तिरहुत सरकार के तहखाने से मिथिला यूनिवर्सिटी तक का सफर करीब 210 साल पुराना है। इसका इतिहास शुरु होता है 1806 के आसपास से।
राजा नरेंद्र सिंह के दत्तक पुत्र प्रताप सिंह भी नि:संतान थे और उन्होंने माधव सिंह को दत्तक पुत्र बनाकर तिरहुत का युवराज घोषित किया था। राजा नरेंद्र सिंह की रानी पद्मावती प्रताप सिंह के इस फैसले से नाराज हुई और उन्होंने माधव सिंह को तत्कालीन राजधानी भौडागढी में प्रवेश प्रतिबंध लगा दिया। कहा जाता है कि माधव सिंह की हत्या की साजिश भी रची गयी और माधव सिंह इस दौरान बनैली राज घराने में पनाह पाये थे। अपने दत्तक पुत्र माधव सिंह के लिए प्रताप सिंह ने तिरहुत की राजधानी भौडा गढी से दरभंगा स्थानांतरित किया। रामबाग स्थित परिसर को नूतन राजधानी क्षेत्र के रूप में विकसित किया। सिंहासन संभालने के बाद माधव सिंह ने न केवल राज्य की सीमा का विस्तार किया, बल्कि खजाना भी बडा किया। रानी पद्मावती के निधन के बाद भौडागढी से राज खजाना दरभंगा स्थानांतरित हुआ, लेकिन खजाने के लिए ढाचागत आधारभूत संरचना महाराजा छत्र सिंह के कार्यकाल में ही बन पाया।
महाराजा छत्र सिंह डच वास्तुशिल्प से अपने लिए छत्र निवास पैलेस, एक तहखाना और 14 सौ घुरसैनिकों के लिए एक अश्तबल का निर्माण कराया। 1934 के भूकंप में तहखाना क्षतिग्रस्त हो गया।
तत्कालीन महाराजा डाॅ सर कामेश्वर सिंह ने मोतिबाग स्थित तहखाने की जगह नूतन सचिवालय का निर्माण कराया। करीब 7 हजार कर्मचारियों वाले सरकार ए तिरहुत का यह सचिवालय मुगल और राजस्थानी वास्तुशैली का अदभुत मिश्रण है।
कामेश्वर सिंह ने इस नूतन सचिवालय को पुराने तहखाने से कुछ बडा आकार दिया, क्योंकि वो इसे एक स्वतंत्र राज्य के सचिवालय के साथ ही विधायिका के लिए भी ढाचागत संरचना तैयार करना चाहते थे। इस लिए पटना की तरह सचिवालय के पूर्व विधायका के लिए ढाचा तैयार कराया गया, जो एक दूसरे से इंटर कनेक्टे है। हेड आफिस के नाम से विख्यात इस कार्यालय में प्रधान सचिव और वित्त सचिव का कार्यालय कक्ष अाज भी सुविधा और सुंदरता के मामले में बिहार सचिवालय से बेहतर साबित होता है। इतना ही नहीं, इसका प्रोसिडिंग रूम को गैलरी से देखने पर अाज भी उसकी सुंदरता आंखों मेंं जम जाती है।
कहा जाता कि कोलकाता के रिजर्व बैंक के बाद संयुक्त बंगाल का यह सबसे बडा तहखाना था। तिरहुत सरकार की अकूत संपत्ति से भडा यह तहखाना 1962 तक भारत का सबसे समृद्ध व्यक्तिगत खजाना था।
तहखाने का लॉकर लंदन से खास तौर पर मंगाया। 1950 में जमींदारी जाने के बाद तिरहुत सरकार का यह सचिवालय, राज दरभंगा नामक कंपनी का मुख्यालय में बदल गया। बिहार के सबसे बडे कारोबारी रहे पूर्व सांसद डा कामेश्वर सिंह की करीब 34 कंपनियोें का संचालन इसी परिसर से हुआ करता था। महाराजा कामेश्वर सिंह की मौत के बाद जहां एक एक कर कंपनियां बंद होती गयी, वहीं 1963 में इस तहखाने को भी लगभग खाली कर दिया गया। 15 सौ किलो जेवरात महज 2 लाख 80 हजार रुपये में तत्कालीन वित्तमंत्री मोरारजी दसाई के करीबी मुंबई के एक कारोबारी को बेच दिया गया।
1975 में इस पूरे परिसर को बिहार सरकार ने अधिग्रहण किया। तिरहुत सरकार के तहखाने, सचिवालय और कंपनी मुख्यालय का सफर तय करते हुए यह परिसर एक विश्वविद्यालय के रूप में आज हम सबके सामने है। 1972 में तत्कालीन मुख्यमंत्री केदार पांडेय ने दरभंगा के मोहनपुर में मिथिला विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। 1976 में जगन्नाथ मिश्रा की इच्छा से मिथिला विश्वविद्यालय मोहनपुर से इस परिसर में स्थानांतरित हुआ और पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र का नाम इसमें जोडा गया। अधिग्रहण के समय किये गये वादे के तहत सरकार ने पूरे परिसर का नाम कामेश्वर नगर रखा।
इस प्रकार वर्तमान में यह ललितनारायण मिथिला विश्ववद्यालय का मुख्यालय, राज तहखाना और बिहार राज्य अभिलेखागार भवन है, जो कामेश्वर नगर में स्थित है। मिथिला में आये हर बदलाव को इस परिसर के इतिहास में महसूस किया जा सकता है।
जब यह इलाका राजवारों का था तो ये तहखाना था। जब ये इलाका कारोबारियों का था जो यह कंपनी का मुख्यालय था, जब यह इलाका केवल शिक्षा का केंद्र रह गया तो यह विश्वविद्यालय का मुख्यालय बना दिया गया..
अब तो मिथिला मे केवल राजनीति बची है, तो यह राजनीति का सबसे बडा अड्डा बन चुका है।
लेखक – कुमुद सिंह, संपादक, इस्माद