बच्चों के लिए गुल्लक में जमा पैसा का बहुत महत्व होता है। वो महीनों एक – एक पाई जोड़ कर कुछ पैसा जमा करता है ताकि वह अपना कोई शौक पूरा कर सकें। जो बच्चें अच्छे परिवार से होते हैं वो अपने पॉकेट खर्च से बचत करते हैं तो गरीब परिवार के बच्चें मजदूरी करके। इस लॉकडाउन में इसी गुल्लक से संबंधित की एक हृदय विदारक कहानी बिहार के छपरा जिले से आयी है।
छपरा जिले के फतेहपुर सरेया गांव निवासी राजबलम कुशवाहा लॉकडाउन की वजह से सूरत में फंसे हुए हैं हैं। रविवार की रात उनकी 45 वर्षीय पत्नी राजमुनि देवी का निधन हो गया।
राजमुनि की तीन बेटियां पूनम, काजल और नेहा हैं। सिर से मां का साया छिन जाने से बेटियां बदहवास हो गईं और मां का शव सामने देख, घऱ में पैसे नहीं होने से उनका रो-रोकर बुरा हाल था। मां की अंत्येष्टि तक के लिए पैसे नहीं थे।
बेटियों ने सोहनी (खेतों में घास काटना) से मिलने वाले कुछ पैसे गुल्लक में जमा कर रखे थे। गुल्लक तोड़कर गिनती की तो पता चला कि गुल्लक में 2000 रुपये हैं। अपनी मां को सबने कंधा दिया तो एक बेटी ने मुखाग्नि देकर समाज की परंपराओं से इतर एक नया अध्याय लिखा।
ये घटना दुखद तो है ही इसके साथ ये घटना हमारे सरकारी सिस्टम से लेकर समाज तक को आईना दिखा रहा है। एक तरफ बेटे के जन्म पर खुशियां और बेटियों के जन्म पर मातम मनाने वाले इस दोहरे सोच वाले समाज की सच्चाई को कोरोना महामारी ने सामने ला दिया है। बेटे और बेटियों में फर्क करनेवाले इस समाज की सोच अब भी ना बदली तो शायद कभी ना बदलेगी। भले समाज ने उनके बेटी होने के कारण भेदभाव किया मगर जिम्मेदारी निभाने में वो बेटों से आगे ही रही है, पीछे नहीं।
दूसरी तरफ यह लॉकडाउन विकाश के खोखले दावों की पोल खोल दी। समाज में असमानता कि हद तक है कि मां के मौत के बाद उसके कफ़न का पैसा का इंतजाम भी गुल्लक के पैसों से करना पड़ा। किसी समाज और देश के लिए इससे शर्मनाक क्या हो सकता है?