जाई छैं दुलरुआ बेटा, तुहूँ परदेश माइयो के रखीहे धियान रौ
“जाई छैं दुलरुआ बेटा, तुहूँ परदेश
माइयो के रखीहे धियान रौ
कानैत देखैछी बेटा तोरो के रस्ता,
बिन देखने छुटी जैतो प्राण रौ।”
एक माँ कह रही है कि “जा रहे हो दुलारे बेटे तुम परदेस, लेकिन माँ को भी याद रखना। रोते हुए तुम्हारा बाट देख रही हूँ, लगता है बिना देखे ही प्राण छूट जाएँगे।”
हम बिहारी लोग जब बिहार छोड़ रहे होते हैं तो साथ में घर-परिवार छोड़ रहे होते हैं, तीज-त्योहार छोड़ रहे होते हैं, माय का दुलार-बाप का फटकार छोड़ रहे होते हैं। दादा-नाना बीमार छोड़ रहे होते हैं, बचपन का पहला प्यार छोड़ रहे होते हैं, संगी-साथी-यार छोड़ रहे होते हैं। आमक पथार, धानक बखार, और लालू की सरकार छोड़ रहे होते हैं।
पलायन हर जगह, हर राज्य में है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। उम्मीदों और नए मौकों का पीछा करना ही चाहिए। इसी गुण ने गिरमिटिया बन के गए बिहारी मजदूरों को हिन्द-महासागरीय द्वीपों का मालिक बना दिया। पर फिर भी एक टीस तो रहती ही है। नौ साल से प्रवासी होने के बावजूद आज भी विदा करने वक्त जब माँ की आँख में आँसू देखा तो मन में हुक तो उठ ही गई। खैर!
जिम्मेदारी, सपनों और उम्मीदों के झोले को कंधे पे लटकाए हम नए शहर-राज्य जाते हैं, अपना सब भूलके उनके रंग में रंग जाते हैं ताकि उस शहर की भीड़ में गुम हो सकें। अपने बोली का टोन छोड़ देते हैं, उस शहर के पहनावा-खान-पान सब में ढल जाते हैं। फिर भी कई बार हमें गाली, उपराग, हिंसा और बिहारी होने का उलाहना झेलना पड़ता है। पर झेला हमने पहले क्या कम है, सो सब भूल हम झंडे गाड़ने में व्यस्त हो जाते हैं। सफलता के शोर और तालियों की गड़गड़ाहट में गालियां छुप जाती हैं अक्सर।
हर बार जाने वक्त सोच के जाता हूँ और घर की कुलदेवी भगवती को प्रणाम करते वक्त बोल के आता हूँ, “एक दिन वापस आ जाऊँगा”।
अभी जा रहा हूँ कि कुछ बना सकूँ, लायक बन सकूँ लेकिन वापस जरूर आऊँगा।बदलाव को धरातल तक खींच के लाने के लिए और अपने उड़ान के आसमान को जमीन देने के लिए जरूर वापस आऊँगा।
बीमार था फिर भी आज अचानक मुम्बई निकल गया हूँ, वो भी कार में सड़क मार्ग से। रास्ता लम्बा है और मौसम बढ़िया। अभी शायद बिहार के अंतिम छोर पे पहुंच चुका हूँ, फिर भी अपना सा लग रहा है।
“जाई छैं दुलरुआ बेटा, तुहूँ परदेश…”
– आदित्य झा