काको की दरगाह से इंसानियत और मोहब्बत का पैगाम मिलता है।
हिन्द के राबिया बसरी से मारूफ वलिया हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की आस्ताने काको में है जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल के लिए जाना जाता हैं। इस धार्मिक स्थल पर मुस्लिमों की तरह ही हिन्दू भी बड़ी संख्या में हाजिरी लगाने पहुंचते हैं। हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहजीब और सूफी धारा को आगे बढ़ाने में हजरत मखदूमे बीबी कमाल अलैहि रहमा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है।
हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के आस्ताने में मजहब और धर्म की दीवार कोई मायने नहीं रखती यहाँ लोंगो का सिर्फ एक ही मजहब है और वह है इंसानियत। ऐसी मान्यता है कि हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के आस्ताने पर मांगी गई हर वाजिफ मुराद जरूर पूरी हो जाती है। वर्ष 1174 में हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा अपनी पुत्री हज़रत दौलती बीबी के साथ काको पहुंची थीं। यहां आने के बाद से ही वह काको की ही रह गई।
सबसे ख़ास बात, गंगा- जमुनी तहजीब का ये मंज़र है, जिसकी, आज इस ज़माने में सख़्त ज़रूरत है। यहाँ न सिर्फ उर्स के मौके पर बल्कि रोज़ मुख़तलिफ़ मज़हब के लोग अपनी अक़िदत के फूल चढाते हैं और मन्नतें मांगते हैं। जुमेरात को सभी मज़हब और समाज के अक़िदतमंद जमा होते हैं जिससे यहाँ छोटे-मोटे मेले जैसा नज़ारा होता है। जुमेरात और सालाना उर्स के अलावा,साल मे दो बार, बड़ी तादात में लोग यहाँ आते हैं जिसमें 50 फ़ीसदी हिन्दू होते हैं। हजरत बीबी कमाल के मजार का काफी पुराना इतिहास है। पिछले 8 साल से प्रतिवर्ष इस मजार पर सूफी महोत्सव का आयोजन हो रहा है। सरकार ने इसे सूफी सर्किट का दर्जा दिया है।
अफगानिस्तान के कातगर निवासी हजरत सैयद काजी शहाबुद्दीन पीर जगजोत की पुत्री तथा सुलेमान लंगर रहम तुल्लाह की पत्नी थी। हज़रत क़ाज़ी शेख शहाबुद्दीन आम लोगों में पीर जगजोत के नाम से जाने जाते हैं। न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे हिन्दूस्तान के बड़े सूफीयों मे एक हैं।
हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत की पैदाइश आज से लगभग साढ़े आठ सौ साल पहले 570 हिजरी ,सन् 1151ईसवी में हुइ। उनकी जो वंशावली मिलती है उसके अनुसार वह ‘हुसैनी सादात’ हैं और उनकी वंशावली 16 पीढ़ियो के बाद हज़रत इमाम हुसैन से मिल जाती है। काश्गर के सुल्तान मुहम्मद ताज आपके वालिद थे। मौजूदा काश्गर,कर्गिस्तान,तज़ाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की सरहद के बीच चीन की एक रियासत है जहां इस्लाम मज़हब मानने वाले अकसरियत में हैं। काश्गर के सुल्तान के घर पैदा होने वाले इस शहज़ादे के लिए ख़ूब ख़ुशियाँ मनाई गयीं। काश्गर के आलिम अबुल हसन अली अंसारी समरकंदी की राय से बच्चे का नाम शहाब उद्दीन रखा गया। बुनियादी तालीम हासिल करने के बाद शहाब उद्दीन संजार चले गये जहां हज़रत मख़दूम नज्म उद्दीन कुबरा की देख रेख में आगे की तालीम हासिल की। तालीम पूरी होने पर वापस अपने वतन लौट गये।
काश्गर में उनके वालिद ने अपने रिश्तेदार काज़ी सैयद वजीह उद्दीन की बेटी मलका ख़ातून से उनकी शादी कर दी,तालीम और क़ाबिलयत को देखते हुए काज़ी उल क़ाज़ात के ओहदे पर रखा। अब शहाब उद्दीन का दिल दुनियां के कामों में बिल्कुल नहीं लगता था। वालिद के इन्तेक़ाल के बाद हुकुमत की बागडोर भी संभालनी पड़ी, लेकिन कुछ ही अर्से बाद हुकुमत छोड़ कर अपने उस्ताद की ख़िदमत में हाज़िर हो गये और उनसे बैयत करनें के बाद अहिस्ता अहिस्ता इल्म और ख़िदमत के रास्ते पर चलते हुए अल्लाह के करीब होते गये।
कुछ दिनों बाद शहाब उद्दीन बल्ख़ शहर आए जहां से हज़रत उमर अबु हफ़स से सिलसिला सुहरवर्दिया में काम करने की इजाज़त लेकर लाहौर के रास्ते बिहारशरीफ़, मनेरशरीफ़ और उसके बाद पटना में जेठली आ गये। बिहार शरीफ और मनेर शरीफ में स्थापित आप के वंशजो के अनुसार आपक आध्यात्मिक गुरू पीर व मुर्शिद शेख शहाब उद्दीन सुहरवर्दी (बगदाद, इराक) थे। परिवार के साथ पहले लाहौर गये और फिर मनेर शरीफ पहुँचे। कुछ दिनों तक मनेर शरीफ मं रूकने के बाद पटना में सबलपुर से आगे (वर्तमान जेठली) पहुँच गये। ये वह ज़माना था, जब बख्तियार खिलजी यहाँ का शासक था।
कुछ इतिहासकार ने “पीर जगजोत के एक बेटे का जिक्र किया है। मगर मशहूर ये है कि उनकी केवल 4 बेटियाँ थीं। हज़रत मखदूम काजी शहाब उद्दीन न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे भारतीय उप महाद्वीप के महत्त्वपूर्ण सूफिय में से एक है। आपका संबंध सूफ़ियों के सुहरवर्दी सिलसिले से है जो ईश्वर से मुहब्बत का एक विशेष सिलसिला हैं, इसकी शाख़ फ़िरदौसिया भी है, जिससे प्रख्यात सूफी हजरत मखदूम जहाँ शेख शर्फ उद्दीन अहमद (बिहार शरीफ) का संबंध है।
ये भी माना जाता है कि बिहार में सूफीवाद की एक उप शाखा ‘कुमैलिया’ का आरम्भ भी इन्हीं से हुआ।
हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत अलैह की लगभग 96 साल की उम्र में 21 ज़ी क़ादा,666 हिजरी,सन् 1247 ईसवी में हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत इस दुनियां से रुख़सत हुए और जेठली में गंगा नदी के बिल्कुल किनारे तत्फ़ीन की गयी। हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत रहमतुल्लाह अलैह का मज़ार पटना शहर से 10 किलोमीटर पूरब फ़तूहा के क़रीब बंका घाट रेलवे स्टेशन के पास जेठली में है और कच्ची दरगाह के नाम से मशहूर है।
पहली बेटी हजरत सैयदा बीबी रज़िया, जिनकी शादी हज़रत मखदूम यह्या मनेरी से हुई, जिनसे 4 लड़के पैदा हुए। हज़रत मखदूम शर्फ उद्दीन अहमद (बिहार शरीफ), हज़रत मखदूम शेख जलील उद्दीन, हज़रत शेख़ ख़लील उद्दीन और मखदूम शेख हबीब उद्दीन। दूसरी बेटी हजरत सैयदा बीबी हबीबा की शादी शेख सैयद मूसा हमदानी से हुई जिनसे एक लड़का शेख अहमद चरम पोश (अम्बर शरीफ, बिहार) पैदा हुए। तीसरी लड़की हज़रत सैयदा बीबी कमाल की शादी हजरत मखदूम सुलेमान लंगर जमीन जिनका संबंध मनेरी से था, के साथ हुई जिनसे दो औलादें मखदूम शाह अताउल्लाह (लड़का) और बीबी दौलत (लड़की) हुई। बीबी कमाल खुद भी एक बड़ी सूफी व वलिया थीं। उनका मजार काको शरीफ आज भी आम व्यक्तियों का दर्शन स्थल है और लोग यहाँ आकर कई प्रकार की बीमारियों से छुटकारा पाते हैं। यह भी कहा जाता है कि पीर जगजोत अपनी इस बेटी से मिलने कई बार काको आये और कुछ दिनों तक यहाँ रूकते थे।
अपनी चौथी और सबसे छोटी लड़की सैयदा बीबी जमाल की शादी आपने हज़रत शेख हमीद उद्दीन चिश्ती से की जो मशहूर सूफी आदम चिश्ती, जिनका मज़ार हाजीपुर में है, आप उन्हीं के सुपुत्र थो उनसे सिर्फ हज़रत मखदूम तैय्यम उल्लाह सफेद बाज पैदा हुए। इस तरह से देखा जाए, तो भारतीय महाद्वीप के विख्यात सूफी संतो की एक श्रृंखला इस सूफी परिवार का हिस्सा रही है। ऐसे अवसर कम ही होगं जब एक दर्जन से अधिक जाने माने सूफी संत एक ही युग में एक ही परिवार का भाग रहे हों। मगर हज़रत पीर जगजोत के परिवार में एक ही समय में ऐसे 14 सूफी मौजूद थे जो अपनी-अपनी विशेषताओ और ज्ञान की बुनियाद पर आज भी महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।
हज़रत सैय्यदा मख़दूमा बीबी कमाल अपने वक़्त की बड़ी सूफ़ी रहीं। बीबी कमाल की दरगाह काको जहानाबाद में है। इस इलाके का नाम पहले कुछ और था मगर हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की के एक करिश्मे के बाद काको हुआ। मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह रात भर जाग कर इबादत किया करती थी। जो आपसे मिलने आता,उसे भी पाक ज़िन्दगी जीने और पावंदी से नमाज़ पढ़ने की ताकीद किया करती थी ।
बड़े ख़ुश मिज़ाजी से मिलती थी और आने वाले की ख़ूब इज्ज़त करती थी। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की बुलंद शख़सियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपके ख़ानदान मे 14 सूफ़ी मौजूद थे। हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत रहमतुल्लाह अलैह की संझली बेटी बीबी कमाल बड़ी सूफ़ी रहीं हैं। बड़ी बेटी बीबी रज़िया के बेटे और आपके नाती,हज़रत शेख़ शरफ़ उद्दीन अहमद मनेरी,मख़दूमे जहां हूए।
बीबी कमाल बिहारशरीफ के हजरत मखदुम शर्फुद्दीन बिहारी याहिया की काकी भी थी। सूफियों ने एकता अखंडता कि शिछा हर समय में दी। देश की पहली महिला सूफी संत होने का गौरव भी इन्हीं को प्राप्त है। फिरोजशाह तुगलक जैसे बादशाह ने भी बीबी कमाल को महान साध्वी के तौर पर अलंकृत किया था। इनके मजार पर शेरशाह , जहां आरा जैसे मुगल शासक भी चादरपोशी कर दुआएं मांगी थी। महान सूफी संत बीबी कमाल के मजार पर लोग रुहानी इलाज के लिए मन्नत मागते व ईबादत करते हैं। जनानखाना से दरगाह शरीफ के अंदर लगे काले रंग के पत्थर को कड़ाह कहा जाता है। यहां आसेब जदा और मानसिक रुप से विक्षिप्त लोग पर जूनूनी कैफियततारी होती है। दरगाह के अंदर वाले दरवाजे से सटे स्थित सफेद व काले पत्थर को लोग नयन कटोरी कहते हैं। यहां चर्चा है कि इस पत्थर पर उंगली से घिसकर आंख पर लगाने से आंख की रोशनी बढ़ जाती है। सेहत कुआं के नाम से चर्चित कुएं के पानी का उपयोग फिरोज शाह तुगलग ने कुष्ठ रोग से मुक्ति के लिए किया था।
दरगाह से कुछ दूरी पर वकानगर में बीबी कमाल के शोहर हजरत सुलेमान लंगर जमीं का मकबरा है। आईने अकबरी में महान सूफी संत मकदुमा बीबी कमाल की चर्चा की गयी है जिन्होंने न सिर्फ जहानाबाद बल्कि पूरे विश्व में सूफियत की रौशनी जगमगायी है। इनका मूल नाम मकदुमा बीबी हटिया उर्फ बीबी कमाल है। कहते हैं कि उनके पिता शहाबुद्दीन पीर जराजौत रहमतूल्लाह अलैह बचपन में उन्हें प्यार से बीबी कमाल के नाम से पुकारते थे। बाद में वह इसी नाम से सुविख्यात हो गईं। बताते हैं कि बीबी कमाल का जन्म 1211 ई. पूर्व तुर्कीस्तान के काशनगर में हुआ।
बीबी कमाल अपनी पुत्री दौलती बीबी के साथ काको पहुंची थीं। बीबी कमाल में काफी दैवीय शक्ति थी। कहा जाता है कि एक बार जब बीबी कमाल काको आयी तो यहां के शासकों ने उन्हें खाने पर आमंत्रित किया। खाने में उन्हें चूहे और बिल्ली का मांस परोसा गया। बीबी कमाल अपने दैवीय शक्ति से यह जान गयी कि प्याले में जो मांस है वह किस चिज का है। फिर उन्होंने उसी शक्ति से चूहे और बिल्ली को निंदा कर दी। बीबी कमाल एक महान विदुषी तथा ज्ञानी सूफी संत थीं जिनके नैतिक, सिद्धांत, उपदेश, प्रगतिशील विचारधारा, आडम्बर एवं संकीर्णता विरोधी मत, खानकाह एवं संगीत के माध्यम से जन समुदाय तथा इंसानियत की खिदमत के लिए प्रतिबद्ध एवं समर्पित थीं।
हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की शख़सियत आम लोगों पर गहरा असर रखती थी। खुद बहुत साफ-सुथरा और पवित्र वस्त्र पहना करती थी। मगर कभी किसी के सामने खुद को बड़ा सिद्ध करने की कोशिश नहीं करती थी। महेमानो से बहुत नम्रतापूर्वक मिलते और आदर सम्मान में कोई कमी नही रखते थी। सादा खाना खाते और अल्लाह का शुक्र अदा करती थी। मगर अमीर व्यक्तियों से अधिक प्रभावित नहीं होते थी। अधिकतर अल्लाह की याद में दुनिया से गाफिल रहती थी मगर जब काई ज़मीनी या आसमानी आफत आने वाली होती, तो आपको पहले से अंदाजा हो जाता था और आप उस समय तक बेचैनी के साथ अल्लाह से दुआ करती रहती थी, जब तक वह दूर न हो जाती। इसी प्रकार जब कोई मेहमान आपसे मुलाकात के लिए आने वाला होता, तो तो आपको पहले से खबर हो जाती। लगभग 1296 ई0 पूर्व में आपने इस दुनिया को छोड़कर सदा रहने वाली दुनिया का सफर इख़्तियार किया काको पनिहास के बिल्कुल किनारे तत्फ़ीन की गयी।
यहाँ आने वाले लोगों की अक़िदत और एहतराम को देख कर ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की सदियों से इनकी संस्कृति,संस्कार और तहज़ीब का हिस्सा हैं। जहानाबाद जिले के काको स्थित हजरत बीवी कमाल की मजार बिहार के ऐतिहासिक पुरातात्विक धर्मिक औरसाम्प्रदायिक सद्भाव केन्द्रों में एक है। काको स्थित बीबी कमाल के मजार से 14 कोस दूर बिहारशरीफ में उनकी मौसी मखदुम शर्फुद्दीन यहिया मनेरी का मजार है। ठीक इतनी ही दूरी पर कच्ची दरगाह पटना में उनके पिता शहाबुद्दीन पीर जगजौत रहमतुल्लाह अलैह का मजार है। हिन्द के राबिया बसरी से मारूफ वलिया हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के सालाना उर्स के मौके पर भी मुरीदों का हुजूम उमड़ता है।
हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के सालाना उर्स के 19- 20 सितंबर 2019 को आयोजित किया गया है। लोगों की आस्था इतनी बढ़ गयी कि बीबी कमाल के गुजर जाने के बाद आज भी बीबी कमाल का मजार हिंदुओं की और मुसलमानों के इबादत का केंद्र बना हुआ है। काको शरीफ जो बिहार की राजधानी पटना से 50 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है यह बिहार में सूफीवाद का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे पुराने केंद्र में एक है। विश्व के प्रथम महिला सूफी संत बीबी कमाल का यह मजार बिहार के जहानाबाद रेलवे स्टेशन से पूरब बिहारशरीफ जानेवाली सड़क मार्ग पर काको में स्थित है। जहानाबाद मुख्यालय से इसकी दूरी 8 किलो मीटर के करीब है।
हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के आस्ताने पर सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में तिलावते कुरान के साथ लोगों देश में अमन और चेन की दुआएं मांगी जाती है। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के आस्ताने में मजहब और धर्म की दीवार कोई मायने नहीं रखती यहाँ लोंगो का सिर्फ एक ही मजहब है और वह है इंसानियत। यह आस्ताने हर उस इंसान की पनाहगाह है जो मुश्किलों और वक़्त का मारा है जश्न ए चिरागा में शामिल होने के लिए हिन्दू- मुस्लिम सभी धर्मों के लोग बड़ी संख्या में में आते हैं और मन्नतों के चिराग रोशन करते हैं। दो दिवसीय सूफी महोत्सव के पहले दिन दरगाह कमेटी की ओर से चादरपोशी फातेहा उर्स आदि आयोजित किए जाएंगे। कमेटी के सज्जादा नशीं सैय्यद शाह मोहम्मद सदररूद्दीन के नेतृत्व में पहले दिन का सलाना जलसा आयोजित होगा। उन्होंने बताया कि विशेष पकवान के रूप में गुड़ की खीर पकायी जाती है। फातेहा के बाद अकीदतमंदों में उसका वितरण मिट्टी के बर्तन ‘ढकनी’ में किया जाता है।
हिन्द के राबिया बसरी से मारूफ वलिया हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के सालाना उर्स में शामिल होने के लिए देश के कोने कोने से तो मुरीद पहुंचते ही हैं साथ ही विदेशों से भी लोग इस रस्म में शामिल होने के लिए आते हैं। इस उर्सोत्सव में बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश झारखंड बंगाल महाराष्ट्र व नेपाल के विभिन्न शहरों से अकीदतमंद शिरकत करने पहुंचते हैं। अगले दिन 20 सितंबर को पर्यटन विभाग व जिला प्रशासन की ओर से सूफी महोत्सव आयोजित किया जाता है।
हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा ए कमेटी के सज्जादा नशीं के अनुसार यहाँ ये सिलसिला 500 वर्षो से ये सिलसिला अनवरत चल रहा है। 500 सदी पुरानी इस दरगाह हैं। यह एक ऐसी रूहानी जगह है जहाँ सभी को दिली सुकून मिलता है। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा दरगाह की सबसे बड़ी ख़ास बात यह है कि यहाँ मुस्लिम समाज के लोंगों से ज्यादा हिन्दू समाज के लोग अकीदत रखते हैं और हर दिन यहाँ सैकड़ों लोग हाजिरी लगाते हैं उनमे ज्यादा संख्या हिन्दू समाज के लोंगों की होती है। दरगाह के प्रबंधक भी यही मानते हैं की दरगाह की स्थापना भाईचारा और सुफियिज्म को बढावा देने के लिए की गयी थी जो यहं भली भाती दिखाई देता है। सूफी संगीत से जुड़े तमाम नामचीन फनकार हर साल यहाँ हाजिरी लगाने पहुंचते है। सूफीवाद के प्रेम व मोहब्बत के पैगाम के सहारे सूबे को विकास के रास्ते मंजिल तक पंहुचा जा सकता है। यह एक ऐसी विचारधारा है जहां सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत व प्रेम है।
इसी विचारधारा से राज्य देश और यहां तक कि पूरी दुनिया का कल्याण संभव है। यहां की धरती सूफी संतो की महान परंपरा से भरी पड़ी है। सूफी विचारों के आदर्श से नई पीढि़ को अवगत कराने के लिए सरकार ऐसे महोत्सवों का हर साल आयोजन कराती है। जहानाबाद जिले के काको से सूफी महोत्सव की शुरुआत 2011 हुई है। बिहारशरीफ में आयोजित सूबे का दूसरा सूफी महोत्सव है मनेर महोत्सव तीसरा है। सूफी शिक्षा से जुड़े लोगों वुद्धिजीवियों को सूफी महोत्सव काको में आमंत्रित किया जाना जरूरी है। सूफीवाद से ही देश- दुनिया में शांति हो सकती है। जब सालाना जलसे हों तब सूफीवाद की शिक्षा दी जानी चाहिए। विविधता में ही एकता है जब हम विभिन्न धर्मों के लोग एकसाथ मिलकर त्यौहार मनाएंगे तो समाज में सद्भावना बढ़ेगी।
आज विस्तृत सामूहिक चेतना की जरूरत है। छात्र-छात्राओं को यदि सूफी-संतों की विचारधारा की शिक्षा दी जाए तो नफरत समाप्त हो जाएगा और हर तरफ भाईचारा होगा। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा देश व दुनिया की अजीम शख्शियत में से एक है। उन्होंने पूरी दुनिया को प्यार मोहब्बत अमन इंसानियत एवं भाई चारे का पैगाम दिया। सुफ़िज्म व उसकी रूहानियत को लोगों तक पहुँचाने की कोशिश की। इसी कारण पूरे देश व विदेश के कोने कोने से अकीदतमंद हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के दरबार में हाजिरी देने आते हैं। इनका दरबार सर्वधर्म सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है।
सैय्यद आसिफ इमाम काकवी