानी लिखते है कि इस स्वागत से गाँधी सकुचा रहे थे। मैंने विरले ही किसी नेता को इस तरह के स्वागत पर संकोच करते देखा था।
इसी बीच कृपलानी के पहचान के एक जमींदार भी स्टेशन पर उतरे जिनके पास बघ्घी थी। उन्होंने उनसे अपनी बग्घी छोड़ने का आग्रह किया, जिसपर वे राजी हो गये। जब वे गाँधी को ले गये तो देखा कि विद्यार्थी बग्घी में घोड़े की जगह खुद ही जुते हुए थे। गाँधी ने इसका विरोध किया और कहा कि अगर विद्यार्थी घोड़े की जगह रहेंगे तो मै पैदल जाना पसंद करूँगा। कृपलानी ने भी विद्यार्थियों को समझाया और गाँधी के साथ बग्घी में बैठ गये, जहाँ चंपारण आने का मकसद व अन्य बातें करने लगे। कृपलानी को तो आभास हो गया था कि छात्रों ने गाँधी की बात नही मानी लेकिन जब स्वयं गाँधी को कॉलेज परिसर में पहुँचने पर पता लगा तो वे नाराज हुए और कहा कि अगर उन्हें पता चलता तो वे सत्याग्रह कर बैठते।
सुबह में कृपलानी ने देखा कि जिस मलकानी के घर गाँधी रुके थे, वे अपने सामान के साथ तैयार थे। जाहिर सी बात थी वे बेचैन थे। कृपलानी ने उन्हें शांत किया और चिंतामुक्त रहने की बात करते हुए प्राचार्य को ‘गाँधी मेरे अतिथि है’ की बात स्वयं बताने की बात कही। यह घटना कृपलानी और उनके छात्रों के लिए हैरान करने वाली थी कि अंग्रेजों का डर इतना है कि पढ़े लिखे और बुद्धिजीवी लोग भी विपरीत परिस्थिति में अपना धैर्य खो बैठते है। कॉलेज खुलने पर प्राचार्य से जब कृपलानी मिले और
गाँधी का जिक्र किया तो प्राचार्य ने कहा कि वह कुख्यात गाँधी तुम्हारा अतिथि है। कृपलानी ने विरोध भरे स्वर में गाँधी को कुख्यात कहने पर कहा कि आप उन्हें कुख्यात क्यों कह रहे है? उन्होंने तो अपनी सेवा उस साम्राज्य के लिए दी है जिन्होंने उन्हें कैसर-ए-हिन्द की उपाधि दी।
इसपर प्राचार्य ने किसी अन्य जगह रहने की व्यवस्था करने की बात करते हुए कहा कि उसने(गाँधी) कुछ बढ़िया किया है और बहुत ज्यादा नुकसान भी पहुंचाया है। कृपलानी ने यह कहकर कक्ष से निकल गये कि यह हमारा रिवाज नही है। अगर मै गाँधी के पास जाता तो वे भी मुझे अपने पास ही रखते है।
मुजफ्फरपुर आने के प्रसंग का जिक्र करते हुए गाँधी अपनी आत्मकथा में लिखते है कि मेरे पुराने परिचित कृपलानी के त्याग और साधारण जीवन के बारे में मुझे डॉ चोइथराम ने बताया था कैसे उनकी आश्रम की व्यवस्था करने में कृपलानी ने आर्थिक मदद की। कॉलेज परिसर में रुकने की व्यवस्था करने पर गाँधी लिखते है कि मेरे जैसे व्यक्ति को ठिकाना देना किसी सरकारी प्रोफ़ेसर के लिए एक असाधारण सी बात थी। कृपलानी ने मुझे न केवल चंपारण के किसानों की दयनीय स्थिति के बारे में जानकारी बल्कि इस कार्य में आने वाली कठिनाईयों के बारे में भी बताया। उनका बड़ा ही नजदीकी रिश्ता बिहार के लोगों के साथ था और मेरे मिशन के बारे वे अपने मित्रों को पहले ही बता चुके थे। गाँधी से मिलवाने के लिए कृपलानी ने शहर के प्रमुख अधिवक्ताओं को बुलाया जिनसे गाँधी ने चंपारण के किसानों की स्थिति व उसके क़ानूनी पक्ष को जानने-समझने की कोशिश की। अगले दिन सुबह सुबह एक अधिवक्ता मित्र जब गाँधी को अपने घर रहने का निमंत्रण देने आये तो कृपलानी को यह शक हुआ कि कही यह प्रस्ताव यूरोपियन प्राचार्य के कहने पर तो नही दिया गया क्यूंकि कॉलेज और उनके आवास में दुरी कोई खास नही थी। गाँधी के प्रस्ताव स्वीकारने पर कृपलानी को कोई आपत्ति नही थी, हालाँकि शहर के केंद्रबिंदु के लिहाज से कॉलेज परिसर से आवास ज्यादा दुरी पर था।
गाँधी से जुड़ाव की वजह से छोड़ना पड़ा कॉलेज
गाँधी जबतक कृपलानी के साथ रहे, कॉलेज के एक भी प्रोफ़ेसर गाँधी से मिल पाने की हिम्मत नही जुटा पाए।चार दिन रहने के बाद जब गाँधी चंपारण चले गये तो कृपलानी उनके साथ नही थे, फिर भी विशेष संदेशवाहक के जरिये संदेशों का आदान-प्रदान गाँधी के साथ उनका होता रहा, जिससे वे चंपारण में हो रही गतिविधियों से जुड़े रहे। इसी बीच कॉलेज में गर्मियों की छुट्टीयों से पहले कृपलानी को एक पत्र निदेशक जननिर्देश का मिला, जिसमें उनकी सेवा समाप्त करने की बात लिखी थी। उस समय कॉलेज का अधिग्रहण सरकार द्वारा कर लिया गया, जिसमें एक अन्य प्रोफ़ेसर को छोड़ बाकी सभी की नौकरी पुनः बहाल कर दी गई। यहाँ यह समझना कठिन नही था कि राजनीतिक विचारों और विभिन्न गतिविधियों में सक्रियता की वजह से कोई कारण नही था कि कृपलानी को वे रखते। कॉलेज बोर्ड के सदस्यों व अन्य कई गणमान्य नागरिकों ने निदेशक को पत्र लिखकर यह आग्रह किया कि कृपलानी एक बेहतर व सक्षम शिक्षक है तथा उनकी सेवा समाप्ति कॉलेज के लिए अपूर्णीय क्षति होगी, इसलिए उन्हें पुनः बहाल किया जाए। इसी बीच गाँधी के अतिथि के रूप में आगमन ने उनकी पुनः बहाली पर सदा के विराम लगा दिया और इस तरह उनका करियर एक प्रोफ़ेसर के रूप में समाप्त हो गया। कृपलानी ने इसके बाद गाँधी को एक पत्र लिखा और कहा कि वे अब स्वतंत्र है और अगर वे चाहे तो चंपारण में उनके साथ जुड़ना चाहेंगे ताकि उनके काम में कही उपयोग आ सके। गाँधी का जबाब तुरंत ही 17 अप्रैल को आया, जिसमें गाँधी ने लिखा था कि मैंने आपके शब्दों, भावों, आँखों में एक लगाव को पढ़ा है। आपको अपनी पसंद चुनने चाहिए। चाहे तो अहमदाबाद जाकर विद्यालय के साथ कार्य करें या फिर कैद होने के रिस्क लेकर यहाँ काम करें। अगर आप चाहते है कि यहाँ रहने के बारे में मै चुनाव करूँ तो मै कहूँगा कि जबतक एक व्यक्ति के रूप में आपको साँस लेने की आज़ादी है तबतक उस जगह को न छोड़े।
चंपारण में कृपलानी
जब कृपलानी गाँधी के पास पहुंचे तब वरिष्ठ अधिवक्ता धरणीधर बाबू ने गाँधी को सलाह दी कि आप कृपलानी को अपने साथ बेतिया न ले जाए। इनकी पहचान राजनीति में एक गरमपंथी के रूप में है। इनकी वजह से अधिकारीयों के साथ कुछ दिक्कतें हो सकती है। गाँधी हँसे और उनसे कहा कि प्रोफेसर हमारे साथ ही रहेंगे। बाद में धरणीधर बाबू कृपलानी के साथ काम करते हुए आजीवन मित्र बनकर रहे।
कृपलानी की राजनीतिक सक्रियता की जानकारी सरकार को थी और उनमें कही न कही यह बेचैनी भी थी कृपलानी के गाँधी के साथ रहने से सरकार का नुकसान हो सकता है। कृपलानी जब गाँधी के साथ चंपारण में रहने लगे तो कुछ दिनों के अन्दर ही सरकार द्वारा गाँधी के लिए भेजे गए एसपी ने गाँधी के पास आकर कहा कि अधिकारीयों को अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर कोई संदेह नही है लेकिन उनके सहयोगियों के बारे में संदेह है। गांधीजी ने कहा कि हमारे साथ के सभी लोग वकील है और वे केवल बयान रिकॉर्ड करने आये है। एसपी ने कहा, प्रोफ़ेसर कृपलानी के बारे में क्या कहना है? उनकी पहचान एक क्रन्तिकारी विचार रखनेवालों में है। वे किसी भी स्थिति में सरकार के प्रति सही राय रखने वाले नही होंगे, जिसने उन्हें अभी हाल में ही बर्खास्त किया है। गाँधी ने जबाब दिया कि कृपलानी यहाँ हम कैसे कार्य कर रहे है, उसकी स्थिति के बारे में जानते है। वे एक सभ्य व्यक्ति है। वह इसमें एक भूमिका अदा करेंगे। इसपर एसपी ने कहा कि वे केवल एक हिदायत दे रहे थे। गाँधी ने लौटकर ये बातें कृपलानी को बताई।
कृपलानी जबतक गाँधी चंपारण में रहे, उनके सहयोगी के नाते रहे। स्थानीय भाषा समझने में कठिनाई की वजह से बयान रिकॉर्ड करने के कार्य से कृपलानी तो नही जुड़े लेकिन गाँधी के भोजन से लेकर प्रशासनिक कार्यों तक, सबकी जिम्मेवारी सँभालते रहे।
गाँधी के साथ एक लंबा वक़्त रहने का जो दौर चंपारण से शुरू हुआ, वह उनके जीवनपर्यंत बना रहा। गाँधी के गुजरने के बाद भी कृपलानी गाँधी के विचारों का अनुसरण आजीवन करते रहे। कृपलानी जी गाँधी के चंपारण आंदोलन के महज सहयोगी ही नही रहे, राष्ट्रीय राजनीति के एक जाने-माने चेहरे के रूप में उभरे और अपने स्वभाव के साथ जिए। गाँधी चंपारण नही आते तो शायद कृपलानी राष्ट्रीय आन्दोलन से अप्रत्यक्ष तौर पर बतौर प्राध्यापक जुड़े रहते और उनका योगदान शायद उतना नही हो पाता, जितना उन्होंने किया। नियति ने इतिहास बदल डाला और कृपलानी राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के अमिट हिस्सा बन गए। आज वैसे समय जब देश चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी वर्ष मना रहा है, इस आंदोलन के अभिन्न हिस्सा रहे कृपलानी और उनके योगदान बारंबार स्मरणीय है।
स्रोत : (1) माय टाइम्स, जे बी कृपलानी, रूपा प्रकाशन, २००४
(2) द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ, महात्मा गाँधी, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस
(3) स्वर्ण जयंती विशेषांक, एल. एस. कॉलेज
– अभिषेक रंजन
पूर्व विद्यार्थी, लंगट सिंह महाविद्यालय व सचिव, लंगट सिंह महाविद्यालय पूर्ववर्ती छात्र संघ