हमारे ग्रामीण समाज में गाँव छोड़ बाहर रहने वाला “होशियार” माना जाता है
कही पढ़ा था- “भारतीय ग्रामीण समाज की आज ऐसी स्थिति है कि गाँव में गाँव छोड़ बाहर रहने वाला “होशियार” माना जाता है। जो आदमी जिला व राज्य छोड़ दे, वह “बड़ा होशियार” माना जाता है। और जो देश छोड़ दे वह “सबसे बड़ा होशियार” माना जाता है।” अगर आप गाँव से है तो आप इसे महसूस कर सकते हैं!
गाँव से हो रहे पलायन को करीब से महसूस करना हो तो कभी किसी गाँव छोड़कर शहर में रह रहे लोगों से बात करिये। आपको लगेगा पलायन करने के पीछे केवल आर्थिक,सामाजिक स्थिति ही नहीं, व्यक्तिगत रूप से दूसरों की आँखों में अपने लिए इस “होशियार वाली सम्मान” पाने की कोशिश भी कोई कम मह्त्व नही रखती!
अपने परिजनों, परिचितों के बीच एक अलग पहचान बनाने की जद्दोजहद उजड़ते गाँव की एक ऐसी सच्चाई है जो शहरों में बढ़ती भीड़ के शोर में बहुत महसूस नही होती। क्या गाँव में लोग नही रहते? रहते है न! बूढ़े, बिमार या फिर लाचार! गाँव में रहनेवाले लोगों की यही 3 श्रेणी है!
क्या शहर में काबिल समझे जाने के उद्देश्य से आने वाले लोग बेहतर स्थिति में हैं? ठीक ठीक बताया नही जा सकता लेकिन यकिन मानिये जो बेहतर स्थिति में है उनकी स्वयं की जिन्दगी लंबे समय तक एक बड़े संघर्ष और अनगिनत कष्ट से होकर गुजरी है। लेकिन यह “बेहतर स्थिति” वाले लोग बहुत कम हैं।
अधिकतर की जिन्दगी में वही रोजाना संघर्ष! शायद कई मायनों में गाँव से ज्यादा ही! छोटे-बड़े किसी भी शहर में कभी मैट्रो या फिर रेलवे स्टेशन या अन्य स्थानों पर छोटे-मोटे दुकान लगाकर अपना घर गृहस्थी संभालने वाले लोगों से मिलिये! बातें करिये! अलग कहानी सुनने को मिलेगी जो शायद अनसुनी हो!
गाँव छोड़कर आये लोगों से जानने की कोशिश करिये- रोजाना किन परिस्थितियों से होकर गुजरते है। अनकही अनगिनत दास्ताँ सुनने को मिलेंगे। लगेगा इनके कष्ट,संघर्ष कितने अलग है। कितनी अनिश्चितताओं के बीच वे जिन्दगी का सफ़र तय करते हैं। पढ़े लिखे लोग साझा कर लेते हैं सोशल मीडिया पर ये क्या करे।
मेरे लिए वह दृश्य देखना बड़ा ही मुश्किल होता है जब दिल्ली में MCD की गाड़िया सड़कों पर दौड़ती है! जिस बदहवासी में लोग अपने दुकानों को समेटकर भागते हैं, वह क्षण कैसा होता है उनके लिए-यह उनके मुहं से जब सुनेंगे तो आपको पता चलेगा जींदगी के रोजमर्रा के होने वाले संघर्ष कितने कठिन है!
रोज ही इस तरह डर डरकर जीना! कई बार तो बुरी तरह मारते पीटते पुलिसकर्मी को देख दया आती हैं। गुस्सा भी! शायद उतनी जलालत वे गाँव में भी नही सहते होंगे। हाँ, पैसे जरुर कमा लेते है। बचा भी लेते हैं। और ये सब कहानी पचा भी लेते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है- ये कष्ट अपने है और बाकी अंजान।
शहर में इतना सबकुछ सहने वाला वही व्यक्ति जब गाँव जाता है तो उसके हाव भाव देखीये। उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति रहती हैं जो उसकी रोजाना के संघर्ष व बेचैनी को दबाए रखती हैं। उसे उस दृष्टी से देखा जाता है जिसके लिए वह तमाम कष्ट सहकर भी शहरों में खाक छानते फिरता है।
गाँव से पलायन की ऐसी सामाजिक स्वीकृति को देखना हत्प्रभ करने वाला होता है। गांव में मेहनत करने वाले लोगों को इनसे इर्ष्या भी होती हैं, साथ ही उनके ऊपर भी उनकी तरह बनने का दबाब भी। और यही शुरु होता है एक और पलायन का किस्सा! और ये सिलसिला लगातार जारी है।
गाँधी के देश में गाँव छोड़ना सम्मान का विषय बन जाए, इससे अधिक दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता है। क्या ये स्थिति कभी बदलेगी! जिस श्रम के सम्मान की बात गाँधी करते थे, उन्हीं गांवों में श्रमिक होना सामाजिक असम्मान की सूचक बने, ये सामूहिक चिंता का विषय नही हो सकता!
– अभिषेक रंजन (लेखक सामजिक कार्यकर्ता हैं और गाँधी फेल्लो रह चुके हैं)
Photo Courtesy:Ajeeb Komachi