रक्षाबंधन: क्या राखी सिर्फ भाई-बहन के बचपन को बाँध सकती है?
आज शिवजी के घर पर हर तरफ खुशियाँ छाई थी। सालों बाद उनके घर पर किलकारी गूंजी थी और उनके घर जन्म हुआ एक सुंदर-सी बेटी का।
बड़ा घर- बड़ा परिवार था शिव जी का। पिता इतने खुश थे कि देखते ही बच्ची को हाथ में उठाने को लपके और आंखों में खुशियों के आँसू लिए हुए बोले-“मेरी लक्ष्मी बेटी आगई”।
एक भव्य समारोह मना जैसा उस गाँव ने पहले कभी न देखा था। इतनी खुशियाँ मनी कि लग रहा था कि ये एक घर की खुशी नहीं, बल्कि पूरे गाँव के लिए त्योहार का समय हो।
धीरे-धीरे समय बीतता गया। उसी के साथ एक लड़के का जन्म हुआ। फिर दूसरे लड़के का जन्म, फिर एक लड़की। ऐसे समय बीतते कुल 6 बच्चों का जन्म हुआ।
शिवजी भले ही भोजपुरी मिट्टी में जन्मे हों पर पेट की भूख शांत करने के लिए इंसान को कमाना भी पड़ता है। इसलिए वो अपने गाँव से हज़ारों किलोमीटर दूर, आसाम में एक चाय बागान में कार्यरत थे। वे उस बागान के मैनेजर थे।
उनके साथ उनका परिवार भी आसाम की वादियों में खुशी-खुशी रहता था। उनकी बोल-चाल, रहन सहन, सब ऊँचे तबके का था। घर नहीं, बल्कि बंगला। नौकरों की लाइन। माली अलग। खाना बनाने के लिए अलग आदमी, खिलाने के लिए अलग। ड्राइवर से लेके साफ सफाई करने वालों तक का जमावड़ा।
बच्चों की वजह से हर वक्त घर में खुशहाली छाई रहती। गाँव से दूर रहकर भी एक बात जो अब भी गाँव वाली थी वो थी पिता और पहली पुत्री का प्रेम। भले ही उस लड़की का नाम पिता ने कुछ और रखा पर आज भी उसे लक्ष्मी बेटी ही कह कर बुलाते थे।
समय बीता। उस जमाने में छोटे उम्र में ही शादियाँ हो जाया करती थी। तो पिता ने इस जिम्मेदारी का निवर्हन भी बड़े शौक से किया। अपनी पुत्री का विवाह एक प्रतिष्ठित परिवार में करवाया।
समय के साथ रिटायर होकर शिवजी अपने गाँव लौट आये। अपनी खेती-बाड़ी को आगे बढ़ाया। अब तो उनके साथ उनके बेटे भी थे। बेटों की मेहनत ने खेती में चारचांद लगा दिया। घर के बाहर गाड़ियां, 4 ट्रैक्टर, बोरींग, थ्रेशर से लेके हर चीज़ घर पर मौजूद। धन-धान्य से सम्पन्न शिवजी की जमीन का दायरा गाँव के आस-पास तक बढ़ता जा रहा था।
शिवजी के बाद बड़े बेटे ने ये जिम्मेदारियां संभाल ली। उनके बाकी 2 बेटे अरुणाचल प्रदेश चले गए। एक ने बिजनस खड़ा किया और छोटे बेटे ने अपनी मेहनत से चाय बागान का मैनेजर बनके उसकी बागडोर अपने हाथ में सम्भाल ली। परिवार बढ़ता गया। सभी शादी के बंधन में बंध चुके थे। सबका अपना परिवार बना।
वक्त ने भी करवट लेनी शुरू की। सबकुछ बदलने लगा। शिवजी की पत्नी एक रात सबको छोड़ कर इस दुनिया से चली गई। शायद यही दुःखों की शुरुआत थी। कुछ सालों के बाद शिवजी का भी देहांत हो गया। सब जानते थे शिवजी का प्रेम उनकी पहली बेटी से कैसा था। अतः जब तक उनकी लक्ष्मी बेटी ना पहुँची, तब तक उनके शव को उठाया न गया।
इस बीच बड़े बेटे के एक बेटे की भी शादी हो चुकी थी।
इतने सालों में कुछ भी हो जाये, किसी भी परिस्थिति में वो बेटी अपने भाई का इंतज़ार रक्षाबंधन को करती थी और हर हाल में आंधी-बारिश से जूझकर भी, उनके भाई जो गाँव पर रहते थे, वो आते जरूर थे।
लेकिन एक रोज़ सबकुछ बदल गया। एक बार वो बहन अपने मायके गई ये सोच कि बहुत दिन हो गया अपने परिवार वालो को देखा नहीं। वो अपने गाँव गई। बहुत खुश थी वो आज। पिता के मृत्यु के बाद पहली बार गई थी।
धार्मिक प्रवृति होने के कारण रोज़ की तरह वो पूजा वाले कमरे में जैसे ही जाने लगी तो देखा कि पूजा के कमरे पर ताला जड़ा हुआ है। उन्होंने भाई से पूछा कि इसमें ताला क्यों लगाए हो। तो वो कहने लगे कि दूसरा भाई कुछ सामान रख कर गया है, उसी ने ताला लगाया है।
बहन को लगा कि हाँ हो सकता है। घर में एक लड़की की शादी भी होने वाली थी। यही सोचते-सोचते ऊपर चली गई और छत पर ही पूजा किया।
अगले दिन भी ऐसा ही हुआ। तब किसीसे उसे इस बात की जानकारी मिली कि आपकी वजह से ही उस कमरे में ताला लगा हुआ है, क्योंकि ये लोग समझते हैं कि आप तंत्र वगेरह का काम करती हैं।इस वजह से उसमें आपको नहीं जाने दिया जा रहा है।
उन्होंने उसी वक्त अपने भाइयों को फोन किया और उनसे पूछा तो वो बोले कि दीदी हमने तो ताला नहीं लगाया है।
ये सुन के उनको झटका लगा। उनको ये एहसास भी हुआ कि जो बर्ताव पहले किया जाता था, उनके साथ वैसा बर्ताव नहीं हो रहा।
जिस घर में पिता लक्ष्मी बेटी कह के पुकारा करते थे, जहाँ खुशियों की वजह आज तक लक्ष्मी बेटी को माना जाता था, जहाँ इस बेटी को मान-सम्मान से जीना सिखाया गया, आज वही घर उसे काटने को दौड़ रहा था। आँसुओ के बून्द जमीन पर गिरे और उस बूंद से पिता ने सवाल किया- “क्या हुआ लक्ष्मी बेटी”।
माँ-बाबूजी के बाद बिटिया अपने भाई के लिए ही तो मायके आई थी। वही भाई जिसे राखी बांधकर उसे लगता था कि आज भी उसकी डोर मायके से बंधी हुई है। उस भाई का यह अविश्वास आज बहन को तोड़ चुका था।
आज एक गलतफहमी ने सिर्फ पवित्र रिश्ते को ही नहीं बल्कि बचपन की यादों, हँसी-ठिठौलियों, खुशियों का गला घोंट दिया। घुटते हुए गले से जो चीख निकल रही थी वो सुनाई भले न दे पर उन आँसुओ में साफ देखी जा सकती थी।
उसदिन उस बहन ने ये मान लिया कि सच में जिस घर मे जन्म होता है वो पराया होता है। वहाँ के लोग पराये होते हैं। ऐसा सोच कर वो फिर कभी अपने पीहर न जाने के लिए अपने घर वापिस आ गई।
वापस आते हुए जितने आँसू आंखों से गिरे थे,शायद उतने विदाई के समय भी न गिरे होंगे।
हाँ उतने जरूर गिरे जितने माँ-बाप की मौत पर क्योंकि आज एक और मृत्यु हुई थी और इसबार जो लाश गिरी, वो थी रिश्ते की लाश। आँसुओं से ही चिता भी जली और इन्हीं आँसुओं ने लपटें भी बुझा दी।
पर आज राखी के दिन उस बहन की आंखों में मैंने फिर से वो आँसू देखे। ये आँसू शायद अब भी अपने भाई के लिए एक बहन का इंतज़ार हैं। वो चुपके से अपनी आँचल से आँसू पोंछते हुए किचेन से बाहर आई। मुझे डाँटते हुए कहने लगी-
“1 बज गया अब कब नहाओगे? आज राखी है, कम से कम आज तो समय पर तैयार हो जाओ।”
और मैं नहाने की बजाए उसको हँसाने में लग गया ताकि वो उन यादों से कुछ देर के लिए अलग हो जाये। मैं कुछ देर के लिए ही इन यादों से उसे अलग रख सकता हूँ, हमेशा के लिए नहीं।
उन आँसुओं से मेरी आँखें भी नम हो गईं हैं। मैं यही सोच रहा हूँ कि माँ को क्या सच में मिलना चाहिए था ये राखी का उपहार? क्या सच में बहनों-बेटियों के लिए अपने ही घर का व्यवहार इस क़दर बदल जाना चाहिए? हम तो इन्हें ‘दो परिवारों’ की खुशी कहकर बड़ा करते हैं न, फ़िर शादी के बाद कहाँ चला जाता है एक परिवार? क्यों साथ नहीं होता उनका पीहर? क्या एक राखी की स्नेहिल डोर भाई-बहन के सिर्फ़ बचपन को बांध सकती है?
– विवेक दीप पाठक