15 अप्रैल 1917 को चंपारण आन्दोलन के दौरान जब गाँधी चंपारण आये तो केवल राजनीतिक गुलामी का ही वीभत्स रूप नही देखा। गाँधी ने क्षेत्र की समस्याओं को सामाजिक नजरिये से भी देखने समझने की कोशिश की। चंपारण के इलाके में गाँधी का सामना अशिक्षा, गरीबी, गंदगी जैसे चीजों से भी हुआ, जो गाँधी के मन को कचोटते थे।
गाँधी ने राजनीतिक सत्याग्रह के साथ साथ ग्रामीण बदहाली के जिम्मेवार अशिक्षा और गंदगी को भी समाप्त करने का प्रयास शुरू किया। इसके लिए उन्होंने इस क्षेत्र में स्कूल खोलने की योजना बनाई।
13 नवंबर 1917 को मोतिहारी के बरहरवा लखनसेन में गाँधी ने पहले स्कूल की बुनियाद रखी। इसी गांव के रहने वाले बाबू शिवगुण मल ने अपने घर में स्कूल खोलने के लिए जगह दिया। उस वक़्त गाँधी के एक अनुयायी बबन गोखले, जो पेशे से इंजीनियर थे, ने उस स्कूल की व्यवस्था संभाली। गोखले की पत्नी अवंतिका बाई गोखले और गाँधी के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी विद्यालय में पठन-पाठन की जिम्मेदारी सँभालते थे।
बाद में 20 नवंबर 1917 को पश्चिम चंपारण के भितिहरवा में भी एक विद्यालय की स्थापना हुई। यहां विद्यालय के लिए ज़मीन एक मंदिर के साधू ने उपलब्ध कराई थी। इस विद्यालय को चलाने की जिम्मेदारी एसएल सोमन, बीबाइ पुरोहित और गाँधी की पत्नी कस्तूरबा को सौंपी गई थी। एक और विद्यालय की स्थापना 17 जनवरी, 1918 को मधुबन में हुई।
गाँधी बुनियादी शिक्षा के अपने सोच के प्रति बहुत गंभीर भी थे। चंपारण से जाने के बाद भी वे बुनियादी शिक्षा की अपनी सोच के साथ बने और उसे सार्वजनिक मंचों पर साझा करते रहे।
कांग्रेस के 1935 के वर्धा सम्मलेन में भी बुनियादी विद्यालय की वकालत करते गाँधी दिखे थे। बाद के दौर में गाँधी जब दुबारा चंपारण की धरती पर वर्ष 1939 में आये तो अपने हाथों से पश्चिमी चंपारण के बृन्दावन में बुनियादी स्कूल की नीवं रखी। बाद के दिनों में कई और बुनियादी विद्यालय खुले। ऐसे विद्यालय ‘महात्मा के स्कूल’ के रूप में प्रचलित भी हुए। आज बिहार में ऐसे 391 विद्यालय है, जिनमें अकेले पश्चिमी चंपारण में ही 43 है।
बुनियादी स्कूल के पीछे गाँधी की सोच
गाँधी बुनियादी स्कूलों के जरिये एक ऐसा प्रयोग करना चाहते थे, जिससे समाज के नौनिहाल पढ़ने लिखने के साथ साथ स्वाबलंबी भी हो सकें और शारीरिक मेहनत की महत्ता भी समझ सकें। गाँधी को यह लगा कि विद्यालयों में होने वाले पारंपरिक शिक्षण में बदलाव की आवश्यकता है। वे मानते थे कि विद्यालय में ज्ञान अर्जित करना ही बच्चों का केवल लक्ष्य न हो बल्कि शिक्षण की विधियों में शारीरिक श्रम से जुड़ी गतिविधियाँ भी शामिल हो।
गाँधी के मॉडल में विद्यालयों में श्रम की महत्ता समझाने के लिए काश्तकारी, बागवानी, किसानी जैसे विषय थे तो दूसरी ओर सभी बच्चों को बेहतर माहौल में अच्छी शिक्षा मिले, ऐसे विद्यार्जन की पाठशाला बनाने की सोच भी बुनियादी विद्यालय की परिकल्पना में शामिल था।
शिक्षा के क्षेत्र में गतिविधि आधारित शिक्षण की बहुत बात होती है। इस बात को गाँधी ने लगभग सौ वर्ष पहले महसूस किया और यह अनुभव किया कि विद्यार्थियों के सीखने की प्रक्रिया में ‘करके सीखना’, ‘अनुभव द्वारा सीखना’ तथा ‘क्रिया के माध्यम से सीखना’ शामिल होना ही चाहिए।
18 फरवरी 1939 को गाँधी हरिजन पत्रिका में लिखते है कि बच्चों के लिए मात्र पुस्तक-ज्ञान में इतना खिंचाव नही होता है कि वह हर समय किताब में ही घुसा रहे। शब्दों को देख-देखकर दिमाग ऊब जाता है और बच्चे का मन इधर-उधर भटकने लगता है। जो शिक्षा हमें भले और बुरे में फर्क करना नही सिखाती , भलाई को आत्मसात करना और बुराई से दूर रहना नही सिखाती है, वह शिक्षा गलत है। बस नाम की शिक्षा है।
उनकी सोच थी कि बुनियादी शिक्षा के तहत सीखने की विधि में समस्त विषयों की शिक्षा किसी कार्य या हस्तशिल्प के माध्यम से दिया जाए। कृषिप्रधान देश में सीखने का जरिया कैसा हो, इस विषय पर गाँधी मानते थे कि सीखने की प्रक्रिया कृषि से जुड़े कार्य, कताई, बुनाई, लकड़ी- मिट्टी का काम, मछली पालन, फल और सब्जी की बागवानी तथा स्थानीय एवं भौगौलिक आवश्यकताओं के अनुकूल हस्तशिल्प से जुड़े हो।
गाँधी के बुनियादी शिक्षा की सोच को अगर संक्षेप में दो बिन्दुओं में कहना हो तो वे चाहते थे कि
(1) ज्ञान को कार्य के साथ जोड़ा जाए जिससे विद्यार्थियों के दिमाग का समग्र और व्यवस्थित विकास हो सकें।
(2) स्कूलों को उत्पादक कार्यों से होने वाली आय के जरिये आत्मनिर्भर बनाया जाए और इसके साथ साथ विद्यार्थियों के भी क्षमता संवर्धन का काम हो जिससे की वह आत्मनिर्भर होकर गरिमापूर्ण जीवन जी सकें।
गाँधी के पहले विचार को 1944 में आई सार्जेंट रिपोर्ट में भी सराहा गया, लेकिन दुसरे सुझाव को अव्यवहारिक बताया गया। जाहिर है अंग्रेज भी बुनियादी शिक्षा मॉडल से कुछ हद तक सहमत थे। असहमति के विषय को गहराई में जाकर सोचे तो गाँधी ने इस बात को भांप लिया था कि शिक्षा सरकार का विषय होगा तो ग्रामीण शिक्षा की स्थिति नही सुधरेगी। इसलिए शिक्षा सरकार का न होकर समाज का विषय रहे। विद्यालय व बच्चों की जरूरतों की चिंता समाज के साथ साथ विद्यालय-विद्यार्थी स्वयं एक व्यवस्था बनाकर करें।
गाँधी चाहते थे कि बच्चें न केवल अच्छी शिक्षा प्राप्त करें बल्कि वह शिक्षा प्राप्त करते समय आस-पास की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों से भी रुबरु हो। वह पढ़ लिखकर देश-समाज के अनुकूल कार्य करने की योग्यता और अनुभव प्राप्त कर सकें। स्व-रोजगार के जरिये स्वाबलंबन का रास्ता चुनने में उसे कोई हिचकिचाहट न हो। समाज में पढ़ा-लिखा वर्ग भी शारीरिक श्रम से धन अर्जित करना अपमान अथवा स्वयं को निम्न श्रेणी का न समझ उसमें सम्मान का भाव महसूस करें। इसके साथ ही विद्यालय समाज के सहयोग, समाज की निगरानी और समाज के नेतृत्व में ही चले।
गाँधी की सोच के पीछे भविष्य के भारत की वह डरावनी छवि ही रही होगी, जहाँ एक तरफ ग्रामीण शिक्षा की हालत ख़राब होती दिख रही होगी, शहरीकरण गाँव के खालीपन का वजह बन रही होगी, वही दूसरी तरफ गाँव की समूची अर्थव्यवस्था चौपट होने के कगार पर होगी और लोगों में शारीरिक श्रम करनेवाले लोगों को हेय दृष्टि से देखने की प्रचलन बढ़ रही होगी।
अब देखिये न, अब स्थिति ऐसी हो गई है कि मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग ‘छोटे’ अथवा ‘सम्मान योग्य’ नही समझे जाते, वही सूट-बूट धारी, कलम चलाने वाले बाबु अथवा धौंस ज़माने वाले अफ़सर का समाज अधिक सम्मान करता है।
आज गाँव के गाँव खाली हो रहे है। कुशल कारीगरों की गाँव में बेहद कमी हो गई है। पढ़े लिखे लोग गाँव में रहना नही चाहते क्योंकि पढ़-लिखकर शारीरिक श्रम से जुड़ा कार्य करना स्वयं को नीचा दिखना लगता है। NCERT के वर्ष 2007 में “वर्क एंड एजुकेशन” विषय पर बने राष्ट्रीय फोकस समूह ने अपनी प्रस्तावना में एक और महत्वपूर्ण विषय की तरफ ध्यान आकृष्ट कराया था. इसमें मध्य-उच्च वर्गीय परिवारों के बच्चों में अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटने और शैक्षिक व्यवस्था द्वारा इस प्रक्रिया को बढ़ाने और तेज करने की समस्या को रेखांकित करते हुए इसे हल करने की आवश्यकता पर बल दिया गया था।
आज पढ़े-लिखे लोगों को गाँव में कोई स्तरीय रोजगार नही मिलता क्योंकि जो काम वहां उपलब्ध है उसमें शरीर का मेहनत अनिवार्यतः शामिल है। यहाँ पर एक चीज को समझना अत्यंत आवश्यक है कि गाँधी की इस शैक्षिक योजना के पीछे पुश्तैनी पेशे के विचार को जबरदस्ती आगे बढ़ाने पर जोर देना नही था, बल्कि शारीरिक श्रम के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना था। आज गांवों में कितने लोग है जिन्होंने अपने पुश्तैनी पेशे को आज भी अपना रखा है?
अनुभव बताता है कि लोग लगातर अपने पुश्तैनी पेशे को छोड़ रहे है। छोड़ने के पीछे कई वजह रही है, लेकिन सबसे बड़ी वजह उस पेशे के प्रति समाज में बनी धारणा ज्यादा जिम्मेवार है जो कही न कही असम्मान अथवा जातिसूचक पहचान व उसके साथ जुड़े इतिहास की याद दिलाता है।
इसके बावजूद यह स्थिति कतई सुखद नहीं कही जा सकती कि गाँव की जरूरतों की पूर्ति शहरी तरीकों से हो। आज जो शब्द स्किल डेवलपमेंट के नाम से मशहूर हुआ है, गाँधी इस स्किल को शिक्षा के साथ-साथ विकसित करने की दिशा बोध 1917 में ही करा चुके थे। लेकिन दुर्भाग्य है कि स्किल डेवलपमेंट का मॉडल भी लोगों को रोजगार दिलाने के नामपर गाँव छोड़ शहर जाने पर मजबूर कर रही है, वही शिक्षा का आधुनिक मॉडल गाँव-समाज की जरूरतों और अपेक्षाओं की पूर्ति करने में नाकाम साबित हो रहा है ।
वैसे में जब शिक्षा व्यवस्था पढ़े-लिखे को गाँव से जोड़ने की वजाए उसे गाँव छोड़ने को मजबूर कर रही हो, गाँधी के इस बुनियादी शिक्षा मॉडल को दुबारा नए सिरे से परखने, आजमाने की जरुरत है।
गाँधी ‘मेरे सपनों का भारत’ में युवाओं को संबोधित करते हुए लिखते है, ‘हम लोगों को मौजूदा ग्राम-सभ्यता ही कायम रखना है और उसके माने हुए दोषों को दूर करने का प्रयत्न करना है। मैं उन दोषों का इलाज सुझा सकता हूँ। लेकिन इन इलाजों का उपयोग तभी हो सकता है जब कि देश का युवक-वर्ग ग्राम-जीवन को अपना लें। और अगर वे ऐसा करना चाहते हों तो उन्हें अपने जीवन का तौर तरीका बदलना चाहिए और अपनी छुट्टियों का हर एक दिन अपने कॉलेज या हाई स्कूल के आसपास के गांवों में बिताना चाहिए।’ गाँधी आगे लिखते है, ‘शारीरिक श्रम के साथ अकारण ही जो शर्म की भावना जुड़ गई है वह अगर दूर की जा सके तो सामान्य बुद्धि वाले हर एक युवक और युवती के लिए उन्हें जितना चाहिए उससे कहीं अधिक काम पड़ा हुआ है।’
गाँधी के ये शब्द और बुनियादी शिक्षा के पीछे की सोच एक दुसरे से जुड़े हुए है और आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है।
[यह इस लेख का पहला भाग है. दुसरे भाग में बिहार के बुनियाद स्कूल के बारे बताया जायेगा.]
– अभिषेक रंजन (लेखक गाँधी फेलो रह चुकें हैं)
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