कोरोना और बाढ़ ने न जाने कितने ख्वाब डूबा दिए मगर नहीं डूबी बिहारियों की छठ को लेकर आस्था
छठ के बारे में क्या कहें, कितना कहें और कैसे कहें? छठ तो भावनाओं का सैलाब है| फिर भी हम सफेद कागज पर कलम की नोक के नीचे छठ के किस्सों को दबाने का दुस्साहस कर रहे हैं.
“कांच ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाय
होई ना बलम जी कहरिया बहंगी घाटे पहुंचाय
कांच ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाय…”
ये छठ गीत सुनते ही आप भी गुनगुनाने लगे ना?
यही तो छठ है, यही तो है जो इस महापर्व को जीवन्त बनाता है| सालभर मेहनत करके कटने वाली जिंदगी में छठ के ये चार दिन होते हैं, जब हर बिहारी जिंदगी काट नहीं रहा होता है अपितु खुलकर जी रहा होता है।
छठ के बारे में क्या कहें, कितना कहें और कैसे कहें? छठ तो भावनाओं का सैलाब है| फिर भी हम सफेद कागज पर कलम की नोक के नीचे छठ के किस्सों को दबाने का दुस्साहस कर रहे हैं।
कितने जिद्दी होते हैं ना हम बिहारी!
हम देश के उस हिस्से से हैं, जिसके वैश्विक महामारी कोरोना के विष को पीने के साथ बाढ़ की विभीषिका में तबाह होने के ताजा किस्सों में एक ओर जहां दुनिया गोता लगा रही थी, वहीं हम लोग इस डरावने ख़्वाब से निकलकर छठ की तैयारियों में पूरे उल्लास के साथ फिर से जुट गए। इस साल कॉरोना और बाढ़ ने न जाने कितने गांव,कितने शहर,कितने मोहल्ले, कितनी ज़िंदगियाँ और न जाने कितने ख्वाब डूबा दिए, पर जो नहीं डूबा,वह हम बिहारियों की छठ को लेकर आस्था|
छठ ‘मैं’ नहीं, ‘हम’ का पर्व है| यह हमारे अंदर के अहम को मारता है और हम को जिंदा करता है| छठ एकमात्र ऐसा पर्व है, जिसमें उगते और डूबते सूर्य दोनों को पूजा जाता है। डूबते सूर्य को हम इसलिए पूजते हैं क्योंकि हम परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव को समझते हैं, संघर्षों को पूजते हैं|
डूबता सूर्य जीवन के संघर्ष का प्रतीक है| वहीं उगते सूर्य की लालिमा में संघर्ष के बाद की जो सफलता मिलती है, हम उसे पूजते हैं।
मालूम नहीं दुनिया में जात-पात का विष कब खत्म होगा, पर छठ एक ऐसा पर्व है जो इन बेड़ियों को तोड़ता है। छठ में उपयोग की जाने वाले सूप को बनाने वाले लोग समाज के ऐसे वर्ग के होते हैं, जिन्हें लोग हेय की दृष्टि से देखते हैं। जब कार्तिक मास के ठंडे पानी में छठ व्रती अपने हाथों में उसी सूप को ऊंचाई पर रखकर अर्ध्य दिलाती है, तो महापर्व के लिहाज से यह सूप बनाने वाली जाति कितनी ऊंची है यह भी पता चलता है| साथ ही छठ के पीछे के अनगिनत खूबसूरत संदेश भी एहसासों में बस जाते हैं।
छठ स्त्री प्रधान पर्व है, ये लिंगभेद को बिना ‘फेमिनिस्ट बैनर’ के सदियों से तोड़ते आ रहा है
लाल-पीला पार वाली साड़ी और नाक पर सिंदूर का श्रृंगार करके घाट के किनारे खड़े होने वाली माओं को देवियों के रूप में पूजी जाती है। यह पर्व जितना सूर्यदेव का है, उतना ही छठ माई का है| न जाने कितनी बेड़ियां टूटती हैं इस पर्व में!
उन्होंने सदियों पहले नदियों को बचाने के लिए हमारी संस्कृति को उपहार के रूप में छठ पर्व दिया, हमने भी पीढियों से श्रद्धा के साथ इस पर्व को महापर्व रूप में बनाए रखा और “आज दुनिया में छठ,छठ का ‘ठेकुआ’ बिहारियों की पहचान है।”
बाहरी लोग अक्सर बोलते हैं कि हम बिहारी छठ पर ओवररिएक्ट करते हैं, अब कौन समझाए उन्हें छठ तो महज़ बहाना है, दुनिया भर की खुशियों को माई के आंचल में समेट लाने का…..❤
– शशांक शुभम (छात्र, कला संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)