अभी थोड़ी देर पहले पटना उतरा।उतरते कुछ दूर पैदल चलते एक टैम्पू को हाथ दे रोका। फिर 300 सौ से बात शुरु हो; एतना नही, तब छोड़ीये, भक्क नही, जाईए, नहीं होगा, नय सकेंगे की जिरह करते करते 130 रुपया में पटना रेलवे स्टेशन के लिये बैठा।
फिर मैनें फ़ोन जेब से निकाला और मित्र भाई कुमार रजत जी को लगाते हुए कहा “रजत भाई,घर पर हैं नहीं, यात्रा पे हैं, खरना का प्रसाद खिलवा दीजिये कहीं से। छठ है, बिना खरना के प्रसाद खाए मन नहीं मानेगा। गाँव कल ही पहुँच पायेंगे।” भाई ने तुरंत पता बताने को कहा “अरे रुकिये हम आते हैं।”
इतने में टैम्पू कुछ दूर चल चुकी थी। थोड़ी देर में मुझे लगने लगा कि ये रास्ता पटना स्टेशन तो नहीं जा रहा। मैनें थोड़ा परेशान मुद्रा में पूछा “ई किधर जा रहे हो भाई?” तब तक गाड़ी एक संकरी गली में घूस चुकी थी।दोनों तरफ झोपड़ीनुमा एक कमरे वाली तंग घरों की कतार।
ड्राईवर ने शायद मुझे परेशान होता समझ लिया था। एक जोरदार ब्रेक से टैम्पू रोका। “ऐ सर,डरिये नहीं। भरोसा करिये। कुछ लोग बदनाम किया है बिहार के। सब बिहारी एक्के जैसा नहीं होता है। कोय रिस्क नहीं है। ट्रस्ट कीजिये सर।”
मैनें कुछ समझे बिना पूछा “तो इधर कहाँ ले आये हो?”
ड्राईवर का जवाब सुनिए। उसने एक निश्छल सी मुस्कुराहट लिये कहा
“सर,आपको सुने फ़ोन पे कि आप खरना का प्रसाद नहीं खा पाये हैं। घर से बाहर हैं। त हम आपको अपने घर ले जा रहे। मेरा माँ किया है छठ। आपको परसादी खिला के फेर पहुंचा देंगे स्टेशन। ई रजेन्दर नगर का इलाका है। रजेन्दर नगर स्टेशन के पीछे का इलाका है। अगर भरोसा नहीं हो, तो चलिये छोड़ देते हैं।”
मैं अवाक था। सच बता रहा हूं, हाँ मुझे संदेह था। मन अब भी हिचक तो रहा था इतनी संकरी गली देख कर। लेकिन उसकी मुस्कुराहट और अपने प्रदेश और छठ को लेकर जो भाव चेहरे पे उभर रहे थे,उस पर भरोसा कर लेना ही मुझे ठीक लगा। मैनें एकदम से कहा “चलिये तब” .. और फिर भाई ने घर से तुरंत ला खरना का प्रसाद खिलाया।
मुझे नहीं पता वो किस जाति और किस हैसियत का आदमी था, मैं बस जानता था कि छठ है, ये बिहार है और वो आदमी है। छठ किसी को भी आदमी बनाए रखता है। छठ यही है। छठ असल में बिहार का समाज शास्त्र है। मैं आपको नहीं बता सकता कि हाथ में प्रसाद लिये मैं कितना धन्य था और वो ड्राईवर बिहार की मेजबानी और छठ के सामूहिकता, सामाजिक सरोकारिता, मानवता का सच्चा प्रतिबिंब रूप में खड़ा एक उदाहरण।
ये हैं छठ और ये है छठ होने की जरूरत
जिन बुद्धिजीवियों ने छठ में बस नाक भर सिंदूर ही देखा, असल में उन्होनें छठ कभी नहीं देखा। उन्हें छठ देखना चाहिये, अपने किताब और ग्रंथ भरे ड्राईंग रूम से बाहर निकल इस टैम्पु में भी बैठ देखना चाहिये छठ। ये है छठ।
जैसे पटना स्टेशन पहुंचा,भाई रजत जी भी खरना का प्रसाद लिये पहुँच चुके थे। आज से ज्यादा कभी नहीं खाया इतना प्रसाद और न इतना तृप्त।
जय हो छठ मैया!
– नीलोत्पल मृणाल (लेखक हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध युवा साहित्यकार हैं)