बिहारी वीर: इस बिहारी ने 80 साल के उम्र में तलवार उठा के अंग्रेज़ी हुकूमत को हिला दिया
आपन बिहार की टीम शहीदों को याद करते हुए एक विशेष कार्यक्रम शुरू की है। आज दिनांक 28 जुलाई से स्वतंत्रता दिवस, अर्थात 15 अगस्त तक हम बिहार के भिन्न-भिन्न जिलों से स्वंतंत्रता संग्राम में शहीद हुए अमरों की अमर-कथा लायेंगे| क्योंकि हम आजाद हो चुके हैं, हमारा फ़र्ज़ है कि उन आजादी के मतवालों की कहानियाँ हम दुहराते रहें| तो मनाते हैं जश्न अपनी आजादी का, आज से लगातार स्वत्रंता दिवस तक|
इस कडी में आज हम बतायेंगे प्रथमस्वतंत्रता संग्राम 1857 के एक महान बिहारी क्रांतिकारी के बारे में जिसने 80 साल के उम्र में अपनी मातृभूमी को आजाद कराने के लिए तलवार उठा अंग्रेंजी हुकूमत को लल्कारा था और जंग-ए-आजादी का एलान किया था। जी हाँ, वह महान योद्धा थे बिहार के बाबू वीर कुंवर सिंह।
प्रथमस्वतंत्रता संग्राम 1857 का रणघोष हो चुका था। इसकी चिंगारी शोला बन चुकी थी और देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ जंग आजादी का एलान हो चुका था। दिल्ली में बहादुर शाह जफर, कानपुर में नाना साहब, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, काल्पी के राय साहब जैसे लोग स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में कूद चुके थे।
तो बिहार भी आजादी के इस शोले की धधक से अछूता नहीं रहा। जगदीशपुर के अस्सी वर्षीय वीर कुंवर सिंह 1857 की इस लड़ाई में बिहार का नेतृत्व कर रहे थे।
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे. अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया.
बिहार के शाहाबाद (भोजपुर) जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे कुंवर सिंह का जन्म 1777 में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे.
बाबू कुंवर सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह जिला शाहाबाद की कीमती और अतिविशाल जागीरों के मालिक थे. सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत चाहते थे. वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे ही साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी. कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के कारण वह अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने.
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबू कुंवर सिंह की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया. मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया. ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया
आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कुँवर सिंह ने नोखा, बरांव, रोहतास, सासाराम, रामगढ़, मिर्जापुर, बनारस, अयोध्या, लखनऊ, फैजाबाद, रीवां बांदा, कालपी, गाजीपुर, बांसडीह, सिकंदरपुर, मानियर और बलिया का दौरा किया था और संगठन खड़ा किया था।
सिंहन को सिंह शूरवीर कुंवर सिंह,
गिन गिन के मारे फिरंगी समर में।
कछुक तो मर गये, कछुक भाग घर गए,
बचे खुचे डर गए गंगा के भंवर में।
यह पंक्तियां सन 1857 की गर्मियों में गंगा तट पर बाबू कुंवर सिंह और अंग्रेजों के बीच हुए उस भीषण युद्ध का ध्वनि चित्र प्रस्तुत करती हैं। जिसमें तोप का गोला लगने से इस स्वधीनता सेनानी की बांह घायल हो गई थी। कुंवर सिंह ने अपनी तलवार से अपनी बांह काट कर गंगा मैया को अर्पित कर दी थी।
फरवरी 1858 में कुंवर सिंह लखनऊ दरियाबाद के बीच अंग्रेजों के दांत खट्टे कर रहे थे। मार्च में उन्होंने आजमगढ़ से बीस मील दूर अतरोली पर हमला किया और कर्नल मिलमैन को हराकर भागने पर मजबूर कर दिया।उन्होंने आजमगढ़ किला पर कब्जा कर लिया। यह क्रांतिकारियों की सबसे बड़ी विजय थी। गाजीपुर से कर्नल डेम्स को भेजा गया। लेकिन कुंवर सिंह ने उसे भी परास्त कर दिया। अंतत: अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुन: कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया। यह यूनियन जैक की साख का सवाल था। जनरल डगलस ने अपने संस्मरणों में लिखा है। कुंवर हताश होकर बिहार लौटने लगे। जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे तभी उनकी बांह में एक गोला आकर लगा। उन्होंने अपनी तलवार से बांह काट कर गंगा मैया को अर्पित कर दी। आरा के पास पुन: एक बार निर्णायक युद्ध हुआ। कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के सौ सैनिकों और केप्टेन लिन्ग्रेड को मौत के घाट उतार दिया। यद्यपि वे विजयी भी हुए किंतु अंग्रेजों की बहुत बड़ी सेना उनके पीछे थी। वे बुरी तरह घायल थे। 24 अप्रैल 1858 को यह अस्सी साल का रणबांकुरा स्वर्ग सिधार गया। खुद कमिश्नर टेलर ने अपनी डायरी में लिखा।
बाबू कुंवर सिंह की वीरता का बखान गंग कवि ने निम्न लिखित छंद में किया है।
समर में निसंक बंक
बांकुरा विराजमान
सिंह के समाज सोहे
बीच निज दल के।
कमर में कटारी सोहे
करखा से बातें करै,
उछल उछल मुंड काटे
सत्रु बाहुबल के।
बांया हाथ मूंछन पे ताव देत
बार बार दहिन से,
समसेर बांके बिहारी सम चमके।
कहें कवि गंग जगदीशपुर कुंवर ङ्क्षसह,
जाकी तरवार देख गोरन दल दलके।
बाबू कुंवर सिंह उन इने-गिने स्वतंत्रता सेनानियों में से थे जिन्होंने 1857 में दिल्ली, लखनऊ, कानपुर आदि पर अंग्रेजों का पुन: कब्जा हो जाने के बाद भी सन 1858 की प्रथम तिमाही तक भी इस सशस्त्र क्रांति की मशाल को प्रज्जवलित रखा।
उन्हें अंग्रेजों के प्रति कोई व्यक्तिगत असंतोष नहीं था। वे वहाबी संप्रदाय के इस तर्क से सहमत थे कि भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति हर पैमाने पर अधार्मिक, असामाजिक और अन्यायी है।
उन्हें अंग्रेजों के प्रति कोई व्यक्तिगत असंतोष नहीं था। वे वहाबी संप्रदाय के इस तर्क से सहमत थे कि भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति हर पैमाने पर अधार्मिक, असामाजिक और अन्यायी है।
बिहार को अभिमान है अपने इस सपूत पर जिसने 80 साल के उम्र में भी तलवार उठा, जवानों में जोश भरकर आजादी का बिगूल फूक दिया और मरते दम तक देश के आजादी के लिए लडते रहे।
कल फिर हम बिहार के नये योद्धा के बारे में हम आपको बातायेंगे जिसने देश के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। जुडे रहें आपन बिहार के साथ।
जय हिंद।