इससे पहले भी हुआ था शराबबंदी मगर बिहार में नीतीश की शराबबंदी है सबसे ज्यादा असरदार
बिहार में शराबबंदी 2016 का सबसे चर्चित फैसला है। ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी सरकार ने शराबबंदी का फैसला लिया है। इससे पहले भी दो बार शराबबंदी दो नाकाम कोशिश हो चुकी । मगर नीतीश कुमार की शराबबंदी तमाम शुरुआती आशंकाओं और पुराने अनुभवों को नकारते हुए एक नया मिसाल कायम कर रहीं है। ऐसा सिर्फ़ इसलिए संभव नहीं हो पाया कि इस फैसले के पिछे सरकार ईमानदारी से प्रयास कर रहीं है बल्कि इसलिए संभव हो रहा क्योंकि पहली दो कोशिशों को राजनीतिक दलों और आम लोगों का आज जैसा व्यापक समर्थन नहीं था।
पहले भी लागू हो चुकी है शराबबंदी
इस बीच के दशकों में शराब की बुराइयों के भयंकर कुपरिणाम खुल कर सामने आए. 1938 में डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की सरकार ने और 1978 में कर्पूरी ठाकुर सरकार ने आंशिक शराबबंदी लागू की थी. 1978 में केंद्र की मोरारजी देसाई सरकार ने पूरे देश में चरणबद्ध तरीके से शराबंदी लागू की थी. उसी अभियान को सफल बनाने की कोशिश बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की सरकार कर रही थी.
1978 के अभियान के पीछे गांधीवादी मोरारजी थे तो 1938 के फैसले के पीछे राज्य के तत्कालीन आबकारी मंत्री जगलाल चौधरी. लेकिन कांग्रेस के अंदर शराबबंदी के सवाल पर एकमत नहीं था. लेकिन चौधरी नशाबंदी के खिलाफ अपने कड़े रुख पर कायम रहे.
कांग्रेस ने जब चौधरी को 1952 में मंत्री नहीं बनाया तो तब बिहार में आम चर्चा थी कि शराबबंदी के खिलाफ अपने कठोर निर्णय के कारण चौधरी को मंत्री पद गंवाना पड़ा. याद रहे कि जिस सरकार में दलित नेता जगलाल चौधरी कैबिनेट मंत्री थे, उसी सरकार में जगजीवन राम मात्र संसदीय सचिव थे.
यानी उस समय वे बाबू जगजीवन राम से तब बड़े नेता थे, पर उनकी जिद के कारण कांग्रेस का केंद्रीय हाईकमान भी नाराज हो गया.
1946 की अंतरिम सरकार में भी चौधरी मंत्री बनाए गए, पर उनका विभाग बदल दिया गया था.1952 में तो कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें मंत्री तक नहीं बनने दिया. गांधी जी ने तब कहा था कि यह देख कर पीड़ा होती है कि जो कांग्रेसी आजादी की लड़ाई में शराब की दुकानों पर धरना दे रहे थे, वे कांग्रेसी भी अब बदल गए.
कलकत्ता में मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर जगलाल चौधरी असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे. नशाबंदी लागू करके चौधरी जी गांधीजी के विचारों का ही पालन कर रहे थे. गांधीजी आबकारी राजस्व को पाप की आमदनी मानते थे.
जब गांधीजी से यह कहा गया कि इसी आमदनी से सरकारी स्कूलों का खर्च चलता है तो गांधी ने कहा कि ‘यदि इस आमदनी के बंद होने से सभी पाठशालाओं को भी बंद कर देना पड़े तो उसे भी मैं सहन कर लूंगा. पर पैसे के लिए कुछ लोगों को पागल बनाने की इस प्रकार की नीति एकदम गलत है.’
जगलाल चौधरी गांधी की यह उक्ति दुहराते रहते थे.
याद रहे कि 1946 में गठित अंतरिम सरकार में भी चौधरी नशाबंदी लागू करने की जिद करते रहे. याद रहे कि चौधरी पासी परिवार से आते थे. नशाबंदी से सबसे अधिक आर्थिक नुकसान उसी जातीय समूह को हो रहा था. इसके बावजूद उन्होंने नशाबंदी पर अपना विचार कभी नहीं बदला. उन्हें आज की तरह जनसमर्थन व पार्टी का सहयोग मिला होता तो शायद वे लागू करने में सफल होते.
वहीं जब मोराजी देसाई ने शराबबंदी लागू की तो पहले साल में एक चौथाई दुकानें बंद करने का फैसला किया. फसले के बाद मोरारजी देसाई पटना आए तो उनकी प्रेस कांफ्रेंस में मैं भी था.
एक संवाददाता ने सवाल पूछा,‘पूर्ण शराबबंदी कब तक लागू करेंगे ? प्रधानमंत्री ने कहा कि मैं तो आज ही लागू कर दूं,पर तुम लोग ही शराबबंदी का विरोध कर रहे हो.’ इस पर लंबा ठहाका लगा.
दरअसल मीडिया का एक बड़ा हिस्सा तब शराबबंदी के विरोध को हवा दे रहा था. खैर मोरारजी सरकार पांच साल पूरा नहीं कर सकी. बाद की सरकारों ने भी नशाबंदी की कोशिश तक नहीं की. नई सरकारों ने शराबबंदी की जरूरत नहीं समझी.
बिहार क्रांति की भूमि है यहां से प्रायः राजनितिक क्रांति की शुरुआती होती रहीं है और देश को दिशा देती रही है। मगर इस बार बिहार से समाजिक क्रांति की शुरुआत हुई है। उम्मीद है कि शराबबंदी के जरिए नशामुक्ति का जो सबसे बड़ा क्रांति बिहार से शुरु हुआ है वह पूरे देश में फैलेगा ।