– बौआ रौ उठ, उठ ना.. भोर भ गेलै..
– ऊं.. हूँ.. ऊँ.. उठै छी..
– उठ जल्दी, नै ता केयो और बिछ लेतौ.. भोरे सँ सब फूल बिछअ लेल घुमैत रहै छी..
दुर्गा पूजा का टाइम रहता था.. सुबह का ठंडा इतना लगता था कि कम्बल पूरा शरीर में लपेट के मच्छरदानी में ओंघरा-पोंघरा के सोते रहते थे.. अभी अन्हरौका पूरा छाएले है.. महेन चा के गाय टुनुर-टुनुर घंटी बजा रही है.. माने चचा बाल्टी लेकर दूहने पहुँच गए है.. हल्का-हल्का कोहरा लगा हुआ है.. चचा पराती गा रहे हैं और घूरा जलाने के लिए पुआल का जुगाड़ भी देख रहे हैं.. ठंडी का मीठगर शुरुआत है ई.. हम कम्बल में थोड़ा-सा गरमाए ही थे कि दादी आकर उठाबे लगी.. पहीले ता हम पलंग के ई कोना से ऊ कोना में सरक गए.. उठे ता फिर तकिया पकड़ के सूत गए.. दादी अब गुस्सा के कम्बले उठा के फेंक दी..👵🏼😡
– भ गेलै, बिछा गेलै आब फूल..! ल गेलौ पछियारी टोल वाली सब फूल बीछ क..!
हम कम्बल फेंके आ तुरत फूलडाली लेकर दरवाजे पर दौड़ गए.. सिंगरहार का फूल नहीं बिछने देंगे किसी को.. सिंगरहार माने हरसिंगार.. गुलाब तोड़ लेगा, कनैल तोड़ लेगा, अड़हुल तोड़ लेगा, कोनो बात नहीं.. अरे भगवाने का पूजा करेगा ना जी.. फूल हमारा रहेगा तो भगवान् हमरे असीरबाद देंगे.. लेकिन सिंगरहार का फूल..! ना-ना-ना, ई नहीं बीछे देंगे.. सिंगरहार फूल मात्र नहीं है.. कभी धरती पर बिखरा सिंगरहार देखे हैं..? सुबह का ओस, हल्का-हल्का कुहासा आ धरती पर बिछाएल सिंगरहार.. अइसा लगता है जइसे दुर्गा माता का सवारी आ रहा है आ उनकर स्वागत में प्रकृति रानी अपने हाथ से अच्छत-गंगाजल छींट धूपबत्ती जलाए बैठल हैं..! कभी सांझ चाहे रात में सिंगरहार गाछी के बगल से गुजर जाइए, सुगंध से मन महमहा जाएगा.. ई गंध बारहों महीना नहीं मिलेगा.. ई सुंदर दृश्य बारहों महीना नहीं दिखेगा..
सिंगरहार आ ओकर गंध हमको याद दिलाता है अपना गाँव का, दुर्गा पूजा का, दिवाली-छठ का, कोजगरा का.. अप्पन मिथिला का..
हम एक तरफ से फूल बीछ-बीछकर रख रहे हैं आ दादी अब अड़हुल फूल तोड़ रही हैं.. इसमें से थोड़ा फूल घर के मन्दिर में रखाएगा आ ज्यादा फूल दुर्गा-पूजा वाला मन्दिर में जाएगा.. फूल बीछते-बीछते ओस से हाथ कनकना गया.. हम फूलडाली रखे दादी के पास आ दौड़ गए महेन चा के दलान पर.. चचा गाय दूह लिए हैं, आग जलाकर दुन्नू हाथ सेंक रहे हैं.. अगल-बगल में दू ठो बुजुर्ग और बैठकर आग को लकड़ी लेकर खोद रहे हैं..! महेन चा खैनी रगड़ते हुए बोले..🔥🔥
– का जी, भोरे उठ गया आज..? बिछा गया फूल.? आओ तुमको गैया का ताजा दूध पिलाते हैं..!!
समय कितना तेजी से बीत गया.. दिल्ली, महाराष्ट्र के बाद अब मध्य-प्रदेश में हैं.. घर छोड़े आठ साल हो गया.. कितना दुर्गा पूजा बीत गया, कितना दिवाली आ कितना छठ..! कल सुबह अमूल वाला दूध पोलोथिन में लटकाकर ला रहे थे.. एक पार्क के बगल से गुजरे ता बड़ा जाना-पहचाना सुगंध आया.. पैर अपने आप रुक गया.. अरे ई ता सिंगरहार का फूल है..! मन हुआ कि बीछ लें जाकर.. एक बार फिर पहुँच गए पन्द्रह साल पीछे.. अपने गाँव, जहाँ दुर्गा पूजा शुरू हो गया होगा.. फिर से सिंगरहार बिछ गया होगा.. महेन चा अभियो भोरे उठने में हर दिन की तरह सुरुज देवता को पछुआते होंगे.. आ दादी? दादियो हम्मर सिंगरहार के तरह एक दिन धरती पर बिछ गयीं.. हम दादी को बीछकर रख नहीं पाए.. प्रकृति रानी उनकरा को अपने पास बुला ली.. बस बचा ता खाली आंसू आ अगरबत्ती का धुआँ..!!😢😢
– अमन आकाश