“हम जब बड़े हो रहे थे तो हमारी हँसी में एक औरत के अपने सपने दफ़न हो रहे थे”
गाँव-घर में जल्दी माँ बन जाने वाली औरतों के भी कुछ सपने होते होंगे, कौन सोचता है! आज का युवा सोच रहा है इन बारीकियों को बड़े ध्यान से। मदर्स डे, माँ के दिन को कुछ ऐसे एक वादा तोहफे में दे रहे हैं हाजीपुर के हिमांशु सिंह-
“अगर कभी कुछ लौटा पाया तो माँ को उसकी जवानी लौटाऊंगा।”
हमलोग वो बेटे/बेटियां जो पले-बढ़े तो बड़े नाज़ों से लेकिन हमें ये एहसास कभी नहीं हुआ कि हम जब बड़े हो रहे थे तो हमारी हँसी में एक औरत, जो हमारी माँ थी, उसके अपने सपने दफ़न हो रहे थे।
हम में से जो भी ग्रामीण इलाकों से, ग्रामीण परिवेशों से या छोटे शहरों से आते हैं, उनमें से ज़्यादातर (या शायद सबकी ही) माँओं की शादियां कम उम्र में ही हुई होगी। उस दौर में (और अभी भी) लड़कियों की शादियाँ 15, 16, 17, 18 जैसी उम्र में ही हो जाती थी। कुछ की मैट्रिक के बाद तो कुछ की बारहवीं के बाद, मगर शादी करा ही दी जाती थी।
एक बार शादी हो गयी फिर ससुराल में कैसा बर्ताव होगा ये उनकी अपनी किस्मत। एक साल, दो साल, तीन साल तक में बच्चा हो गया, फिर उस बच्चे का लेरकम करते रहिए। जवान होने से पहले ही ज़वानी चली गयी, उड़ान भरते इस से पहले पैरों में बेड़िया डाल दी गयी। 24-25 की उम्र आते-आते ज़वानी होती क्या है उसका एहसास भी ख़त्म।
अब जब बचपन की तस्वीरों में अपनी कम उम्र की माँ को मुझे प्यार से पकड़े देखता हूँ तो अफ़सोस होता है अपने पैदा होने पर। बुरा लगता है उस औरत के लिए। ऐसा लगता है मैं वो बेटा हूँ जो अपनी माँ की ज़वानी खा गया।
आज जब बड़े शहर में हूँ, कॉलेज में हूँ तो अपने आसपास अपने हमउम्र लड़कियों को देखता हूँ, उनको मिली आज़ादी को देखता हूँ तो बस अपनी माँ के बारे में ही सोचता हूँ। सोचता हूँ कि जब मेरी माँ इस उम्र की थी तो उसके गोद में मैं झूल रहा था। वो भले ना समझे पर था मैं बोझ ही। जब मैं खुद आज ज़वानी के दहलीज़ पर खड़ा हूँ, अब जब मैं महसूस कर सकता हूँ कि जवान होना किसे कहते हैं, अब जब मैं ख़ून में रवानगी की बातें करते फिरता हूँ तो मुझे पता है कि मेरे अंदर ये जो भी है ये मेरी माँ से ही आया है पर अफ़सोस इस बात का होता है कि खुद मेरी माँ इस एहसास को नहीं जी पायी।
जब अपने आसपास ( और फेसबुक पर भी) 27-28 साल की किसी बेफिक्र लड़की को ज़िन्दगी अपने शर्तों पर जीतें देखता हूँ, अपने प्रेमियों को खुल के आलिंगन करते देखता हूँ, उनका अपने पूर्व-प्रेमियों के बारे में लिखे गए पोस्ट्स पढ़ता हूँ, समाज ने औरत के चरित्र को लेकर जो मानदण्ड बनाये हैं, उनको जब उसका उल्लंघन करते हुए अपनी ‘बदचलनी’ को क़ुबूल करते देखता हूँ, जब उनको खुद को एक्सप्लोर करते देखता हूँ तो ये याद आ जाता है कि जब मेरी माँ 28 की थी तब मैं ना सिर्फ़ था बल्कि बड़ा हो गया था।
ये वो उम्र होती है जब इंसान जुनून में कुछ भी कर गुज़रने की हालत में होता है। कितना भी बड़ा रिस्क हो, मन हो गया तो ले ही लेता है। और जिसके अंदर कोई जुनून ना हो वो कम से कम सो-सो के ही सही लेकिन थोड़ा बहुत तो अपने आप को समझने की कोशिश करता ही है। (बाक़ी मेडल-वेडल लाने वाली तो फिर अलग ही लेवल की है।)
जरूरी नहीं कि मेरी माँ के भी यही सपने रहे होंगे, या कोई सपने रहे ही होंगे। ये भी जरूरी नहीं कि उसको आज़ादी मिलती, मौक़ा मिलता तो ज़िन्दगी में कुछ बड़ा कर ही लेती। शायद वो बुरी तरह फ़ेल हो जाती। लेकिन कम से कम अपने हिसाब से तो जीती। ज़वानी के सारे एहसासों को तो जीती। प्रेम ही करती किसी से, कोई उस से प्रेम करता। अल्हड़ बन इधर-उधर घूमती ही सही। खिलखिला कर हँसती रहती पागलों की तरह। या कोई किताब पढ़ के सोच में डूबी रहती। या घर में सबसे छोटी होने के कारण सबसे लड़ती रहती। या छत पर खड़ी हो कर किसी लड़के की साँसे रोक देती। कुछ तो करती। कम से कम 22-23 की उम्र में अपने बेटे का पिछवाड़ा धोने और 27-28 कि उम्र में उसको स्कूल के लिए तैयार करने से तो बेहतर ही करती कुछ भी।
माँ ने जो किया वो भी कम साहस का काम नहीं है, त्याग किया, अपने बच्चे की ख़ातिर बलिदान किया पर ये सब बक़वास बातें हैं जो हम सबने उन ‘लड़कियों’ के पर काटने के बाद उनके दिमाग में भर दी है consolation prize के जैसे।
आज मदर्स डे है, सबको प्यारी-प्यारी बातें करते देख रहा हूँ अच्छा लग रहा है। मुझे पता है कि कोई भी झूठ नहीं बोल रहा है; अपनी माँ से भला कौन प्यार नहीं करता। मैं भी करता हूँ। उस औरत का चेहरा खुशियों से खिलखिलाता रहे, इस से बढ़ कर ज़िन्दगी में और कोई ख़्वाहिश नहीं है मेरी। लेकिन मैं अपनी माँ के 42 के चेहरे में उसकी 18 की उम्र वाली हँसी ढूँढता हूँ, जो मैंने सिर्फ़ पुरानी तस्वीरों में ही देखी है। मैं ये कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उस तस्वीर वाली लड़की का अल्हड़पन मेरी जिम्मेदारियां ढ़ोते-ढ़ोते कहीं गुम हो गयी। ये जानना मुझे कतई गंवारा नहीं कि जब वो लड़की अपने ज़वानी के चरम पर थी तो मैं बग़ल से मम्मी खाना दो चिल्ला रहा था। मैं हर पल ये चाहता हूँ कि काश मेरी माँ ने वो अपनी ज़वानी के दिन बिना मेरी जिम्मेदारी के बिताये होते। और किसी के साथ नहीं तो, मेरे पापा के साथ ही खुल के रोमांटिक हुई होती।
मदर्स डे है, मैं जानता हूँ ये शायद संभव नहीं है, पर फिर माँ से यही वादा करूँगा कि मैं माँ के दिये असीमित प्यार के बदले में कभी कुछ दे पाया, उसको कुछ लौटा पाया, तो उसको उसकी ज़वानी लौटाऊंगा।
‘उसी बेपरवाह हंसी वाली लड़की का बेटा’
– हिमांशु