“हेल्लो अम्मा, फ़ोन की थी?. . सब ठीक न?”
फ़ोन जैसे चार्ज हुआ तो देखा घर से कई कॉल आये हुए थे। फ़ोन मिलाने के लिए हाथ में मोबाईल लिया तो याद आया कि रीचार्ज़ ख़त्म हुआ पड़ा है। ग़हरी साँस भर जेब टटोलते हुए उठा। कुछ पैसे थे शायद।
“भईया, 20 का रीचार्ज़ कर दीजिये ज़रा।”
“50 वाले में ऑफर है। एक्स्ट्रा 10 का टॉक टाइम मिलेगा, कर दूँ?”
“नहीं, आप 20 का ही कर दीजिये अभी।” हाथ में कुल जमा-पूंजी थी 35 रुपए। रिचार्ज करवा कर वापिस लौटने के बदले वही रखे बेंच पर बैठ कर घर फोन मिलाया।
“अम्मा, फ़ोन की थी? सब ठीक न?”
“हाँ। कहाँ रहे तुम उस वक़्त बउआ? आज इहाँ माघी-पातर (माघ महीने में होने वाली पूजा) रहा। न्योज काढ़े त फ़ोन किये रहे की प्रणाम कर लेते।”
“अच्छा। तब फ़ोन डिस्चॉर्ज था। तुम ठीक हो? खाना खायी?”
“अभी नहीं खाएं रे। तुम्हरा पैरा (रास्ता) ताक रहे थे। प्रणाम कर लो अभियो।”
“हाँ। अम्मा कर ले रहे हैं। तुम जाओ खा लो। पापा जी को भी दे दो प्रसाद। कल फोन करेंगे।”
“पापा यही हैं, बात कर लो तनिका।” अम्मा फ़ोन हाथ में लिए शायद पापा को बुलाने चली गयी थी। इसे लग रहा था कि बैलेंस न ख़त्म हो जाये कहीं। एक-एक पल गिन रहा था। इतने में पापा की आवाज़ आयी, “हं, ठीक छा न बऊआ?”
“जी पापा जी।”
“धान बिकाने वाला है, जइसे बिकेगा पईसा भेज देंगे। तुमको कोनो परेशानी नहीं न है ताले?”
“नहीं, पापा जी आप आराम से भेजिएगा, है पैसा।”
“आई पूजा है, ईहाँ अम्मा खीर बनलको ह अपना गाय के दूध के। तू हूँ उहाँ कुछो मीठ ख़रीद क खा लिहा। अम्मा के फ़ोन दे रहल हतियो।”
“जी पापा जी, प्रणाम..” और उधर से अम्मा न जाने क्या बोल रही थी उसके पहले फोन कट गया।
… बैलेंस ख़त्म हो गया था शायद।
– अनु रॉय