चाहे टिकट वेटिंग हो चाहे कन्फर्म, दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है..
दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है. बहुत ज़रूरी होता है.. चाहे टिकट वेटिंग हो चाहे कन्फर्म.. चाहे ट्रेन के जनरल डिब्बा में चौबीस घंटा बिना हिले, बिना टॉयलेट-बाथरूम किए जाना पड़े.. आ चाहे ट्रेन के फर्श पर दस आदमी के बीच में दबा-चिपा के अखबार बिछा के सोना पड़े.. पटना से घरे के लिए जब बस पकड़ते हैं ना आ गांधी सेतु पर बस में “मांगी ला हम वरदान हे गंगा मैया” सुनते हैं ता पिछला चौबीस घंटा के कष्ट भुला जाते हैं.. ट्रेन में दिन भर के धक्कम-धुक्की से टूटल शरीर आ रात भर के जगरना से फूलल ललियाइल आँख, सब ठीक हो जाता है.. परदेश से आबे में चौबीस घंटा लगे चाहे अड़तालीस, दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है.. बहुत ज़रूरी होता है..
दिवाली में घरे जाना जरूरी होता है. बहुत जरूरी होता है.. एतना बड़का घर माई-बाबू अकेले कैसे साफ़ करेंगे..! माई के गोर-हाथ में दरद रहता है आ बाबूजी को अब आँख से देखाना भी कम हो गया है.. गाँव में हमारा कमरा आजो खालिए रहता है.. हम इधर शहर में किराया के मकान में जीवन काट रहे हैं आ उधर हमारा अपना घर हमारा बाट जोह रहा है.. बूढ़ माई, बीमार बाबूजी आ हमर माटी के भीत वाला घर, बुझाता है इनकरा के किस्मत में जीवन भर हम्मरे बाट जोहना लिखाया हुआ है.. एकरे खातिर दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है.. साल भर बाद हमरा देख के हमारा घर एक्क्दम्म से हरिया जाता है, बूढ़ माई के हड्डी में नया जान आ जाता है आ बाबूजी के आँख का रोशनी एकाएक बढ़ जाता है.. ईहे ता है हमारा दिवाली..!
दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है.. काहे से कि बहिनिया का शिकायत भी ता दूर करना होता है.. भईया, रक्षाबन्धन में नहीं आए, हमारे बियाह में भी ठीक सिन्दूरदान के टाइम पर पहुंचे थे.. भैयादूज में हम आ रहे हैं मायका, तुम भी अपने घर आ जाओ.. हाथ में पान का पत्ता, सुपारी, चांदी का सिक्का देकर बहिनिया यम-यमुना से हमारा लमहर जिनगी मांगती है.. एहू खातिर दिवाली में घरे आना ज़रूरी होता है..
दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है.. बहुत ज़रूरी होता है.. काहे कि आबे वाला होता है हमारा छठ..
बहिनिया के बियाह में गाँव नहीं आए, दादी के सराध में घरे नहीं आए सब माफ़ है.. लेकिन छठ में घरे नहीं आए! इसका कोई माफ़ी नहीं है.. चाहे हम जहाँ रहते हों शारदा दीदी का “सोना षटकोणिया हो दीनानाथ” सुनकर हमारा रोआँ खड़ा होबे लगता है.. जैसे जन-गण-मन सुनकर सच्चे भारतीय का रोआँ खड़ा होता है ठीक वोइसे ही छठ का गीत सुनकर हम बिहारी लोग का रोआँ खड़ा हो जाता है.. ईहे एहसास के खातिर दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है कि हमरा भीतर के बिहार आ बिहारी बचल रहे..
चाहे हम अमेरिका में इंजिनियर हैं आ चाहे दुबई में मनेजर, अगर हमारा दोस-यार सब घाट बनाबे के लिए बोल दिया ता हम लुंगी लपेट के, माथा पर गमछा बान्ह के आ कन्धा पर कुदारी टांग के पोखरी के तरफ चल देते हैं..! बड़का-बड़का बाबू साहब को माथा पर टोकरी आ केला के घौदा लेकर खालिए पैर घाट का बाट पकड़ना पड़ता है.. अपन माटी, अपन संस्कृति के खातिर दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है.. अपन परिवार, अपन दोस-यार सब के खातिर दिवाली में घरे जाना ज़रूरी होता है. एक बार फेर कहते हैं, दिवाली में घरे जाना एही खातिर ज़रूरी होता है कि हमारे भीतर का बिहार आ बिहारी कभियो मरे नहीं..!
टिकट लिए हैं कि नहीं.? इंतज़ार रहेगा आपका.. आपके गाँव को, बूढ़ी माई को, बीमार बाबूजी को आ आपके बिहार को…
– अमन आकाश