बिहार न जाने कितनी ही समस्याओं से लड़ता रहा है। शायद उन्हीं समस्याओं से पार पाने के लिए बिहार के हर दूसरे घर का युवा या तो सरकारी नौकरी की तैयारी करता है। या फ़िर किसी अच्छे रोज़गार की तलाश में बिहार से बाहर किसी दूसरे राज्य, शहर या महानगर का रुख़ करता है। पलायन करने वालों में एक बड़ी संख्या उन लोगो की होती है, जो बिहार से बाहर का रुख़ करके दूसरे शहरों में मज़दूरी करते हैं। ये मज़दूर आपको कश्मीर से कन्याकुमारी, हर क्षेत्र में मिलेंगे जो किसी ना किसी प्रकार से निर्माण कार्यों में अपना योगदान दे रहे होंगे।
साल के तीसरे महीने में कोरोनावायरस के कारण हुई तालाबंदी के बाद शुरू हुए अकस्मात विस्थापन से इन मज़दूरों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। जिन शहरों को इन्होंने अपने हाथों से रचा, उन्हीं शहरों ने उन्हें उस मुश्किल घड़ी में निर्मम होकर सैकड़ों किलोमीटर भूखे-प्यासे पैदल चलने को छोड़ दिया। प्रशासन की आँखें खुलीं तबतक कई मज़दूर अपनी जान गँवा चुके थे। ख़ैर, इस समस्या पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा चुका है। धीरे-धीरे तालाबंदी को कम किया जा रहा है और कई मज़दूर अपनी आजीविका के लिए वापस शहरों की ओर जा चुके हैं।
बाढ़ और महामारी की मार!
बिहार लगभग हर वर्ष बाढ़ की मार झेलता है। खेतों में तैयार खड़ी फ़सलें बाढ़ की भेंट चढ़ जाती हैं। इस वर्ष भी ऐसा ही हुआ। यानि, हर वर्ष आती बाढ़ से प्रशासन ने कोई सीख नहीं ली और बाढ़ का पानी एक बार फिर से किसानों की मेहनत पर पानी फेरने में कामयाब रहा। लेकिन जो मौसम की मार के आगे हार जाए, वो किसान कहाँ? बर्बाद हुए खेतों से कुछ बची-खुची अपनी मेहनत का हिस्सा ढूँढते किसान फिर से खलिहानों को फसलों से सजाने की जद्दोजहद में लग गए हैं।
ध्यान देने वाली बात है कि, मौसम की मार से बेहाल हुए किसान सरकार से मदद की आस तो रखते हैं, लेकिन इस आस पर निर्भर नहीं होते। क्योंकि वह सत्ता की सच्चाई से कतई अनभिज्ञ नहीं हैं।
और इस बार तो बाढ़ ने अकेले कहर नहीं ढाया है। कोरोनावायरस नामक मुसीबत भी तेज़ी से बिहार में पैर पसार रही है। बिहार 12.85 करोड़ की आबादी वाला राज्य है। कोरोनावायरस से बिहार में अबतक करीब 40,000 लोग संक्रमित हो चुके हैं जिनमें से लगभग 26,000 मरीज़ ठीक हो चुके हैं और 250 के करीब मौतें हो चुकी हैं।
यह स्थिति तब है जब, 10 लाख लोंगों पर करीब 4000 सैम्पल का टेस्ट किया जा रहा है और हर 100 में से 7 लोग संक्रमित पाए जा रहे हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था का चिर-परिचित हाल तो बच्चों में होने वाली बीमारी एन्सेफलाइटिस के वक़्त सामने आ ही जाता है। लेकिन महामारी को देखते हुए कम से कम थोड़ी बहुत दुरुस्ती की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन प्रशासन ने सफलतापूर्वक इस उम्मीद पर भी पानी फेर ही दिया। कोरोना-काल में स्वास्थ्य सुविधाओं के तैयारी की सच्चाई सोशल मीडिया पर घूमते अस्पताल या मेडिकल स्टोर के बाहर पड़े लोगों वीडियो और तसवीरें बयां करने में सक्षम हैं।
जनता त्रस्त और प्रशासन चुनाव पर अटल
इतनी परेशानियों के बीच एक चीज़ है जो स्थगित तो की जा सकती है। लेकिन की नहीं जा रही। वह है लोकतंत्र का महापर्व “चुनाव”। बिहार में इसी वर्ष के अंत तक विधानसभा चुनावों का आयोजन किया जाना है। राजनीतिक दल चुनाव जीतने की तैयारी भी कर चुके हैं और एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चल रहा है। सत्ता पक्ष (15 वर्ष से सत्तासीन) पूर्व मुख्यमंत्री से राज्य में अस्पताल ना बनवाने का कारण पूछने में भी पीछे नहीं नहीं हट रहा।
ऐसे वक़्त में जब, क्या आम और क्या खास, सभी एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल इलाज की तलाश में चक्कर काट रहे हैं, तब भी प्रशासन के लिए चुनाव महत्वपूर्ण हो चले हैं।
चुनाव करवाने के लिए हर संभव तरीके को तलाशा जा रहा है। स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी खराब क्यों है? इसे ठीक करने के लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं और अगर प्रयास हो ही रहे हैं, तो राज्य में व्यवस्था सुधारने की जगह और बिगड़ क्यों रही है? इसका जवाब शायद ही मिले। क्योंकि परेशान परिजनों की अस्पताल कर्मियों से मरीज़ को अस्पताल में भर्ती करने की गुहार लगाने वाली वायरल वीडियो, हर दावे की सच्चाई को सामने रख देते हैं।
तो इन सब के मद्देनजर, क्या बिहार को विधानसभा चुनाव की ओर धकेलना सही निर्णय होगा? और अगर चुनाव तय वक़्त पर होने जा ही रहे हैं, तो सत्ता पक्ष किन कार्यों के बदले मतदाताओं से वोट माँगेगा? महामारी के काल में प्राथमिकता जनता के स्वास्थ्य की रक्षा होनी चाहिए। मतदाता अगर खुद ही महामारी से भयभीत हो तो वह कैसे उम्मीदवार का चुनाव करेगा? वरना बिहार के अस्पताल और देशभर के सोशल मीडिया बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की उड़ती धज्जियों से भरमाए हुए हैं। फैसला कुछ आपके और कुछ प्रशासन के हाथ में है। लोगों की ज़िंदगी बचाने के प्रयास या अव्यवस्था के बीच चुनाव!
– खुशबू