आज पूरे विश्व में छठ महापर्व हर्षोउल्लास के साथ मनाया जा रहा है। यह पर्व भारत के मुख्यतः बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, तथा नेपाल के कुछ जिलों में मनाया जाता है। वैश्वीकरण के युग में बिहारी डायस्पोरा ने इसे भारत के साथ–साथ विश्व के भी हरेक कोने में फैला दिया है।
छठ पूजा का उदय
यदि हम बात करे कि छठ पूजा की शुरुआत कब हुई थी तो यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है। हमारे समाज में छठ पूजा को लेकर अन्य दन्त कथाएं प्रचलित है। कुछ लोग यह मानते हैं कि यह पूजा सबसे पहले सीता ने किया था जब राम ने रामराज्य की स्थापना की थी।
कुछ यह मानते हैं कि इसके साक्ष्य महाभारत में भी मिलते है, यह पूजा कुंती ने तब किया था जब वह अपने पांचों बच्चों के साथ लाख गृह से सही सलामत वापस आ गयी थी। कुछ इसे ऋगवेद से जोड़ते हैं और कहते हैं कि सूर्य को पूजने की परंपरा की शुरुआत तब से ही हुई थी। लेकिन एक तपका यह भी है जो इसे हिंदू पर्व न मानते हुए कहते है कि इस पर्व की शुरुआत आदिवासियों ने की थी, सूर्य, अग्नि, जल की पूजा आदिवासी शुरू से करते आ रहे हैं जिसे समाज के हिंदूओं ने एडाप्ट कर लिया है। हमारे बीच ऐसे भी तथ्य आते है कि इस पूजा का संबंध कृषि से है और अच्छी फसल होने पर हम प्रकृति का धन्यवाद ज्ञापन करते है।
बहरहाल यह बताना बहुत ही कठिन है कि छठ पूजा की शुरुवात कहाँ से हुई लेकिन यह बात तो साफ है कि लोग प्रकृति के प्रति अपना आभार व्यक्त करते है।
छठ पूजा अलग क्यों है?
छठ पर्व बहुत ही चर्चित मिथक को तोड़ने में सफल रहा है कि ‘डूबते हुए सूरज को कौन सलाम करता है?’ छठ पूजा में लोग सूर्यास्त और सूर्योदय दोनों को सलाम करते हैं। छठ पूजा के लिए घाट सार्वजनिक होते है जहां पर समाज के हर वर्ग के लोग आ कर अपना त्योहार मना सकते है। यह पर्व पूरे समाज में भाईचारा और सुख–सौहार्द को बढ़ावा देता है।
छठ पूजा सामाजिक कुरीतियों को तोड़ने में सहायक
हर साल की तरह इस बार भी बिहारी गायक छठ पूजा और नए–नए गीत लेकर आए, लेकिन इस बार यदि हम बहुचर्चित गायक अक्षरा सिंह का गाना सुनते हैं तो उन्होंने बिहार के डोम जाति पर गाना बनाया है और समाज में यह सन्देश दिया है कि जिस डोम के हाथ का बना हुआ सूप में अर्घ देते है वही डोम समाज में अछूत कैसे हो सकते हैं। वही दूसरी ओर महामंडलेश्वर कनकेश्वरी नन्दगिरी, किन्नर अखाड़ा की ओर से एक गीत यूट्यूब पर धूम मचाए हुए हैं जो यह सन्देश देता है कि समाज में किन्नर समुदाय भी आम जनता का हिस्सा है उन्हें भी इस पूजा में शामिल होने का उतना ही अधिकार है जितना बाकी लोगों को।
वास्तविकता में यह बात कितना सही है यह पता लगाना मुश्किल है लेकिन इस तरह के गाने समाज पर जरूर ही सकारत्मक प्रभाव छोड़ते हैं।
इस पर्व को सभी लिंग के लोग मनाते हैं यह पर्व केवल महिलाओं तक सीमित नही है। इसके अनुष्ठान को पुरुष भी सपन्न कर सकते है। अन्य पर्वों में मूर्ति पूजा को प्रधानता दी गयी है लेकिन इस पर्व में प्रकृति को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसी पर्व के कारण ही लाख आधुनिकता आने के बाद भी हमारे बीच चूल्हा, ठेकुआ, लौकी–भात को जिंदा है। यह पर्व समाज को और लोगो को अपने घर से जुड़े रहने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
– ऋतु
शोधार्थी (दिल्ली विश्वविद्यालय)