बिहार के मिथिला क्षेत्र के दशियों जिले के अनेकों दर्जन प्रखंड में सैकड़ों गाँव गम्भीर जलसंकट से जूझ रहे हैं। चापाकल-तालाब आदि सुख चुके हैं और लोग पीने के पानी के लिए सरकारी वाटर-टैंकर व वाटरगैलन पर निभर हैं। पानी के लिए सैकड़ों गांवों व शहरों के मुहल्लों में पानी के लिए लड़ाइयां हो रही है, ग्रामीण आंदोलन-धरना-सड़क घेराव आदि कर रहे हैं। दरभंगा-समस्तीपुर-मुज़फ्फरपुर-बेगूसराय-मधुबनी आदि समेत राज्य के लगभग दर्जन से अधिक जिलों में सूखे व जल-संकट की स्थिति है।
मौजूदा जल-संकट के संबंध में सबसे आसान साइडवे ये होगा की दोष आप सरकार को दें। मैं इसमें केवल सरकार का दोष नहीं मानता। हाँ जिम्मेदारी उनकी जरूर बनती है पर किसी को भी ये भान नहीं हो सकता कि नदियों का नैहर आ पग-पग पोखर वाला बाढ़-प्रभावित क्षेत्र मिथिला भी कभी जल-संकट का सामना करेगा, इसलिए मैं दोष सरकार के ऊपर मढ़ना एक आसान तरीका समझता हूँ अपने गलतियों और जिम्मेदारीयों से बचने का।
जो हुआ सो हुआ। अब हो गया। आप मानें या न मानें लेकिन ये संकट हमने ही पैदा किया है जाने-अनजाने में। एक्चुअली में डायरेक्ट गलती हमारी भी नहीं है क्योंकि इससे पहले कोई भी मैथिल कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था की एक दिन जल-संकट आ जाएगा। हमारे यहाँ पानी इतना अथाह था कि जल संरक्षण और उपयुक्त उपयोग हमने कभी सीखा ही नहीं। चापाकल उपयोग में बढोत्तरी होने के बाद हमने भूजलस्तर संरक्षित रखने वाले कुएं भर दिए और गैरजरूरी संख्याओं में चापाकल गड़वा लिया। बाद में तालाब भरते गए, अतिक्रमण करके उनपर घर बनाते गए, समरसीबल खुदाते गए…हमने हमेशा दोहन ही किया कभी संरक्षण नहीं।
वास्तव में हमें इसकी कभी आदत या जरूरत ही महसूस ही नहीं हुई। जहाँ नदी किनारे बसे गांव के हरेक घर मे दो-दो, तीन-तीन तक चापाकल हो, पूरे गांव में कई दर्जन तालाब हो…उस मिथिला के किसी मैथिल को आप जल संरक्षण के प्रति जिम्मेदार, जागरूक और चिंतित कैसे एक्सपेक्ट कर सकते हैं ? हमें बर्तन धोने से लेकर नहाने समेत हरेक घरेलू कामकाज में जल को बर्बाद करने की आदत है। पूरे मिथिला में इतनी नदियाँ होने के बावजूद कहीं नदियों के जल का प्लांड संरक्षण और इस्तेमाल अब नहीं होता है, कोशी सिंचाई परियोजना अबतक अधूरी पड़ी है और पूर्ण नहीं हो सकी है। एक वक्त था की तालाबों और कुओं में वर्षा का जल संरक्षित किया जाता था लेकिन अब कुओं के भर जाने और तालाबों के रखरखाव अभाव के कारण वो भी बंद हो चुका है।
लेकिन अब हमें जागना होगा। क्योंकि अभी जो जल संकट उभरा है यदि उसपर गौर करें तो ये किसी सडेन ज्योग्राफिकल चेंजेज की वजह से मालूम होता है। पहले बेगूसराय, फिर समस्तीपुर, फिर दरभंगा उसके बाद मधुबनी…ये गंगा के उत्तर हर जगह क्रमानुगत फैल रहा है। हमें अब अपनी आदतों में बदलाव करना होगा, लोगों को जागरूक करना होगा, वर्षा जल संरक्षित करना पड़ेगा, पोखैर-तालाब बचाना पड़ेगा, अपने लोगों को आदत डालनी पड़ेगी की जल की गैरजरूरी बर्बादी से बचें।
और ये सब एक मेंटिलिटी को चेंज करने का प्रयास है अतः अत्यंत कठिन कार्य है। इसके लिए विभिन्न प्रयासों के माध्यम से लोगों के दिमाग को हैमर करना पड़ेगा ताकि उन्हें आदत पड़े जल बचाने की। ये केवल सरकार नहीं कर सकती है। हम सबको इसका हिस्सेदार और सहयोगी बनना पड़ेगा। मिथिला में जल संकट समस्या का सबसे बेहतर समाधान है अपने पोखैर-तालाबों की सफाई-उड़ाही और रखरखाव करके उन्हें संरक्षित करना। इससे भूजलस्तर बना रहेगा और चापाकल नहीं सूखेंगे।
अपनी-अपनी भूमिका निभाइए। लोगों को जागरूक कीजिए, जानकारी बांटिए, सरकारी प्रयास में सहयोग के अलावे सामाजिक रूप से लोगों को जागृत कीजिए की वो पोखैर-तालाब बचावें। हम सबने पाप किया है अनजाने में, प्रायश्चित भी सब कीजिए। पत्रकार हैं तो रिपोर्टिंग कीजिए जल-संरक्षण के संबंध में, प्रोफेसर हैं तो सेमिनार्स कीजिए। कवि-लेखक हैं तो इस विषय पर कविता-कहानी लिखिए, गोष्ठि कीजिए। मिथिला पेंटिंग के कलाकार हैं तो पोखैर बचाउ विषय पर पेंटिंग बनाइए। गायक हैं तो इस विषय पर गीत गाइए। स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी हैं तो शहर में जागरूकता मार्च निकाल कर लोगों को जागरूक कीजिए। नेता-अधिकारी हैं तो जनप्रतिनिधियों और सरकारी मशीनरी पर दवाब बनाइए सफल क्रियान्वयन का। बाहर हैं तो सोशल मीडिया पर #पोखैर_बचाउ विषय पर लिखिए-प्रचारित कीजिए ताकि विषय का ब्रॉडनेस बढ़े। कुल मिलाकर सब मिलकर सामूहिक ऐसे प्रयास कीजिए की अंतिम मैथिल तक ये संवाद चला जाए की “जल-संकट में हैं, जल बचाइए और जल-श्रोतों को संरक्षित रखिए।”
-आदित्य मोहन