बिहार के भैया दूज पर श्रापने की प्रथा पर पढ़िए एक लघु एवं मजेदार कहानी
रेंगनी का कांट, इस गोबर के आकृति पर रखा हड़िया और मूसर, मेहरारुओ के मांग में सिंदूर की लंबी नदी, सबके हाथ में अपने सुहाग की निशानी सिंदूरदानी (सिंहोरा ) लिये एक झुण्ड में अपने भाइयों को याद करती हुई –
“चकवा भैया चलले अहेरिया, खेड़ीच बहिनी देहली आशीष हो न, जिय भैया लाखो बारिश न, भैया के बाड़े सिरपगिया, और भौजो के बाड़े सिरा सेनुरे हो न”
तभी एक साथ सबका हाथ मुसर पर हड़िया गया भुस्स, अपने-अपने जीभ पर रेंगनी का कांट लगा कर श्राप दे रही बहने।
“हम तुमको पाहिले मुआ देंगे फिर जिन्दा करेंगे, “बहिनिया बोलती है।
“चुप रे, हम तो अभी जिन्दे है, चमार के के श्राप से गिरहत का बैल मरेगा?, “भैयावा खीशिया के मूसर छूने को जैसे हुआ, बहिनिया टोक दी “-रे बानर अभी तुम्हारा बियाह नहीं हुआ है, छू दोगे तो बियाह नहीं होगा। तभी प्रसाद वितरण शुरू, चावल के पीठे और बताशे पर सब टूट पड़े….. 🙂