यूं तो बिहार में बड़े ही धूमधाम से हर त्योहार मनाया जाता है, मगर होली की बात ही कुछ और है। रंगों के इस त्योहार को लेकर लोगों का उत्साह देखते बनता है। बिहार में होली का अपना एक अलग ही अंदाज है। और ऐसी मान्यता है की रंगों के इस त्योहार की परंपरा बिहार से ही आरंभ हुई है। मान्यता है कि बिहार के पूर्णिया जिले के धरहरा गांव में पहली बार होली मनाई गई थी। इसके साक्ष्य भी मिले हैं। यहां होलिका दहन के दिन करीब 50 हजार श्रद्धालु राख और मिट्टी से होली खेलते हैं।
पूर्णिया के बनमनखी का सिकलीगढ़ धरहरा गांव होलिका दहन की परंपरा के आरंभ का गवाह है। मान्यता के अनुसार यहीं भगवान नरसिंह ने अवतार लिया था और यहीं होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठी थी। यहीं से होलिकादहन की शुरुआत हुई थी।
बिहार के बाहर देश और दुनिया के कोने-कोने में बसे बिहारियों के लिए भी यह पर्व मायने रखता है। ख़ास कर वैसों के लिए जिन्होंने अपने परिवार को अपने पैतृक घर या गाँव में ही छोड़ रखा है। चाहे वे देश की राजधानी दिल्ली में रहते हो या दुनिया के किसी अन्य शहर में रहते हों होली के अवसर पर वे अपनी मिट्टी को नहीं भुलते हैं।
भले ही देश के अन्य कोने में ऊंच-नीच, जात-पात और कौम के नाम पर राजनीति करने वाले नेता लोगों को बांटा रहे हैं पर बिहार में होली के अवसर पर कोई बड़ा या छोटा नहीं होता यहाँ आम हो या खास सभी जात – पात, ऊंच-नीच के भेदभाव से ऊपर उठकर एक दूसरे को रंग लगाते हैं और गले लगाते हैं।
होली के त्योहार की दस्तक भोजपुरी गीतों के साथ ढोलक और मजीरे की आवाज से 15 रोज पहले से ही सुनाई पड़ने लग जाती है। लोग चाव से घरों से निकल टोलियों में गीतों को सुनते और घर में पकाया पकवान खिलाते और फिर रंग डालते। यहां होली के मौके पर फगुआ और जोगिरा गाने का रिवाज है। साथ ही कई स्थानों पर कीचड़ की होली भी इस पर्व को खास बनाती है। इसके अलावा होली की खुशी में यहां के लोग इस दिन दिल खोलकर डांस करते हैं। साथ ही बिहार की कुर्ता फाड़ होली भी बहुत फेमस है।