तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा, ताज-महल बन जाए अगर मुम्ताज़ कहाँ से लाऊँगा!
दशरथ मांझी, एक ऐसा नाम जो इंसानी जज़्बे और जुनून की मिसाल है| वो दीवानगी, जो प्रेम की खातिर ज़िद में बदली और तब तक चैन से नहीं बैठी, जब तक कि पहाड़ का सीना चीर दिया|
शाहजहां के दिल में अपनी बेगम के गुजर जाने के बाद भी इतना प्यार था कि 2000 मजदूर 22 वर्षों तक दिन-रात काम करके उनकी याद में ताज महल बना दिया। मेरी समझ से ताज महल की खूबियों का बखान करने की जरुरत नहीं है ,सब जानते हैं। मैं शाहजहां के भावनाओं का सम्मान करता हूँ।
आज ही के दिन एक महादलित मजदूर की भुखमरी और कैंसर से मृत्यु होती है, उसकी भी पत्नी इलाज के अभाव में दम तोड़ देती है। इलाज के लिए अपने गाँव से दूसरे तक जाने में पहाड़ बाधा था। भला एक महादलित मजदूर की औकात ही क्या हो सकती है? लेकिन उसे भी अपनी पत्नी से शाहजहां से कम प्यार नहीं था। उसने भी 22 वर्षों तक वह भी अकेले हथौड़ा मार-मार कर पहाड़ के सीने को चीर कर 80 किलोमीटर के रास्ते को छोटा करके सिर्फ 3 किलोमीटर का बना दिया।
दशरथ मांझी, एक ऐसा नाम जो इंसानी जज़्बे और जुनून की मिसाल है. वो दीवानगी, जो प्रेम की खातिर ज़िद में बदली और तब तक चैन से नहीं बैठी, जब तक कि पहाड़ का सीना चीर दिया. जिसने रास्ता रोका, उसे ही काट दिया|
माउंटन मैन बनने का सफर
बिहार में गया के करीब गहलौर गांव में दशरथ मांझी के माउंटन मैन बनने का सफर उनकी पत्नी का ज़िक्र किए बिना अधूरा है| गहलौर और अस्पताल के बीच खड़े जिद्दी पहाड़ की वजह से साल 1959 में उनकी बीवी फाल्गुनी देवी को वक़्त पर इलाज नहीं मिल सका और वो चल बसीं| यहीं से शुरू हुआ दशरथ मांझी का इंतकाम| 22 साल की मेहनत: पत्नी के चले जाने के गम से टूटे दशरथ मांझी ने अपनी सारी ताकत बटोरी और पहाड़ के सीने पर वार करने का फैसला किया|
लेकिन यह आसान नहीं था. शुरुआत में उन्हें पागल तक कहा गया| दशरथ मांझी ने बताया था, ‘गांववालों ने शुरू में कहा कि मैं पागल हो गया हूं, लेकिन उनके तानों ने मेरा हौसला और बढ़ा दिया’|
अकेला शख़्स पहाड़ भी फोड़ सकता है!
साल 1960 से 1982 के बीच दिन-रात दशरथ मांझी के दिलो-दिमाग में एक ही चीज़ ने कब्ज़ा कर रखा था| पहाड़ से अपनी पत्नी की मौत का बदला लेना| और 22 साल जारी रहे जुनून ने अपना नतीजा दिखाया और पहाड़ ने मांझी से हार मानकर 360 फुट लंबा, 25 फुट गहरा और 30 फुट चौड़ा रास्ता दे दिया दुनिया से चले गए लेकिन यादों से नहीं!
दशरथ मांझी के गहलौर पहाड़ का सीना चीरने से गया के अतरी और वज़ीरगंज ब्लॉक का फासला 80 किलोमीटर से घटकर 13 किलोमीटर रह गया| साल 2007 में जब 73 बरस की उम्र में वो जब दुनिया छोड़ गए, तो पीछे रह गई पहाड़ पर लिखी उनकी वो कहानी, जो आने वाली कई पीढ़ियों को सबक सिखाती रहेगी| हिंदुस्तान की एक बहुत ही मश्हूर कहावत है, “राई को पहाड़ बना देना” लेकिन पहाड़ को ही राई कर देना, इसकी एकलौता और ज़िन्दा मिशाल बिहार के गया ज़िला के निवासी दशरथ मांझी है।
दरअसल और हक़ीक़त भी यही है कि मर्द को अपनी पत्नी से सबसे बड़ी आरज़ू यही रहती है कि दुनियाँ उसे समझे या ना समझे लेकिन उसकी पत्नी उसे जरूर समझे। अगर दुनियाँ में आज भी ऐसी कई पत्नियाँ है, तो वो दिन दूर नहीं के दुनियाँ में कई और दशरथ मांझी पैदा होंगे।