गांधी और बिहार का रिश्ता बहुत अटूट है।उनके जीवन से जुड़े कई प्रसंग इसकी पुष्टि करते हैं। आजादी का आंदोलन भी उन्होंने सबसे पहले बिहार के चम्पारण की धरती से ही शुरू की थी ।
गांधी जी के लिए बिहार घर जैसा था। बिहार के साथ उनकी अनेक यादें जुड़ी हुई है। आइए देखें, बिहार से जुड़ी कुछ प्रसंग।
लोगों ने क्या दर्द नहीं सहे। इंसानों को भेड़-बकरियों की तरह जहाजों में लादकर अफ्रीका ले जाने वाले अंग्रेज और बैलों की तरह उनकी बोली लगाना। कौन कितना हट्ठा-कट्ठा, पुट्ठे दबाकर देखे जाते थे और इसमें सर्वाधिक जमात बिहारियों की। आजादी के अगुवा बने गांधी को इसी बिहार ने झकझोरा। गांधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास में इसका जिक्र है। बिहारियों से जुड़े गांधीजी के जीवन के ऐसे और भी कई प्रसंग हैं। आजादी के आंदोलन से पहले दक्षिण अफ्रीका में इसकी पृष्ठभूमि तैयार हुई तो उसके पीछे कराहती इंसानियत थी। वैसे तो उत्तर से दक्षिण भारत तक के लोग उन गुलामों में थे, पर बिहार के भोजपुर इलाके से जाने वाले लोगों की तादाद अधिक थी।
भारत लौटने के बाद गांधी का आंदोलन भी शुरू हुआ तो बिहार से। चंपारण का सत्याग्रह, जहां निलहों के अत्याचार से लोग कांप रहे थे। गांधी के कदम बिहार में पड़े तो एक नैतिक बल लोगों के साथ था। तब के लोकगीतों में एक यह भी था, ”खेलहु न जाने फिरंगिया रे, होली खेलै गंवार फागुन में। नेताजी मारे पिचकारी, गांधी उड़ावैं गुलाल फागुन में…।”
जंग सिर्फ आजादी की नहीं, बल्कि नीति और नैतिकता की भी। यह सबसे जरूरी था, क्योंकि इसके बिना आजादी की जंग के लिए नैतिक बल कहां से मिलता? तब के सामाजिक परिवेश को देखकर गांधी क्या सोचते थे, इसका एक उदाहरण उनकी आरा यात्रा भी है।
एक विधवा चंदा बाई ने स्थानीय धनुपरा में विधवा आश्रम की स्थापना की थी। यहां महात्मा गांधी आए तो 7 वर्षीया बाल विधवा को देखकर रो पड़े थे। उन्होंने लिखा, ”इस वनिता आश्रम को देखकर मुझे जितना आनंद हुआ, उतना ही दु:ख हुआ। दाता के लिए मन में आदर पैदा हुआ और मकान की शांति इत्यादि देखकर आनंद हुआ, परन्तु 7 वर्ष की विधवा को देखकर दु:ख हुआ। संचालकों से मेरी प्रार्थना है कि ऐसी बालाओं को विधवा न समझें। ऐसा समझने में धर्म नहीं अधर्म है।” ऐसे कई प्रकरण भरे पड़े हैं। गांधी का भोजपुर आना-जाना हमेशा होता रहा।