1975 के पटना बाढ़ पर लिखी फणीश्वरनाथ रेणु की दिलचस्प रिपोर्टिंग
इन दिनों पटना में बारिश खूब हो रही है, जम कर बादल बरस रहे हैं. बारिशों की खूब अच्छी यादें जुड़ी हुई हैं पटना से. ख़ास कर जब शहर में वाटरलॉगिंग होता था तब की यादें. कुछ समय पहले यूहीं इन्टरनेट की गलियों में टहलते हुए रेणु जी की एक पुरानी रिपोर्ट पढ़ने को मिली, जो उन्होंने तब लिखा था जब 1975 में पटना बाढ़ के चपेट में आ गया था. दो बार तीन बार चार बार पढ़ डाला था मैंने उस रिपोर्ट को, इतनी दिलचस्प थी वो रिपोर्टिंग. आज यूहीं उनकी यही रिपोर्ट याद आ गयी तो आज यहाँ अपना बिहार के पाठको के साथ साझा कर रहा हूँ|
‘मेरा गांव ऐसे इलाके में है जहां हर साल पश्चिम-पूरब और दक्षिण की कोशी, पनार, महानंदा और गंगा की-बाढ़ से पीडि़त प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं. सावन भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट परती पर गाय, बैल, भैंस, भेड़ और बकरों के हजारों झुंडमुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अंदाज लगाते हैं.
परती क्षेत्र में जन्म लेने के कारण अपने गांव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी तैरना नहीं जानता. किंतु दस वर्ष की उम्र से पिछले साल तक ब्वाय स्काउट, स्वयं सेवक, राजनीतिक कार्यकर्ता अथवा रिलीफ वर्कर की हैसियत से बाढ़ पीडि़त क्षेत्रों में काम करता रहा हूं.
और लिखने की बात? हाई स्कूल में बाढ़ की पुरानी कहानी को नया पाठ के साथ प्रस्तुत कर चुका हूं. जय गंगा (1947), डायन कोशी (1948), हड्डियों का पुल (1948) आदि छिटपुट रिपोर्ताज के अलावा मेरे कई उपन्यासों में बाढ़ की विनाश लीलाओं के अनेक चित्र अंकित हुए हैं. किंतु, गांव में रहते हुए बाढ़ से घिरने, बहने भंसने और भोगने का अनुभव कभी नहीं हुआ. वह तो पटना शहर में 1967 में ही हुआ, जब 18 घंटे की अविराम वृष्टि के कारण पुनपुन नदी का पानी राजेंद्र नगर, कंकड़बाग तथा अन्य निचले हिस्सों में घुस आया था. अर्थात् बाढ़ को मैंने भोगा है, शहरी आदमी की हैसियत से. इसलिए इस बार जब बाढ़ का पानी प्रवेश करने लगा, पटना का पश्चिमी इलाका छाती भर पानी में डूब गया तो हम घर में ईधन, आलू, मोमबत्ती ,दियासलाई, सिगरेट पीने का पानी और काम्पोज की गोलियां जमा कर बैठ गए और प्रतीक्षा करने लगे.
सुबह सुना राज भवन और मुख्यमंत्री निवास प्लावित हो गया है. दोपहर को सूचना मिली गोलघर जल से घिर गया है!
और पांच बजे जब काॅफी हाउस जाने के लिए (तथा शहर का हाल मालूम करने) निकला तो रिक्शा वाले ने हंस कर कहा- ‘अब कहां जाइएगा? काॅफी हाउस में तो अब ले पानी आ गया होगा.’
‘चलो, पानी कैसे घुस गया है, वही देखना है,’ कह कर हम रिक्शा पर बैठ गये. साथ में नई कविता के विशेषज्ञ, व्याख्याता, आचार्य और कवि मित्र थे, जो मेरी अनवरत-अनर्गल-अनगढ़ गद्यमय स्वगतोक्ति से कभी बोर नहीं होते (धन्य हैं !).
मोटर, स्कूटर, टैक्टर ,मोटर साइकिल, ट्रक, टमटम ,साइकिल, रिक्शा पर और पैदल लोग पानी देखने जा रहे हैं.लोग पानी देखकर लौट रहे हैं. देखने वालों की आंखों में, जुबान पर एक ही जिज्ञासा– ‘पानी कहां तक आ गया है?’
देख कर लौटते हुए लोगों की बातचीत- ‘फ्रेजर रोड पर आ गया! आ गया क्या, पार कर गया. श्रीकृष्ण पुरी, पाटलिपुत्र काॅलोनी, बोरिंग रोड, इंडस्ट्रियल एरिया का कहीं पता नहीं…छाती भर पानी है. विमेंस काॅलेज के पास ‘डुबाव पानी’ है… आ रहा है! अब आ गया!!… घुस गया… डूब गया… डूब गया… बह गया!’
हम जब काॅफी हाउस के पास पहुंचे तो काफी हाउस बंद कर दिया गया था. सड़क के एक किनारे एक मोटी डोरी की शक्ल में गेरुआ-झाग-फेन में उलझा पानी तेजी से सरकता आ रहा था. मैंने कहा- ‘आचार्य जी, आगे जाने की जरुरत नहीं. वह देखिए आ रहा …..मृत्यु का तरल दूत!’
आतंक के मारे मेरे दोनों हाथ बरबस जुड़ गये और सभय प्रणाम निवेदन में मेरे मुंह से अस्फुट शब्द निकले (हां, मैं बहुत कायर और डरपोक हूंं!).
रिक्शा वाला बहादुर है. कहता है- ‘चलिए न-थोड़ा और आगे.’
भीड़ का एक आदमी बोला- ‘ए रिक्शा! करेंट बहुत तेज है. आगे मत जाओ.’
मैंने रिक्शावाले से अनुनय-भरे स्वर में कहा- ‘लौटा ले भैया. आगे बढ़ने की जरुरत नहीं.’
रिक्शा मोड़ कर हम अप्सरा सिनेमा हाॅल (सिनेमा शो बंद!) के बगल से गांधी मैदान की ओर चले. पैलेस होटल और इंडियन एयरलाइंस के दफ्तर के सामने पानी भर रहा था. पानी की तेज धारा पर लाल हरे ‘नियन’ विज्ञापनों की परछाइयां सैकड़ों रंगीन सांपों की सृष्टि कर रही थी. गांधी मैदान की रेलिंग के सहारे हजारों लोग खड़े देख रहे थे. दशहरा के दिन राम लीला के राम के रथ की प्रतीक्षा में जितने लोग रहते हैं उससे कम नहीं थे… गांधी मैदान के आनंद उत्सव ,सभा सम्मेलन और खेलकूद की सारी स्मृतियों पर धीरे -धीरे एक गैरिक आवरण आच्छादित हो रहा था. हरियाली पर शनैः-शनैः पानी फिरते देखने का अनुभव सर्वथा नया था!
कि इसी बीच एक अधेड़, मुस्टंड और गंवार जोर-जोर से बोल उठा- ‘ईह! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनिया बाबू लोग उलट कर देखने भी नहीं गये… अब बूझो!’
मैंने अपने आचार्य कवि मित्र से कहा- ‘पहचान लीजिए .यही है वह ‘आम आदमी’ जिसकी खोज हर साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहती है.उसके वक्तव्य में दानापुर के बदले उत्तर बिहार अथवा कोई भी बाढ़गस्त क्षेत्र जोड़ दीजिए…’
शाम के साढ़े सात बज चुके थे और आकाशवाणी के पटना केंद्र से स्थानीय समाचार प्रसारित हो रहा था. पान की दुकानों के सामने खड़े लोग चुपचाप उत्कर्ण होकर सुन रहे थे…
‘…पानी हमारे स्टूडियो की सीढ़ियों तक पहुंच चुका है और किसी भी क्षण स्टूडियो में प्रवेश कर सकता है.’
समाचार दिल दहलाने वाला था. कलेजा धड़क उठा. मित्र के चेहरे पर भी आतंक की कई रेखाएं उभरीं. किंतु हम तुरंत ही सहज हो गए, यानी चेहरे पर चेष्टा करके सहजता ले आए, क्योंकि हमारे चारों ओर कहीं कोई परेशान नजर नहीं आ रहा था. पानी देखकर लौटे हुए लोग आम दिनों की तरह हंस बोल रहे थे; बल्कि आज तनिक अधिक ही उत्साहित थे. हां, दुकानों में थोड़ी हड़बड़ी थी. नीचे के सामान ऊपर किए जा रहे थे. रिक्शा ,टमटम ,ट्रक और टेंपो पर सामान लादे जा रहे थे. खरीद-बिक्री बंद हो चुकी थी. पानवालों की बिक्री अचानक बढ़ गयी थी. आसन्न संकट से कोई प्राणी आतंकित नहीं दिख रहा था.
…पान वाले के आदमकद आईने में उतने लोगों के बीच हमारी ही सूरतें ‘मुहर्रमी’ नजर आ रही थी. मुझे लगा अब हम यहां थोड़ी देर भी ठहरेंगे तो वहां खड़े लोग किसी भी क्षण ठठाकर हम पर हंस सकते थे- ‘जरा इन बुजदिलों का हुलिया देखो! ’क्योंकि वहां ऐसी ही बातें चारों ओर से उछाली जा रही थीं- ‘एक बार डूब ही जाएं!… धनुष्कोटि की तरह पटना लापता न हो जाए कहीं!… सब पाप धुल जाएगा… चलो गोलघर के मुंडेरे पर ताश की गड्डी लेकर बैठ जाए… बिस्कोमान बिल्डिंग की छत क्यों नहीं? भई यही माकूल मौका है. इनकम टैक्स वालों को ऐन इसी मौके पर काले कारबारियों के घर पर छापा मारना चाहिए. आसामी बा-माल…’
राजेंद्र नगर चौराहे पर ‘मैगजिन कॉर्नर’ की आखिरी सीढि़यों पर पत्र-पत्रिकाएं पूर्ववत् बिछी हुई थीं. सोचा एक सप्ताह का खुराक एक ही साथ ले लूं. क्या-क्या ले लूं?
हेडली चेज, या एक ही सप्ताह में फ्रेंच/जर्मन सिखा देने वाली किताबें, अथवा योग सिखाने वाली कोई सचित्र किताब?
फ्लैट पहुंचा ही था कि ‘जनसंपर्क’ की गाड़ी भी लाउडस्पीकर से घोषणा करती हुई राजेंद्र नगर पहुंच चुकी थी.
ऐलान किया जाने लगा, ‘भाइयों! ऐसी संभावना है… कि बाढ़ का पानी… रात्रि के करीब बारह बजे तक… लोहानीपुर, कंकड़बाग… और राजेंद्र नगर में… घुस जाए. अतः आपलोग सावधान हो जाएं!
मैंने गृह स्वामिनी से पूछा- ‘गैस का क्या हाल है.’ ‘बस उसी का डर है. अब खतम होने ही वाला है. कोयला है, स्टोव है, मगर किरासन एक ही बोतल…’
फिलहाल, बहुत है…बाढ़ का भी यही हाल है- मैंने कहा.
सारे राजेंद्रनगर में ‘सावधान-सावधान’ की ध्वनि देर तक गूंजती रही. ब्लाॅक के नीचे वाली दुकानों से सामान हटाए जाने लगे. मेरे फ्लैट के नीचे के दुकानदार ने पता नहीं क्यों इतना कागज इकट्ठा कर रखा था. एक अलाव लगाकर सुलगा दिया. हमारा कमरा धुएं से भर गया.
बिजली आॅफिस के ‘वाचमैन साहेब’ ने पच्छिम की ओर मुंह करके ब्लाॅक नंबर एक के नीचे जमी मंडली के किसी सदस्य से ठेठ मगही में पूछा- ‘का हो ? पनिया आ रहलौ है? ’जवाब में एक कुत्ते ने रोना शुरू किया. फिर दूसरे ने सुर में सुर मिलाया. फिर तीसरे ने.
करूण आर्तनाद की भयोत्पादक प्रतिध्वनियां सुन कर सारी काया सिहर उठी.
किंतु एक साथ करीब एक दर्जन मानव कंठों से गालियों के साथ प्रतिवाद के शब्द निकले-‘मार स्साले को. अरे चुप… चौप!!’
कुत्ते चुप हो गए. किंतु आने वाले संकट को वे अपने ‘सिक्स्थ सेंस’ से भांप चुके थे… अचानक बिजली चली गई. फिर तुरंत ही आ गई… शुक्र है! भोजन करते समय मुझे टोका गया- ‘की होलो? खाच्छो ना केन?’ खाच्छि तो… खा तो रहा हूं. ’-मैंने कहा- ‘याद है, उस बार जब पुनपुन का पानी आया था तो सबसे अधिक इन कुत्तों की दुर्दशा हुई थी.’
हमें ‘भाइयों! भाइयों!’ संबोधित करता हुआ जनसंपर्कवालों का स्वर फिर गूंजा. इस बार ‘ऐसी संभावना है’ के बदले ‘ऐसी आशंका है’ कहा जा रहा था. और ऐलान में ‘खतरा’ और ‘होशियार’ दो नए शब्द जोड़ दिए गए थे… आशंका! खतरा! होशियार…
रात साढ़े दस-ग्यारह बजे तक मोटर गाड़ियों, रिक्शा, स्कूटर, साइकिल और पैदल चलने वालों की आवाज ही कम नहीं हुई. और दिन तो अब तक सड़क सूनी पड़ जाती थी!… पानी अब तक आया नहीं? सात बजे शाम को फ्रेजर रोड से आगे बढ़ चुका था.
‘ का हो राम सिंगार, पनियां आ रहलौ है?’
‘न आ रहलौ है?’
सारा शहर जगा हुआ है. पच्छिम की ओर कान लगाकर सुनने की चेष्टा करता हूं… हां, पीर मुहानी या सालिमपुर-अहरा अथवा जनक किशोर-नवलकिशोर रोड की ओर से कुछ हलचल की आवाज आ रही है. लगता है कि एक डेढ़ बजे तक पानी राजेंद्र नगर पहुंचेगा.
सोने की कोशिश करता हूं.लेकिन नींद आएगी भी? नहीं , कांपोज की टिकिया अभी नहीं. कुछ लिखूं? किंतु क्या लिखूं… कविता?शीर्षक –बाढ़ की आकुल प्रतीक्षा ?
धत्त! नींद नहीं, स्मृतियां आने लगीं. एक-एक कर चलचित्र के बेतरतीब दृश्यों की तरह! सन् 1947, तब के पूर्णिया जिले के मनिहारी और गुरु जी सतीनाथ भादुड़ी की स्मृतियां!