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मास्साब की डायरी: उस वीडियो की दास्ताँ जो अब भी व्हाट्सएप्प के चक्कर काट रहा है

वो एक फनी वीडियो जो तुमको गज़ब हँसाए रहा!

बात वर्षों पुरानी है लेकिन आपको याद जरूर होगी। समस्तीपुर के एक प्राइमरी स्कूल का वीडियो यूट्यूब पर छा गया था। जहाँ तक मुझे याद है, कम से कम छः साल पुरानी है ये बात। मैंने वो वीडियो देखी, मैं भी ठठाकर हँसा था। मेरे कुछ मित्र जिनकी स्थिति उस अध्यापिका से बेहतर है, कम से कम मुझे कहीं से ऐसा प्रतीत नहीं होता, पेट पकड़-पकड़ हँसे थे। इतनी पुरानी बात की चर्चा मैं आज कर रहा हूँ क्योंकि अधिकांश लोगों के लिए आजतक न वो बात पुरानी हो पायी है और न ही वो वीडियो पुरानी हुई है। लोग-बाग आज भी गाहे-बगाहे उस वीडियो को सोशल नेटवर्किंग साइट पर पोस्ट कर आते हैं… ठठाकर हँस आते हैं।

ये हँसने की ही बात है न कि एक प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका को जनवरी-फरवरी, संडे-मंडे की स्पेलिंग नहीं आती। वो स्कूल में पढ़ाती हैं और भारत के प्रधानमंत्री तक का नाम नहीं पता। ये सच में हँसने की बात है।

अब शिक्षण की इससे भी विद्रूप स्थितियों से परिचय करवाता हूँ।

तो बात उन दिनों की है जब मैंने अच्छे नम्बरों से अपनी इंजिनीरिंग खत्म की थी। घर में इलेक्ट्रॉनिक्स एंड टेलिकम्युनिकेशन से बीटेक लड़का उपलब्ध था और टीवी खराब हो गयी थी। मेरी बहन अड़ गयी कि अब जब भईया इंजीनियर बन ही गया है तो टेक्नीशियन बुलाने की कोई जरूरत नहीं है, भैया ही ठीक कर देगा। मेरी हालत खराब हो रही थी। कुछ विचित्र टेक्निकल टर्मिनोलॉजी हाँक कर मैंने अपना पिंड छुड़ाया था, मसलन, “पहले डेटाशीट लाओ टीवी का”, “हम इंजीनियर हैं, ये ठीक-ठाक करना हमारा काम नहीं”, “मदरर्बोर्ड को स्टडी करना पड़ेगा, ऐसे थोड़े हो जाएगा!” और हम बिहारियों की पसंदीदा लाइन – “तुम नहीं समझोगी, ये सब ऐसे नहीं होता”। रंगीन टीवी ठीक करना छोड़िये, एफएम रेडियो बनाना बहुत आसान होता है, वो तक बिना इधर-उधर झाँके बनाने की क़ुव्वत नहीं थी उस वक़्त तक।

ऐसा भी नहीं था कि मैं अपने कॉलेज का बेकार छात्र था और न ही ऐसा था कि हमारा कॉलेज ही बेकार था। फिर मुझे पूरी इंजिनीरिंग पढ़ लेने के बाद टीवी ठीक करना क्यों नहीं आता था? अपने आस-पास के इंजीनियर से मिलिए और थोड़ा परखिए उन्हें क्या आता है और क्या नहीं। कम से कम मुझे लगता है कि एक इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर को टीवी के विषय में सामान्य जानकारी न होना और एक दसवीं पास अध्यापिका को अंग्रेजी का उच्चारण न आना एक ही बात है।

लेकिन अभी बात खत्म नहीं हुई है। मैं बताना चाहता हूँ कि मैंने कंप्यूटर साइंस में बीटेक, सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में लंबा अनुभव प्राप्त लोगों को अपना कंप्यूटर खुद फॉर्मेट न कर पाते देखा है। मेरे ही एक सीनियर थे, बीटेक कर के नौकरी कर रहे थे, अपने कंप्यूटर में सॉफ्टवेयर किसी और से इंस्टॉल करवाते थे, अभी किसी सम्मानित इंजिनीरिंग कॉलेज में अध्यापन कर रहे हैं।
एक और मजेदार वाकया है। कॉलेज में थर्ड ईयर में थे हमलोग। एक प्रोजेक्ट कर रहे थे और इंस्ट्रूमेंट्स के ओवर हीटिंग से परेशान थे। कॉलेज में छुट्टियाँ चल रहीं थी। जब हमसे कोई उपाय न हो पाया तो हम इलेक्ट्रिकल डिपार्टमेंट के हेड के पास पहुँचे। उनसे इतना तक न हो पाया कि उन्हें हमारा प्रोजेक्ट समझ आ जाता, मदद की संभावना भी शून्य। अंत में एक ऐसे शख्स ने हमारी मदद की जो कॉलेज का रिपेयरिंग और मेंटेनेन्स देखता था, उसने हमारी समस्या चुटकी में सुलझा दी। एक सम्मानित इंजिनीरिंग यूनिवर्सिटी के इलेक्ट्रिकल डिपार्टमेंट के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट के पास ओवर-हीटिंग को बायपास करने की एक आम सी जानकारी न होना और एक दसवीं पास मैडम के पास अंग्रेजी उच्चारण का ज्ञान न होना… थोड़ा तुलना करके तो देखिए!

सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में ज्यादातर कोड गुगल से कॉपी पेस्ट करके लिखे जाते हैं।

जो गूगल न होता तो साठ फीसदी से अधिक सॉफ्टवेयर इंजीनियर विवाह से पहले ही रिटायर हो जाते।

और जो आपने जीवनकाल के किसी भी अवधि में किसी बड़े सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्य करने का अनुभव लिया हो तो आपने इन कंपनियों में असंख्य परजीवियों को जरूर देखा होगा जो अपना पूरा जीवनकाल किसी और के वर्कस्टेशन पर बिता देते हैं क्योंकि सॉफ्टवेयर और कोड किस चिड़िया का नाम है वो कभी इनके पल्ले ही नहीं पड़ता। सॉफ्टवेयर इंजीनियर का तमगा, अच्छी खासी पगार, गाँव-घर में बेशुमार इज्जत और प्रोफेशनल औकात दो कौड़ी की। ये लोग भी उस मैडम पर जरूर हँसे होंगे… है न ?

अधिकांश प्रोफेशनल ईमेल गूगल से ही कॉपी पेस्ट किये जाते हैं। अंग्रेजी छोड़िये… कई उच्च शिक्षित लोगों को अपनी मातृभाषा भी ठीक-ठीक नहीं बोलता पाया है मैंने। भारतीय कॉरपोरेट्स कम्युनिकेशन स्किल्स में कमी से बेतरहा जूझ रहा है। कभी अपने आस-पास के इंजिनीरिंग छात्रों से उनके कॉलेज के अध्यापकों के नॉलेज का हाल ले लीजियेगा, दसवीं पास मैडम का पाप उतना अधिक प्रतीत नहीं होगा।

मैकेनिकल इंजीनियर को गियर्स का सामान्य ज्ञान नहीं होता। मैंने कईयों से साइकिल के वर्किंग प्रिंसिपल पर बात करने की कोशिश की है। इलेक्ट्रिकल इंजीनियर से कभी ट्रांसफार्मर पर डिटेल में बात कर देखिये और डॉक्टर का तो हाल ही मत पूछिये।
लेकिन मुझे पता है कि अभी भी आप इन उद्धरणों की तुलना में उस अध्यापिका पर अधिक हँस रहे होंगे। क्यों पता है?

क्योंकि हँसते हम अक्षमताओं पर नहीं हैं… हँसते हम उन घटनाओं पर हैं जो हमें बेहतर होने के अहंकार से ढकता है।

मैं ये नहीं कह रहा कि उस अध्यापिका की कोई गलती नहीं। मैं तो बस ये कह रहा हूँ कि ऐसी और इससे कहीं बड़ी गलतियाँ पग-पग पर उपलब्ध हैं, या तो आपको समझ नहीं आती या फिर आप देखते नहीं। देखते इसलिए नहीं कि हर ऐसी घटना आपके अहंकार को पोषित नहीं कर पाती।
पग-पग पर ऐसे दोषों के होने से अध्यापिका का दोष कमतर सिद्ध नहीं हो जाता, पर सारे दोषों के एकीकरण से समाधान संभव है। एक घटना विशेष तो बस आपको थोड़ी सी बेशर्मी से देर तक ठठाकर हँसने का अवसर मात्र ही उपलब्ध कराती है।
ख़ैर!

थोड़ा ठहर कर सोचिए कि जो एक सरकारी चौकीदार की नौकरी की खबर आयी तो लाखों-लाख इंजीनियर/डॉक्टर/एमए/बीए/एमबीए सब कतार लगाकर खड़े हो जाएँगे। योग्यता और प्रतिभा से कमतर नौकरी से कोई परेशानी नहीं है किसी को! अब मान लीजिए कि किसी उच्चतर योग्यता और प्रतिभा की नौकरी उपलब्ध है और योग्यता की कोई शर्त नही है, तब क्या होगा? इस बार भी योग्य-अयोग्य सभी इस कतार में खड़े होंगे और यदि पदों की सँख्या अधिक रही तो अयोग्य चुन भी लिए जाएँगे।

शिक्षा विभाग में भी मामला लगभग यही है। एक ऐसा विभाग जहाँ सबसे योग्य लोगों की जरूरत है, वहाँ योग्यता की अहमियत नगण्य है। सुविधाएँ अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा कम हैं। शिक्षण युवाओं को कई वाजिब कारणों से आकर्षित नहीं करती।

मैं ऐसी जगह काम करता हूँ, जहाँ कुछ वाजिब और कुछ गैर वाजिब कारणों से शिक्षण युवाओं को आकृष्ट कर पा रहा है। लेकिन यकीन मानिए कि मैंने उस मैडम से कहीं ज्यादा अयोग्य शिक्षकों को भी कार्यरत देखा है, लेकिन चूँकि सरकारी उपक्रम नहीं है, और बेहतर प्रदर्शन का दबाव है तो ऐसे लोग प्रायः टिक नहीं पाते या फिर खुद को दुरुस्त करने हेतु उचित कसरत में लग जाते हैं।

वो अध्यापिका चुन ली गयी, क्या दोष चुनने वालों का न था? अध्यापिका पद पर आसीन होने के बाद भी क्या प्रयास किया गया कि उनको प्रशिक्षित किया जाए? ये सुनिश्चित करना नौकरी देने वालों का काम है कि वो पूरे प्रयास से बस योग्यता को प्रश्रय दे रहे हैं। यदि अयोग्य को चुन लिया गया तो उसको योग्य बनाने का प्रयास आवश्यक है। क्या व्यवस्था के लिए इतना मुश्किल है, किसी व्यस्क अध्यापक को कक्षा एक, दो, तीन के छात्रों को पढ़ाने योग्य बना पाना?

उस अध्यापिका तक बात नहीं रूकती। ये सवाल अधिसंख्य शिक्षक, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक, क्लर्क सबके लिए समान रूप से लागू हैं।
अयोग्यता हर स्तर पर केवल और केवल तब ख़त्म होगी जब शिक्षण क्षेत्र से अयोग्यता, अक्षमता और बदनीयती को खत्म कर दिया जाए। मतलब लगभग एक ही स्तर की दिक्कत हर क्षेत्र में है लेकिन ठीक यदि करना है तो सबसे पहले शिक्षण तंत्र को ही देखना होगा। शिक्षकों का चयन उनकी संवेदनशीलता, सीखने की क्षमता और अंततः उनकी जानकारी पर निर्भर होनी चाहिए।

जो समय हम बिहारियों ने अपनी अक्षमताओं पर हँसने में नष्ट किया उस समय में काफी कुछ ऐसा किया जा सकता था जो शिक्षकों और छात्रों दोनों को बेहतर और कुशल बना सकता था।

अभी भी प्रयास किया जा सकता है। अपने ज्ञान को घर-घर पहुँचाना अब कहाँ मुश्किल है? अपने आस-पास के शिक्षकों में अपनी क्षमताओं का विस्तार देखना शुरू कीजिये। योग्य हैं तो अपनी योग्यता का प्रसार कीजिए। सबकुछ सरकार पर राजशाही में छोड़ा जाता है, प्रजातंत्र में प्रजा प्रयास करती रहती है।

तरीका थोड़ा आप सोचिये और थोड़ा मैं भी सोचता हूँ। मास्साब की डायरी अभी जारी रहेगी और जारी रहेगा आपका और मेरा विचारना क्योंकि जो जिन्दा हैं तो जिन्दा नज़र आना जरूरी है।
बाकी सब कुशल मंगल है!

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