औरंगाबाद जिला से एक बिहारी मुख्यमंत्री जी को एक खुला ख़त लिखकर अपनी व्यथा उजागर कर रहा है,जरुर पढ़िए
निराला बिदेसिया एक पत्रकार हैं और ‘तहलका’ के लिए कार्य करते हैं। औरंगाबाद जिलानिवासी श्री बिदेसिया जी मुख्यमंत्री को एक खुला ख़त लिखकर अपनी व्यथा उजागर कर रहे हैं। कहीं न कहीं ये सवाल हमसब के जेहन में उठ रहे हैं। आइए पढ़ते हैं निराला बिदेसिया के फेसबुक वॉल से एक खुला ख़त-
आदरणीय/माननीय मुख्यमंत्रीजी
बिहार सरकार
अभी अपने गांव में हैं। मध्य बिहार में। औरंगाबाद जिले के ओबरा बाजार से सटा गांव है महथू, वहीं पर। बड़ा जीवंत गांव है। हमारे यहां घर—घर टीवी है, अमूमन सबके यहां स्मार्ट फोन है, लेकिन इस गांव को अभी शहर वाले जहर की हवा पूरी तरह से नहीं लगी है। सामूहिक संवाद, बैठकी, चौपाल आदि की परंपरा अब भी कायम है यहां। लोग बैठते हैं, बतियाते हैं, गांव की समस्या पर, देश-समाज-राज्य पर।
अभी बतकही बिहार की ही निकल गयी है। उत्तर बिहार के बाढ़ पर बात निकली और तुरंत ही बतकही की दिशा उसी बहाने दूसरी ओर मुड़ गयी है। हमारे इलाके में बाढ़ नहीं है लेकिन हमारे गांव वाले चिंतित हैं। सामूहिक कल्पना के जरिये खाका बना रहे हैं कि कितने कष्ट में होंगे उत्तर बिहारवाले। लेकिन इसी बीच एक लौंडे ने अखबार का एक पन्ना पलट दिया है चौपाल में। वह कह रहा है कि हमलोग न चिंतित हैं, देश-दुनिया न चिंतित है, सब लोग मदद कर रहे हैं लेकिन बिहार की सरकार क्या कर रही है? देखिए, वह विज्ञापन पटना में चलनेवाले दशहरा महोत्सव का है।
वह गुस्से में दिखा रहा है अखबार, कि कितना भद्दा लग रहा है कि बिहार का एक इलाका त्राही-त्राही कर रहा है और पटना में इस बार 18 दिनों तक दशहरा महोत्सव मनाने की शुरुआत हुई है। वह भी ऐसे- जैसे- तैसे नहीं, बल्कि बॉलीवुड से लेकर अंततरराष्ट्रीय स्तर के कलाकारों को मोटी रकम पर बुलाकर! जो लड़का अखबार लेकर आया है, वह गुस्से में कह रहा है, “दशहरा तो ऐसे भी नौ से दस दिनों का होता है, बिहार की सरकार ने तो इस मुसीबत के दिनों में दशहरे की मियाद ही बढ़ा दी है। पटना में तो न जाने कितने साल से दशहरा महोत्सव होता रहा है। आठ दिन होता था, नौ दिन होता था। इस बार बिहार का एक बड़ा हिस्सा जब रोजमर्रा की जिंदगी में झंझावातों से गुजर रहा है तो दशहरा की अवधि दुनी कर दी गयी, क्यों? यह जश्न क्यों? क्या पीड़ा का जश्न है यह?”
वह इतने पर चुप नहीं हो रहा। पूछ रहा है कि बिहार की सरकार देश-दुनिया में अपील कर रही है मुख्यमंत्री राहत कोष में सहयोग करने को, खुद सीएम साहब अपने पास से उस कोष में पैसा जमा किये, देश-दुनिया के लोग दे रहे हैं, उनके बीच क्या संदेश जायेगा कि बिहार में बाढ़ पीड़ा और नियति के दायरे से निकलकर उत्सव का सबब बन गयी है। वह लौंडा कह रहा है कि होना तो यह चाहिए था कि इस बार यह तामझाम पटना में कम से कम सरकार की ओर से नहीं होता। रस्म ही पूरा कर लिया गया होता लेकिन इस बार तो जिस तरह से पूरे देश के महंगे कलाकारों का जुटान हो रहा है, उससे क्या महसूस किया जा सकता है? यही न कि इस बार बिहार में बहार ज्यादा है, खुशी ज्यादा है।
उस लौंडे को समझा रहा हूँ कि देखो इसमें सीएम क्या कर सकते हैं? वह जवाब दे रहा है कि कुतर्क नहीं कीजिए. अब यह भी नहीं कहिएगा कि पटना में हो रहा है न! पटना मने सिर्फ एक शहर नहीं होता है। वह राजधानी है, जहां राज्य भर के लोग रहते हैं। उस उत्तर बिहार के लोग भी, जिनके परिजन खून के आंसुओं के संग फिलहाल एक-एक दिन काट रहे हैं। वह लौंडा कह रहा है कि सीएम साहब को ही तो कहेंगे न! उन्हें नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे? वही मुखिया हैं। सफलता का श्रेय उन्हें देते हैं, अच्छे कामों का श्रेय उन्हें देते हैं, उन्होंने तीन-तीन पुल बनाकर उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार को जोड़ा तो हमलोगों ने घूम-घूमकर तारीफ उनकी की, तो फिर जब विफलता का, दुष्कृत्यों का इलजाम मढ़ना होगा तो दूसरे को ढूंढकर लायेंगे?
वह लौंडा गुस्से में है। लोग उसकी बातों में हामी भर रहे हैं, वे भी गुस्से में हैं अब। सब पूछ रहे हैं कि बिहारी अस्मिता का नारा देनेवाले सीएम साहब यह ध्यान क्यों नहीं रखपाते कभी कि उनके अधिकारियों को बिहारी अस्मिता, बिहारी पहचान पसंद नहीं है। वे मौका तलाशते हैं बिहारीपन को परे कर ऐसा ही मजमा जुटाया जाए, जिसका दूर-दूर तक बिहारियत से लेना देना न हो।
हाँ, सही है कि बाढ़ के कारण सब ठहरना नहीं चाहिए, तो कम से कम इतने बड़े स्तर पर जश्न से तो बच ही सकते थे। आयोजन ही करना था, परंपरा को बनाये ही रखना था तो वह नौ दिनों का आयोजन कर, बिहारी कलाकारों को जुटाकर भी हो सकता था।
गांव वालों को अब समझा नहीं पा रहा हूँ। चौपाल में बैठे एक विज्ञापन को देख उस लौंडे के गुस्से से एकाकार हो गये हैं। जो बैठे हैं, उनमें एकाध को छोड़ कोई लालू प्रसाद यादव के सपोर्टर नहीं हैं लेकिन अब तेज आवाज में कह रहे हैं कि कुछ दिन पहले लालू जादव की रैली हो रही थी तो यही नीतीश कुमार की पार्टी के लोग, यही भाजपावाले कह रहे थे कि बिहार का एक बड़ा हिस्सा बाढ़ से त्रस्त है और लालू जादव राजनीतिक फसल काटने को बेताब हैं। जनता इन्हें माफ नहीं करेगी, उत्तर बिहारी बददुआ देंगे, आह लगेगी।
सब कह रहे हैं कि लालू जादव ने तो बाढ़ की परवाह ना कर के, बाढ़ पीड़ितों की पीड़ा को दरकिनार कर के, मजाक उड़ा के रैली कर लिया तो सत्ताधारी दलवाले क्या कर रहे हैं? उन्हें तो कम से कम अपने ही कहे पर एक माह तक भी कायम रहना चाहिए था। सत्ताधारी तो राजनीतिक फसल नहीं बल्कि दूसरी ही दुनिया में विचरकर बाढ़पीड़ितों को, उत्तर बिहारियों को कह रहे हैं कि बाढ़ आपकी नियति है, हमें मजे लेने दीजिए!
सादर
आपही का
निराला बिदेसिया