बिहार के शहीद सूरज नारायण सिंह, जिसकी मौत ने सम्पूर्ण क्रांति में कैटेलिस्ट की भूमिका निभाई
शहीद सूरज नारायण सिंह, बिहार के वो सशस्त्र क्रांतिकारी जो गुलाम भारत मे जेपी (जयप्रकाश नारायण) को कंधे पर लादकर हजारीबाग जेल की दीवार 6 मिनट में फांदकर भागने में सफल हो गए थे, लेकिन आजाद भारत में मजदूरों के हक़ के लिए रांची में आंदोलन करते वक्त पुलिस के बर्बर लाठी से शहीद हो गए।
1974 के सम्पूर्ण क्रांति, उसके हीरोज और जयप्रकाश नारायण के बारे में पूरी दुनिया जानती है लेकिन जिस शख्स के मौत ने इस आंदोलन के शुरुआत में कैटेलिस्ट की भूमिका निभाई वो शख्स मिथिला सपूत क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी श्री सूरज नारायण सिंह (1907-1973) जी थे। ख़ैर ये कहानी बाद में, पहले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान की बातें।
मधुबनी जिले के नरपतिनगर गाँव मे सम्भ्रांत जमींदार परिवार में जन्में सूरज नारायण सिंह बचपन से ही आन्दोलनी, समाजवादी और क्रांतिकारी स्वभाव के थे। 14 साल की उम्र में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उनका नाम स्कूल से काट दिया गया तो 1921 में वो अपनी शिक्षा पूरी करने वाराणसी के काशी विद्यापीठ पहुंचे। इसी बीच वो भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त आदि को ट्रेनिंग देने वाले मुज़फ़्फ़रपुर के क्रांतिकारी श्री योगेन्द्र शुक्ल के सम्पर्क में आए। 1931 में भगत सिंह के फांसी की सजा ने उनकी जीवनरेखा बदल दी। वो सबकुछ छोड़कर क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त हो गए, सैकड़ों लोगों को अपने साथ जोड़ा और दर्जनों मामलों में उनका नाम आया। इसी बीच वो जयप्रकाश नारायण से जुड़ गए।
द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीय सेनाओं के भर्ती के खिलाफ प्रोटेस्ट करने के अपराध में जेपी के साथ गिरफ्तार हुए और उन्हें हजारीबाग जेल भेज दिया गया। जेल जाकर भी आंदोलन नहीं थमा, वहाँ के कुव्यवस्था के खिलाफ 21 दिनों तक अनसन किया।
1942 में जब गांधीजी ने क्विट इंडिया मूवमेंट शुरू किया तो इन लोगों ने निर्णय लिया की अब जेल में नहीं रह सकते। प्लानिंग की गई जेल से भागने की। और 9 नवंबर, दिवाली की रात जयप्रकाश नारायण, रामनन्दन मिश्रा, योगेंद्र शुक्ल, गुलाब चंद गुप्ता, शालिग्राम सिंह और सूरज नारायण सिंह जेल की दीवार फांदकर भाग गए। प्लानिंग इतनी तगड़ी थी की इन छहों के भागने के 9 घण्टे बाद तक जेल प्रशासन को ख़बर तक नहीं थी की ये सब भाग चुके हैं।
जेपी को सूरज बाबू ने अपने कंधे पर बिठाकर दीवार चढ़ी थी, दूसरी तरफ कूदते वक्त जेपी का पाँव कट गया। भागने में दिक्कत हो रही थी, बारी-बारी से साथी उन्हें कंधे पर बिठाकर चल रहे थे। लगभग 45 घण्टों तक जंगलों में लगातार चलने के बाद उन्हें एक गाँव मे जाकर खाना नसीब हुआ।
इन लोगों के ऊपर सरकार ने इनाम की घोषणा कर दी। गया पहुंचकर ये लोग दो टुकड़ियों में बंट गए। जेपी, शालिग्राम सिंह और रामनन्दन मिश्रा बनारस निकल गए और बांकी योगेंद्र शुक्ल, गुलाबचंद गुप्ता व सूरज नारायण सिंह मिथिला की तरफ आ गए। 4 दिसंबर को योगेंद्र शुक्ल मुज़फ़्फ़रपुर में थे, उस रात मुज़फ़्फ़रपुर जेल से चार राजनीतिक कैदियों को जेल से फरार करवाने में सफल हो गए। लेकिन 7 दिसंबर को उन्हें मुखबिर ने पहचान लिया, वो गिरफ्तार हो गए।
योगेंद्र शुक्ल को पटना लाया गया और फिर बक्सर जेल भेज दिया गया, वहाँ पुलिस के टॉर्चर से वो बीमार हो गए और उनकी आंखों की रौशनी चली गई। इधर गुलाबचंद और सूरज नारायण सिंह दरभंगा आ गए और पुनः क्रांतिकारी युवाओं को जोड़कर सङ्गठन बनाने में लग गए।
बनारस से दिल्ली जाकर जेपी वहाँ के राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे, वहाँ से महीनों के मुम्बई और दक्षिण प्रवास के बाद गिरफ्तारी से बचने के लिए भागकर उन्हें नेपाल जाना पड़ा। जेपी के साथ वहाँ सूरज नारायण सिंह भी अपने साथियों को लेकर पहुंचे। अंग्रेजी शासन से गुरिल्ला पद्धति में लड़ने के लिए आजाद-दस्ता का गठन हुआ। सूरज नारायण सिंह ने बिहार के तीन अन्य जगहों पर भी आजाद दस्ता की टीम बनाई।
इसी बीच मई 1943 में पुलिस ने नेपाल से जेपी, लोहिया, श्याम नंदन, कार्तिक प्रसाद, ब्रज किशोर सिंह, बैद्यनाथ झा आदि को गिरफ्तार कर लिया और हनुमान नगर थाने ले आई। सूरज नारायण सिंह को ख़बर हुई, जेपी के रक्षक बनकर वो दूसरी बार फिर जेल से उन्हें भगाने आए। 50 के करीब ससस्त्र क्रांतिकारियों के साथ उन्होंने थाने पर हमला कर दिया और सभी गिरफ्तारों को छुड़ा लिया।
इसके बाद भी अनेकों घटनाक्रम हुआ, गिरफ्तार हुए, जेल गए। स्वतंत्रता के बाद सूरज नारायण सिंह राजनीति में आए। सोशलिस्ट पार्टी से बिहार लेजिस्लेटिव असेम्बली में मधुबनी को रिप्रेजेंट किया, उनके जोड़दार भाषणों से ट्रेजरी बेंच गुंजायमान होने लगा।
आजादी के बाद सूरज नारायण सिंह ने अपना अधिकतम समय किसान और मजदूरों के आंदोलन को दिया, हिन्द मजदूर सभा के अध्यक्ष के रूप में मजदूरों के हक के लिए लड़ने लगे।
फिर आया 1973, सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में रांची के उषा मार्टिन कम्पनी के मजदूरों ने अपने वाजिब मांगों के लिए हड़ताल कर दी। आंदोलन को दबाने के लिए मौजूदा कांग्रेसी सरकार ने उषा मार्टिन कम्पनी के साथ मिलकर वहाँ अपनी एक पॉकेट यूनियन के थ्रू अव्यवस्था फैलाने की साजिश रची। लेकिन सूरज नारायण सिंह के लोकप्रियता के सामने किसकी चलती। 14 अप्रैल, 1973 को मजदूरों ने आमरण अनसन शुरू कर दिया। लोकल एडमिनिस्ट्रेशन और कम्पनी प्रबन्धन मजबूर होकर टेबल टॉक के लिए तैयार हुआ, सूरज नारायण सिंह वार्ता में गए तभी मजदूरों पर पुलिस और गुंडों ने अचानक से बर्बर हमला कर दिया। पता चलते ही सूरज बाबू दौड़े, उन्हें पुलिस ने बुरी तरह पीटा।
हमले में सूरज नारायण सिंह बेहद गम्भीर रूप से जख्मी हुए, उन्हें अस्पताल ले जाया गया लेकिन इतनी गहरी चोटें आई थी की उनकी अस्पताल में ही मौत हो गई।
21 अप्रैल को उनकी मौत के बाद उनके देह संस्कार में जेपी उनके शव से लिपट कर फुट-फुट कर रोए। रोते हुए वो कह रहे थे की “आज मेरा दांया हाथ चला गया, इतना अकेला मैंने मेरी पत्नी प्रभावती के मौत के बाद भी महसूस नहीं किया था।”
सूरज बाबू के मौत ने ही 1974 के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में कैटेलिस्ट की भूमिका निभाई थी। कारण देश का मौजूदा हालात जरूर था लेकिन इन्हीं के मौत के बाद उभरे राजनीतिक हालात ने ही आंदोलन की आग में घी का काम किया। सूरज बाबू के मौत के बाद उनकी सीट खाली हो गई थी, उनके स्थान पर उनकी विधवा चन्द्रकला देवी उम्मीदवार बनी। उसके बाद जो हुआ उसी ने आंदोलन को हवा दी। तत्कालीन कांग्रेसी नवचयनित मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर MLA नहीं थे बल्कि MLC थे, नियम के अनुसार उनका MLA बनना जरूरी था। मधुबनी उपचुनाव में सूरज नारायण सिंह जी के विधवा चन्द्रकला देवी के विरुद्ध मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर कांग्रेस के तरफ से उतरे। सूरज नारायण सिंह जी की लोकप्रियता और उनके हत्या के बाद उपजे जनाक्रोश में उनका जीतना नामुमकिन था, फिर सत्ता ने अपने साम-दाम-बल का उपयोग किया। भारी स्तर पर बूथ कैप्चरिंग हुई और चुनावी धांधली किया गया। चन्द्रकला देवी हार गई और गफूर साहब जीत गए।
यह कांड मधुबनी-कांड नाम से प्रसिद्ध हो गया। जेपी क्रोध में जल उठे। सूरज नारायण सिंह की हत्या के बाद अब लोकतंत्र की हत्या के ख़िलाफ़ वो उठ खड़े हुए। माहौल ऐसा हो गया की शांत-गांधीवादी समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर ने क्रोध में कहा था “मैं मधुबनी कलेक्टरेट जला दूंगा।” इसी घटना के बाद सरकार के खिलाफ आंदोलन की आग शुरू हो गई जिसने जेपी के गुजरात यात्रा और पटना में हुई हत्याओं के बाद सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन का स्वरूप ले लिया।
हम अपने हीरोज़ को कितना कम जानते हैं, कितना सम्मान-रिकॉग्निशन उन्हें मिल पाता है, सूरज नारायण सिंह जी का जीवनसंघर्ष ये साबित करता है। कितने बिहारी उनके बारे में जानते भी हैं ? कितने मैथिल उनके कामों से परिचित हैं ? उनके गृहजिले मधुबनी में कितने लोगों को वो याद भी हैं अब ?
नमन हे क्रांतिदूत। नमन हे मिथिलासूत।
(पोस्ट में तमाम तथ्य सत्य और समेकित है, कहीं से भी बढ़ा-चढ़ाकर नहीं लिखा गया है। सूरज बाबू का जीवन व काम ही इतना रोमांचक और अविश्वसनीय था मुझे खुद भी लिखने से पहले पढ़ते वक्त अकल्पनीय लग रहा था। पोस्ट में वर्णित बातें बिहार के आंदोलनों-स्वतंत्रता संग्राम-क्रांतिकारियों के ऊपर लिखी किताबों, न्यूज आर्टिकल्स, गवर्नमेंट आरकाइव्स पर आधारित है।)
– Aditya Mohan