जिन्दा कौमे बस सरकारें नहीं बदलती बल्कि जिंदा लोग ही समाज बनाते और जरुरत पड़ने पर समाज बदलते भी हैं।
मास्साब की डायरी
देश में बलात्कार की हर घटना हम सबको असीम पीड़ा से भर देता है। गुस्सा आता है… न्यूज़ चैनल के डिबेट को देख-देख ये गुस्सा बढ़ता चला जाता है। क्या ये गुस्सा हमें सिस्टम पर आता है या बलात्कारी पर आता है? गुस्सा किसपर आना चाहिए? ऐसी घटनाओं के बाद आपको स्वयं पर कभी गुस्सा आया है क्या? गुस्से में किसी को खुद को पंच मरते देखें है क्या?
हमारे फिल्मी हीरो बहुत भले लोग हैं| अक्सर फिल्मों में मैंने उन्हें गुस्से में पंचिंग बैग के चिथड़े उड़ाते देखा है। पंचिंग बैग का बिखर जाना दर्शकों को असीम सुख देता है| हीरो का गुस्सा पसीने के साथ भाप बन उड़ जाता है। दर्शक अगले दृश्य में खो जाते हैं… और बलात्कार का होना कभी नहीं रुकता। हर साल के सरकारी/गैर सरकारी डेटा में बलात्कार, छेड़छाड़, एसिड हमले और अन्य यौन अपराधों की सँख्या बढ़ती चली जाती है।
अपराध बस प्रशासन के योग्य और सक्षम होने से नहीं रुकते। अपराधी भी शातिर और कुटिल होते जा रहे हैं। प्रशासन रोकथाम कर सकता है| अपराधियों को जल्द से जल्द पकड़ सकता है| कानून अपराधियों को सजा और पीड़ितों को न्याय कम से कम वक्त लेकर दे सकता है। लेकिन क्या प्रशासन अपराध का होना खत्म कर सकता है?
अपराध सजा के डर से खत्म नहीं होता। निर्भया हादसे के आरोपियों को सख्त सजा हुई, कानून में भी बदलाव हुए और ये भी निश्चित किया गया कि न्याय मिलने में विलंब न हो। लेकिन इन सबके बावजूद यौन हिंसा बढ़ ही रहा है और बलात्कार दिन-प्रतिदिन बर्बर होता जा रहा है| बलात्कार के बाद देह को क्षत-विक्षत करना और फिर मार डालना बढ़ रहा है। बलात्कारियों के निकले हुए दाँत, पंजे और सींग हर रोज अधिक धारदार होते जा रहे हैं। इन्हें न व्यवस्था से डर लगता है, न कठोर सजा से डर लगता है और न ही आपके गुस्से से इनको डर लगता है। क्योंकि ये लोग जानतें हैं कि गुस्सा पल दो पल का है और पंचिंग बैग सर्वत्र उपलब्ध है और ठहर कर आजकल सोचता कौन है?
यदि अपराध के स्थान का पूर्वानुमान हो, तब भी प्रशासन अपराधों को रोकने हेतु कुछ ठोस कदम उठा सकती है। चोरी, डैकती, राहजनी के मामले में कई बार स्थान पता रहता है। बाजारों की पहरेदारी संभव हो जाती है, दुकाने लुटने से बच जाती हैं। अमीर अपने घरों की पहरेदारी करवा लेते हैं और गरीबों को ज्यादा चिंता नहीं रहती। राहजनी की भी जगह, समय और पैटर्न अक्सर निश्चित ही रहती है। कत्ल भी रोका जा सकता है कभी कभी| आतंकी हमलों के पूर्व भी इंटिल्लेजेंस इनपुट मिल जाया करते हैं और कई बार अनहोनी को रोक भी लिया जाता है।
मगर सवाल है यौन उत्पीड़न, बलात्कार, बच्चों का शारीरिक शोषण कैसे रोकेंगे हम?
अभी-अभी गुडगाँव के एक स्कूल में बिहार के ही एक छोटे से बच्चे के साथ ऐसा ही अपराध हुआ है। सक स्कूल बस के ही स्टाप पर है। गुस्सा लोगों को इस बात पर आ रहा है कि बस स्टाप को स्कूल के अंदर जाने की इजाज़त कैसे मिली? मगर मैं पूछता हूँ कि आप किस-किस पर बंदिसे लगाएँगे? आप कहाँ-कहाँ सीसीटीवी कैमरा लगवाएँगें और कहाँ-कहाँ उसे बचायेंगें?
एसे हजारों सवाल हैं| इसलिए आप पुलिस,कानून या सरकार को कहाँ-कहाँ चाहते हैं? हाँ, अगर यौन हिंसा से पहले ही पुलिस को सब पता चल जाए मगर फिर भी त्वरित कार्रवाही न हो तो पूरा दोष पुलिस को जरूर दीजिए। जो न्यायव्यवस्था जल्द से जल्द और कठोर से कठोर सजा ऐसे अपराधियों को न दे तो न्यायव्यवस्था को भी कठघड़े में जरूर खड़ा कीजिए। बाकी हर स्थिति में प्रहार विक्षिप्त मानसिकता पर कीजिए क्योंकि बाकी हर स्थिति में हमारा समाज दोषी है।
पंचिंग बैग आपकी ऊर्जा का अपव्यय भी हो सकता है और किसी बड़ी लड़ाई की तैयारी भी। लेकिन लड़ाई की तैयारी में पंचिंग बैग के चिथड़े नही बिखेरे जाते और ताउम्र पंचिंग बैग पर ही मुक्के नही बरसाए जाते। हमको, आपको और समाज को अभी बहुत लड़ना है। लड़ाई हमेशा व्यवस्था से नहीं की जाती। जो दुबारा आपके आस-पास ऐसी घटना हुई तो, अबकी खुद के गाल पर एक जोरदार तमाचा मारियेगा, जो खुद न मार पाइएगा तो किसी दोस्त की मदद ले लीजियेगा। पंचिंग बैग को किनारे रख असली खलनायक को ढूंढने निकलयेगा तब इन हजारों सवाल का जवाब आपको मिलेगा|
इस बार दोषारोपण की उंगली अपनी ओर… सही काम शुरू करने का पहला कदम यहीं होता है। जिंदा होना और जी लेना एक ही बात नहीं है क्योंकि जो जिंदा हैं उसे जिंदा नज़र आना जरूरी है और जिन्दा कौमे बस सरकारें नहीं बदलती बल्कि जिंदा लोग ही समाज बनाते और जरुरत पड़ने पर समाज बदलते भी हैं।
बातचीत जारी रहेगी और जो आपके पास मेरे लिए भी सवाल हो तो मैं हमेशा हाज़िर हूँ।
बाकी सब कुशल मंगल है।