यह कहानी बिहार की उन आधी आबादी की है, जिनके पति उनको छोड़ परदेस कमाने चले जाते हैं
बेटा अबईछई त साड़ी आ गहना सब लयबे करईछई. आब औरों की चाही? हमारा स के त ऐ गो साड़ी रहे वो ही में गुज़र क ली. इकरा स के एतनो पर मन न ख़ुशी.
— बरामदे पर मुहल्ले की आयी हुई हैं. जो अब सासु माँ बन चुकी हैं वो कह रहीं हैं ये सुंदर वचन. उनको लगता है कि बहू को कपड़े और गहने मिल जाता है, साल में दो बार तो और क्या चाहिए! उनका बेटा दिल्ली में कोई प्राइवेट नौकरी करता है. शादी करके बहू को माँ-बाप की सेवा के लिए पत्नी को यहाँ छोड़ गया है. साल में दो बार घर आता है होली, दीवाली-छठ में.
तब ही बहू मिल पाती है पति से. साथ रह पाती है. उससे ज़्यादा का साथ नहीं मिल पाता उसे पति का. ऊपर से सासु माँ ये भी शिकायत कर रही हैं अभी कि, “ख़ाली त फ़ोने टिपटिपवईत रहईछई.”
मतलब अब पति साथ में न हो तो बात तो बीवी बात भी न करे.
कितनी बंदिशें, कितनी पाबंदियाँ!
और ये कहानी सिर्फ़ उस एक पत्नी की नहीं बल्कि बिहार की आधी आबादी की है. जिनके पति कभी पैसों के अभाव में तो कभी घरवालों के दबाव में नहीं ले जा पाते हैं साथ अपनी संगणी को.
शायद दुःख उन पतियों को भी होता होगा वियोग का मगर पत्नियों के दुःख के आगे बहुत कम होता होगा ये दर्द.
आज़ादी नहीं है बोलने की, बात करने की, पसंद के कपड़े पहनने की, मायके जाने की. गाँव की पगडंडी से गुज़रते हुए, कभी परदे के पीछे से तो जंगला के पीछे से झाँकती दिख जाती है इन बहुओं की दो उदास आँखे.
नहीं लिखी है आज़ादी इन बहुओं के हक़ में!