कोरोना वायरस को भारत में दस्तक दिए दो महीने से अधिक हो गये हैं| देश मे मरीजों की संख्या जहाँ पैतीस हज़ार के पार हो गयी है और समुचा देश एक महीने से अधिक समय से बन्द पड़ा हुआ है – ऐसे में कई मिडिल क्लास और अपर क्लास सोशल मीडिया पर बोर होने की पोस्ट डाल रहे हैं, कोई जिम करने कि सलाह दे रहा है तो कोई खाने के रेसिपी शेयर कर रहा है| कभी-कभार लोग सोशल मीडिया पर मजदूरों पर चिन्ता व्यक्त कर देते है तो कोई मुस्लिम पर हो रहे अत्याचारों को भी शेयर कर देते हैं| कई लोग ताली-थाली बजाने का काम और दिया जलाने जैसे कामों की प्रतीक्षा कर रहे हैं| कुछ ऐसे भी लोग है जो प्रवासी मजदूरों को गाली दे रहे हैं तो कुछ मुस्लिम समुदाय पर भी टिप्पणी कस रहे हैं| लेकिन इस देश में बहुत से लोग समाजिक सच्चाई से अवगत नहीं है| वो वाट्सऐप पर आयी हुए ख़बरों को अपने जानकारी का आधार मानते हैं और उसी आधार पर बहुजनों को गाली भी देते हैं – जब सरकार राशन दे ही रही है तो किस बात का रोना रो रहे हैं? डालगोना कॉफ़ी वाले लोगो को यह भी नहीं पता कि राशन मे किस प्रकार के खाद्य पदार्थ मिलते हैं?
फ़ेसबुक और वाट्सऐप यूनिवर्सिटी से पढ़े हुए लोगों को यह भी नहीं पता कि देश मे गरीबों कि संख्या कितनी है? और उनमे से कितने लोग बहुजन समुदाय के हैं।
2011 का जनगणना रिपोर्ट यह बताता है कि देश मे कुल जनसंख्या का भाग 41% अति पिछड़ा वर्ग (OBC) है, 16.8% अनुसूचित जातिया और 8.6% अनुसूचित जनजातिया है , 14.2% मुस्लिम समुदाय के लोग है | अर्जुनसेन गुप्ता कमिटी के रिपोर्ट के अनुसार देश मे 84 करोड़ लोग गरीब है जिसमें से 77% लोग बहुजन समुदाय के है| देश मे जब भी कोई त्रासदी आई है तो उस त्रासदी का सबसे बड़ा शिकार भी बहुजन समुदाय के लोग ही हुए हैं और हमेशा की तरह कोई भी घोषणा करने से पहले देश के वंचितों के बारे में नहीं सोचा गया चाहे वो नोटबंदी हो या एन.आर.सी. और लॉकडाउन| लाकडाउन मे प्रवासी मजदूरों कि हृदय चीरने वाली तस्वीर यह बताती है कि गरीबो कि सुध नहीं ली गयी है!
इस लेख में हम पूरे देश का जायजा तो नहीं ले पाए है लेकिन देश के विभिन्न कोनों से बहुजन समुदाय के लोगो ने अपनी बात लॉकडाउन और गरीबी पर रखी है, उत्तरपुर्वी राज्य मेघालय की निवासी लियान्मा लालू का मानना है की मेघालय मे मुख्य रुप से गारो, खासी, जयन्तिया आदिवासी समूह रह रहे हैं वह बताती है कि लाकडाउन मे शहर मे रह रहे लोगों को कम तकलीफ़े है, लेकिन जंगली इलाकों मे दिक्कते बढ़ रही है, वहा कई आदिवासियों को राशन नहीं मिल पा रहा है, राज्य सरकार ने तो फ़िर भी कई लोगो की सहायता करने की कोशिश की है लेकिन केन्द्र सरकार की मदद उन आदिवासियो तक नहीं पहुंच पा रही है, कई लोग जंगल मे होने वाली सब्जियो और फ़लो पर अपना गुजारा कर रहे हैं, लियान्मा कहती है कि राज्य मे कई समूह ऐसे भी है कि उनके पास ना तो रेडियो, और ना ही टेलीविजन है। इसलिए उनके तक खबर पहुँचाने में दिक्कत हो रही है, वह कह रही है कि हमारे मुख्यमन्त्री ने लॉकडाउन तीन मई से आगे बढ़ाने का विचार रखा है ताकि महामारी के चेन को रोका जा सके, लेकिन अभी भी उन लोगों के बारे मे नहीं सोचा गया है जो रोजाना कमाते है!
वहीं अरुणाचल प्रदेश के वसन्त कहते हैं कि उत्तरपुर्वी राज्यों मे कई जरुरी चीजे जैसे चावल, असम से आते हैं| लॉकडाउन के चलते ये आ नही पा रहे हैं जिनसे चावल बहुत महंगा हो गया है और इसे गरीब तबके के लोग खरीद नही पा रहे हैं वह यह भी बताते है कि कई आदिवासी समूह पूरी तरह जन्गलो के उत्पाद पर निर्भर हो गये हैं उनके पास इसके आलावा कोई राशन नही है| वसंत बताते है कि खाने का अभाव होने के कारण गरीब आदिवासी गुस्सा भी प्रकट कर रहे हैं उन्हे इस बात का डर है कि अगर सरकार ठीक से ध्यान नहीं दी तो विरोध की ज्वाला कही और ना बढ़ जाए!
केरल की निवासी फ़ातिमा रजीला का कहना है कि केरल जैसे राज्य मे भी गरीबों को दिक्कत हो रही है, वह कहती है कि तटीय इलाकों मे रह रहे मछुवारो को काफ़ी दिक्कते आ रही है| एक तो उनका रोजगार नहीं चल रहा और उसके साथ उनके पास निजी वाहन ना होने के कारण वह मेडिकल ईमर्जेन्सी मे भी घन्टो इंतज़ार करते हैं| इलाज के लिए, वह बताती है कि गरीब परिवार के लोगों को यहाँ पर राशन तो मिल गया है पर अन्य जरुरी सामग्री के लिए उन्हे दिक्कत हो रही है फ़िर भी वह केरल सरकार की सराहना करती है और उम्मीद करती है कि केरल सरकार इन समस्याओं पर जरुर ध्यान देगी|
यदि हम बहुजनो कि दयनीय स्थिति कि बात करे तो इनकी हालत खबर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बहुसंख्यक राज्यो मे मिलती जहाँ राज्य की लाखों आबादी अपना जीवयापन हेतु बाहर प्रवास करती है|
उत्तर प्रदेश के समाजिक कार्यकर्ता कुलदीप सन्खवार (पुर्व राज्यमंत्रि, बसपा) बताते हैं कि बहुजन समुदाय कि स्थिति बहुत ही खराब है, राशन आने के बावजूद भी उच्च जाति के दबंग डीलर राशन वितरण नहीं कर रहे हैं, वास्तव में जो राशन के हकदार है उन्हे राशन कार्ड नहीं मिला है, कई अपने सगे सम्बम्धियो को राशन दे रहे हैं, वह यह भी बताते है कि यूपी के 20-25 लाख लोग अभी भी बाहर फ़से हुए हैं जिनमे से 70% लोग गरीब पिछड़े समुदाय से है, उनके पैसे से ही गाँव में उनका परिवार का गुजर-बसर होता था अब उन परिवारों को अपना जीवन यापन करने मे काफ़ी मुश्किले आ रही है|
यदि हम बिहार राज्य की बात करें तो बिहार में भी बहुजनो कि स्थिति दयनीय ही है| समाजिक कार्यकर्ता मुकेश राजभर बताते है कि जिले कि स्थिति बिल्कुल भी ठीक नहीं है, वह क़वारन्टीन सेंटरों पर आये प्रवासी मजदूरों का वृतान्त सुनाते है तो आन्खे भर जाती है, कुदरा ब्लाक मे 900-1000 मजदूर विभिन्न राज्यों से आए है, जिनमें से कुछ ने ठेकुआ का सहारा लिया तो कुछ पानी पी कर ही काम चला लिये, कोइ पैदल चला, तो कोई साइकिल का सहारा लिया, प्रवासी मजदूरो मे से 70-75% बहुजन समुदाय के ही लोग है जिनके पास गाँव मे भी रोजगार का साधन नहीं है, किसी को बेटी कि शादी कि चिंता सता रही तो किसी को अपने बच्चों का पेट भरने कि चिन्ता खाये जा रही है| मुकेश यह भी बताते है कि दिल्ली- गुजरात जैसी जगह पर कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों की सैलरी भी बन्द हो गयी है|
गाँव के अधिकतर खेतों और जमीनों पर आज भी उच्च वर्ग का बोलबाला है| ऐसे मे उनके पास अथाह गरीबी से गुजरने का भय सताता है! मुकेश यह भी बताते है कि बिहार राज्य सरकार इन तबको के बारे मे नही सोच रही है, वह आशा और जीविका कार्यकर्ता को मास्क देने मे भी सक्षम नही है|
मुकेश का मानना है कि दलितों और मुसलमानों मे जानकारी का अभाव है मुसलमान एन.आर.सी से इतना डर गये है कि जब भी पुलिस इनके इलाको मे जाती है तो इन्हे एन.आर.सी का डर लगने लग जाता है और कई लोग बाहर नही आते हैं| वैसे ही निरक्षरता के कारण मुसहर टोली के लोग भी कोरोना को समझ नही पा रहे हैं उन्हे लगता है कि पुलिस के साथ डाक्टर, नर्स उन्हे जेल में बन्द करने के लिए आए है, इसलिए वह भी जाँच के लिए आगे नही आ रहे हैं!
वहीं बिहार के बक्सर जिले के विद्यासागर अपना विचार रखते हुए कहते हैं कि जहाँ एक तरफ कोरोना ने वैश्विक स्तर पर मानवीय एवं गैर मानवीय संसाधनों को क्षति पहुँचाया है तो दूसरे तरफ इसने ऐसे कई विमर्श पैदा कर दिए हैं जो भारत जैसे राष्ट्र के लिए नितांत विचारणीय हो जाता है।
सबसे अहम सवाल उठता है श्रमिक वर्ग का जो इस महामारी का सबसे बड़ा भुक्तभोगी बना है। श्रमिक वर्ग का मसला उन भारतीय राज्यों के लिए ज्यादा अहम हैं जिनके यहाँ प्रवासी श्रमिक ज्यादा संख्या में कार्यरत हैं। उदाहरण स्वरूप उत्तर भारत के श्रमिक भारत के तमाम राज्यों में रोजगार के लिए गए हुए हैँ। लेकिन इस महामारी ने तमाम औद्योगिक संस्थानों में ताला लगा दिया है। परिणामतः ये श्रमिक आज रोजगारहीन होकर दर-दर की ठोकरें खा रहें हैँ।
इस वैश्विक त्रासदी में उन श्रमिकों की स्थिति और दयनीय हो गयी है जो आर्थिक संसाधनों के अभाव में अपने गृह राज्यों की ओर वापस लौटने को मजबूर हैं लेकिन लॉकडाउन की वजह से वो बेघर और लाचार नजर आ रहें हैं|
इस संकट में सबसे ज्यादा प्रभावित बिहार राज्य के श्रमिक हुए हैं| बिहारी श्रमिक देश के तमाम राज्यों में फंसे हुए हैं लेकिन सरकारी उदासीनता और राजनीतिक षड्यंत्रों के कारण इनके भविष्य पर संकट के बादल मंडराते नजर आ रहे हैं ।
श्रमिकों में ज्यादातर समाज के निचले तबके से सम्बन्ध रखते हैं और ऐसे में उनकी स्थिति के बारे सोचना शायद अकल्पनीय है। इन श्रमिकों के साथ हो रहे इस अन्याय का जिम्मेदार आखिर कौन है? क्या वो राजनीतिक पार्टिया हैं जिनके लिए ये श्रमिक केवल एक वोट मात्र हैं या वो नौकरशाही है जो अपने जिम्मेवारियों को संवेदनशीलता से नहीं निभा रही हैं ।
दलित समुदाय कि छात्रा रश्मि भी दलित बच्चों के पढाई को लेकर चिंतित है वो कह रही है कि बहुजन समुदाय के लोगो को खाने कि दिक्कत हो रही है ऐसे में वह कहाँ से डिजीटल शिक्षा ले पायेंगें? वह कह रही है कि पैसो के अभाव के कारण आने वाले सत्र मे कई दलित बच्चे गरीबी के कारण स्कूल-कॉलेजों मे नामान्कन ही नही करा पायेंगें|
इन सारे अनुभवों को देखकर लगता है कि बहुजन समुदाय के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सन्तोषजनक नही है, कॉरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित बिहार राज्य के बहुजन है, जहाँ कभी कोई मुसहर बच्चे की भुख से मौत हो जाती हैं तो किसी जिले में बच्चे घास खाने को मजबूर है तो कही एमबुलेन्स ना पहुँचने के कारण बच्चे की मौत हो जाती है, तो कही डीलर अनाज वितरण से इंकार कर देता है, तो कई लोगो को राशन कार्ड होते हुए भी दबंगई के कारण राशन नहीं मिल पाता|
बिहार सरकार दुसरे राज्य के लोगों से अपील कर रही है कि उनके मजदूरों को खाना खिलाया जाए, इतने वर्ष बाद भी बिहार के लोग काम के लिये दुसरे राज्यो पर निर्भर हैं!
सभी राज्य सरकार और केन्द्र सरकार से निवेदन है कि किसी भी निर्णय लेने से पूर्व वन्चितो के बारे मे जरुर सोचे, देश की 70% आबादी बहुजन है, उन्हें भी महत्व दिया जाए| योजनायें केवल कागजों पर ही नहीं वास्तविक रुप से भी लागू हो| देश और राज्य के किसी भी निर्णय मे बहुजनो की राय जरूर शामिल हों और इसके लिए देश के बहुजन मिन्नत नहीं कर रहे बल्कि अधिकार स्वरूप बोल रहे हैं|
– ऋतु (लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय मे बिहार के डोम समुदाय पर शोध कर रही है)