इ अंग्रेजी मीडियम के जमाना में जहां बच्चा पैदा होते ही अंग्रेजी में केकियाना शुरू करता है, पहाड़ा और खोड़हा के जगह टू फोर जा एइट बकता है, सौ सइयां निन्यानबे अन्ठानबे सनतांबे के जगह हंड्रेड और नाइनटीनाइन बकता है, ककहरा सुनाने से पहलिये इंग्लिश का कोई कविता सुनाने लगता है, गोड़ छू के परनाम करे के जगह गुड मॉर्निंग बोले लगता है न, तो सहिये में लगता है कि हमलोग नयका फैशन में जी रहे हैं।
थोड़ा और बड़ा हो जाने दीजिए, फिर देखिए, अपना नाम के साथ-साथ गांव, परिवार के नाम भी अंग्रेजीए में लिखेगा, यहां तक कि भारत लिखने और बोलने से पहले गर्व से इंडिया लिखना और बोलना सीखेगा।
ऐ मरदे…, बड़ा होकर लइका का बनेगा इ सब भी उसके हार्मोन्स तक में जबरदस्ती धान नियुत रोप दिया जाता है कि हमार बेटा बड़ा हो के इंजीनियर और डॉक्टर बनेगा।
चाहे लइका के जुनून क्रिकेटर और सिंगर बनना काहे नहीं हो।
खैर, आज कल के लइकन सब तो स्कूल से बंक मार के, हाथ में ललका गुलाब के फूल और उ बड़का डेरी मिल्क के टॉफी लेके कोई बढ़िया सा पिक्चर पैलेस के कोना वाला सिट में पंछी जोड़ा बन के बैठता है। उ दू घण्टा, सनीमा देखने में कम एक-दूसरे को टॉफ़ीए खिलाने में ज्यादा पार होता है। एगो हमनी सब थे अगर कौनो दिन स्कूल नहीं जाते थे तो दुसरका दिन माटसाब और स्कूल के लइकन सब हमको रस्सा से बाँध के शान्ति निकेतन में ले जा के गाय, भैंस नियुत किल्ला में खूँट देते थे।
कभी-कभी आपन बस्ता बब्लुआ के झोला में रख के, खेत खलिहान के तरफ हाफ बेला से स्कूल से भाग जाते थे और लौटते वक़्त अगर कौनो ट्रेक्टर का चक्का डब डब पानी से भरल खेत में फंसल दिख जाता था…तो जब तक उ सही सलामत न निकल जाए, तब तक उसी को आँख फाड़ के देखतइ रहते थे, बीच-बीच में अगर इंजन के आगे वाला 2 गो चकवा उठ जाता था तो लगता था जैसे अब तो जादू देखे ला मिल रहा है…….उ भी फ्रीये में।
तब दुइ चार गो गावँ के भारी भरकम आदमी को इंजन के ऊपर बैठा दिया जाता था। ओकरे बाद भी उठे त उ सब खूब ठिठोली मारते थे। उसमे भी अगर ड्राईवर बूढ़ा हो तो पास में देख रहे सब दादन लोग खैनी पिस्ते हुए पहलिये फैसला कर लेते थे कि अब इ न निकलेगा जाल से। फिर भी ड्राईवरवा आपन बहुते कोशिश करता था उसी बीच में…..पीछू वाला चक्का एकदम घिरनी नियुत घूरे लगता था और उ फड़ फड़ के आवाज मानो की कोई आटा वाला मीलिया के चकरी घूम रहा हो।
वहाँ पर सलाह देने वाले सब दादा लोगन अपने आप को खरखाह बुझते हुए जुगाड़ू टेक्नोलॉजी के अनुसार कोई लकड़ी का फट्टा तो कोई ईंट का टुकड़ा डालने तक का सुझाव देते थे।
और अंत में जब ट्रेक्टर सही सलामत निकल जाए तो खेत के मालिक भी खुश और उ बुढ़वा ड्राइवरबो खुश, अपन सीना छप्पन इंची चौड़ा करके, माथा पे बोलबम वाला गमछिया बांधते हुए ट्रेक्टर से निचे उतरता था। तब उ ड्राईवरवा ड्राईवर नहीं ड्राईवर साहेब हो जाता था। और उसी दिन से अगर कौनो ट्रेक्टर गावँ के कोई खेत में फंस जाए और कौनो से न निकले तो आसपास के टोला मोहल्ला के लोग उसी ड्राईवर साहेब को बुलाने का सुझाव देते थे।
और ओम्मे अगर मम्मी को पता चल गया की हम ट्रेक्टर वाला तमाशा देख रहे थे, तो खजूरे वाला डंटा से हौकते हौकते मम्मी स्कूल तक पंहुचा देती थी। तब धोती वाले मास्टर साहब हमको बचाने आ जाते थे और कहते थे काहे कूट रहे हैं बेटवा को, तेज तरार लइका है, इ तो प्रैक्टिकल इंजीनियरिंग सिख रहा था। पर अफ़सोस तब तक उ खजूर के डंटा टूट के चार भाग में हो जाता था और छुट्टी होते ही घर पहुंचने पर रात को माँ खुदे से गर्म करुआ तेल लगाने आ जाती थी, और आँख में लोर भरते हुए गर्व से कहती थी हमार बेटवा इंजीनियर बनेगा।
पालने पोसने में ही माँ-बाप, शिक्षक और समाज को हमलोगों का संस्कार और भविष्य दिख जाता था। अब तो जबरदस्ती इंजीनियर बनाया जाता है शायद इंजीनियर नहीं मशीन बनाया जाता है।
– अभिषेक आर्यन
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