एक बार फिर आमजन की उड़ान रोकने की कोशिश हुई है, एक बार फिर उनके सपने दबोचने के प्रयास किये गए हैं। पर इसबार जनता चुप नहीं रही। आवाज़ उठाई गई, और सबसे पहली आवाज़ उठी हमारे बिहार के भोजपुर जिले से, आरा से। यहाँ दिन-रात सरकारी नौकरियों की तैयारी में अपनी लगन झोंकते छात्र, सरकार के रवैये पर चुप न रह सके। रेलवे भर्ती के नियमों और पदों में हुई बड़ी हेरफेर ने इन्हें उकसाया। बिहार के लाल व साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे गए लोकप्रिय लेखक नीलोत्पल मृणाल इस विषय पर अपनी भावनाओं को शब्दों के माध्यम से प्रकट कर रहे हैं-
लीजिये, आप हम फेसबुक पे तर्क-वितर्क ही कर रहे थे और इधर मुद्दा जमीन पर उतर भी गया. शुरुआत हो चुकी है सज्जनों. बिहार की धरती आरा से प्राप्त ये तस्वीर देखिये और गांव देहात के इन संघर्ष कर रहे पढ़े-लिखे युवाओं का ऐलान सुन लीजिये.
इन्होंने सड़क पे उतर के कह दिया है, हम चाय-पकौड़ा नहीं बेचेंगे.
हां, हम सरकारी नौकरी करेंगे बॉस. हम किसान, मजदूर, मास्टर साब, छोटे-छोटे ऑफिस में कुर्सी घिस पैंट फाड़ लेने वाले किरानी, ठेला लगाने वालों, परचून की दुकान चलाने वालों के खून-पसीने को गार के निकली जमा-पूंजी से पढ़े छात्र हैं, हम कम से कम “फिर से पकौड़ा” तो नहीं बेचेंगे.
जिस बाप ने देह गला कर भी पैसे जुगाड़ किये और हमारे सपने को न गलने दिया, न हमारे जोश को पिघलने दिया, उस बाप के अरमान और उसकी ख्वाहिशों को हम बेसन के घोल में घोल कर तो नहीं छान सकते.
सवाल इतना भर भी नहीं है मालिक कि हमने बस अभाव देखा है, आर्थिक संघर्ष देखा है और बस इसलिए हमें सरकारी नौकरी चाहिए.
हमें सरकारी नौकरी इसलिए भी चाहिए कि, हम में से जो-जो किसी भंगी, किसी जूता सीने वाला, ईंट भट्ठा बनाने वाला, खुरपी चलाने वाला, रिक्शा चलाने वाला, पान दूकान चलाने वाला, चाय दुकान चलाने वाले का बेटा बेटी है न, और जिनके बाप-दादा के कपार पे उनके लिए ये “फलना वाला…” का जो दाग पीढ़ी दर पीढ़ी गोदना की तरह गोद दिया गया है न, जिसके कारण लोग हमारे बाप-दादा का असली राशन कार्ड वाला नाम तक भूल चुके हैं, वो नाम वापस उन्हें यही “सरकारी नौकरी” दिलवायेगी, आपका हमारा फ़ेसबुकिया गप्प नहीं बाबू.
जब आप सुनेंगे “ए मर्दे ऊ ठेला वाला रामजतन के लड़का कलेक्टर बन गया हो, अब रामजतन के जियते में ही स्वर्ग मिल गया. जरूर कौनो बड़का पुण्य होगा पिछले जन्म का. अब मिला बेचारे को ठेला से मुक्ति”… ये चाहिए, यही मुक्ति चाहिए हमको! समझे! इसलिए चाहिए सरकारी नौकरी।
हमें इसलिए भी चाहिए सरकारी नौकरी कि जब हमारे गांव के प्रधान के घर उनके बड़के सोहदे लाडले का ब्याह हो तो दो तीन ठो कार्ड वहां जहां के गड़े सरकारी नल में कभी पानी पीना भी पाप और अपवित्र होना था, उस चमरटोली में भी कार्ड जाय क्योंकि अब दू तीन कलेक्टर और पुलिस कप्तान का भी घर है उस टोले में है.
इस देश ने 70 साल देख लिया और इन सालों में आपके दर्शन, आपकी नैतिकता का पाठ, मानवता, उदारता, सहृदयता, करुणा इत्यादि सब देख लिया.
संविधान की ठाठ और उसकी काट भी देख ली. आप हम इस मुल्क के गांव-गांव से छुआछूत को न हुरकुच के निकाल पाये न बहुत ठेलने की कोशिश ही की. लेकिन, ये बस सरकारी नौकरी ही एकमात्र ऐसा मैकेनिज्म था जिसने एक ही गांव के पंडित जी, ठाकुर साब और पासवान जी को एक चौकी पे बिठा दिया. और शायद ये भी इसलिए भी कि कुछ विसंगतियों और कमजोरियों के बावजूद इस मुल्क का संविधान हमे पूज्यनीय लगता है.
उदार होने का ढोंग मत रचिये और दिल पे हाथ रख के कहिये कि एक ठेले वाला हल्दीराम भुजिया वाला भी बन जाय तो क्या ठाकुरों की चमचमाती शौर्य वाली तलवार और पंडित का दिव्य ज्ञान उसके पैसे के आगे समर्पण करेगा? लेकिन अगर आप दोषी हैं या गलत हैं तो एक कलेक्टर की औकात और पुलिस कप्तान के लात के आगे क्या क्या न समर्पित हो जाय, ये आप-हम अच्छी तरह जानते हैं.
ये साहस 110 साल में भी बटोर न पायेगा. अब ये देश कि एक कलेक्टर से उसकी जात पूछ लें. और ये मुक्ति हमें सरकारी ओहदे के इसी नौकरी ने दी है. ये सुघर सलोना दृश्य केवल सरकारी नौकरी ही रच पाता है, जब एक पुजारी और एक भंगी का बेटा एक साथ मसूरी के ट्रेनिंग सेंटर में एक साथ देश की सर्वोच्च सेवा हेतु बिना किसी भेद भाव के प्रशिक्षण ले रहा है.
मुल्क के इन खूबसूरत दृश्यों को रचने के लिए जरूरी है. सरकारी नौकरी और आप कहते हो कोई काम छोटा नहीं होता, पकौड़ा बेच लो? जिंदगी भर जिस समाज को छोटा होने का अहसास कराते आये, उसे एक कदम आगे बढ़ाने की बजाय कोई काम छोटा नहीं होता, का मंत्र पढ़ा पकौड़ा गली का दार्शनिक मुहल्ला दिखा रहे? तुम्हें क्या दिक्कत अगर तिलक, तलवार, कुदाल, फावड़ा सब मिल हिंदुस्तान के लिए सिविल सेवा करें तो?
क्या चाहते हो, कि हम अपने खून-पसीने से पढ़ा अम्बानी, अडानी जैसे धनकुबेरों के लिए स्किल्ड मजदूर पैदा करें. उनके मन से साधारण से साहब हो जाने की इच्छा को अहंकार, सामंतवाद बता बड़े शातिराना तरीके से उन्हें पहले स्वरोजगार को मानवता वादी उदारवादी सूत्र बता पहले बरगलाएं और बस बाज़ार पे आश्रित कीड़ा बना के रखें और जब ठेला न चले हमारा, तो अपने यहां एक प्रतिभाशाली नौकर बना के रखें. कुबेरों के बच्चे उद्योग लगाएं और हमारे गांव इनके लिए मजदूर पैदा करें जो इंजीनियर हो, आईएस की तैयारी किया हो, प्रबंधन पढ़ा हो, पत्रकारिता पढ़ा हो.. सब इन धनकुबेरों की बहुमंजिला इमारत के आगे चाय-पकौड़ा बेचो जहां फिर हमारे ही भाई जो इन इमारतों के अंदर मजदूर हैं वे आके खाएं-पीयें.
वे भीतर के, हम बाहर के मजदूर. वाह, घर का माल घर में. कितने क्रूर हो चुके हैं हम, जब एक गांव से निकल कर पढ़-लिख सम्भावना के द्वार पे खड़े छात्र से कहते हैं कि कुछ न हुआ तो पकौड़ा बेच लेना और साथ-साथ कुछ होने के सारे अवसर भी खत्म किये जाते हैं जिससे उसका पकौड़ा बेचना तय ही हो जाय.
घिन आती है उन लोगों से जिन्होंने कभी 25 गज के कमरे में सड़ते हुए वातावरण में भी पढ़ते हुए, बढ़ते हुए छात्रों का संघर्ष देखा नहीं है और उसे कह देते हैं कि सरकारी नौकरी की सीट घटने से क्यों बौखलाये हो? क्या सबको सरकारी नौकरी चाहिए?
अरे बेशर्मों जब इतने मरीज पैदा कर चुके हो तो दवा भी देनी होगी न उतनी ही मात्रा में. अब इसमें उन मरीजों का क्या दोष जिसमें वो सदियों पीस कर आये हैं और आज साहब बन सम्मान से जीना चाहते हैं. भले माना कि सबको ये दवा न मिले, पर इस उम्मीद की लाइन में खड़ा रहने का तो हक़ मत छीनो. नौकर के अवसर तो मत कम करो मालिक.
मन करता है अपने सूद के पैसे से ठेले प्रायोजित करने वाले इन भरे पेट वाले साहूकारों का तोंद फाड़ उसमे से मैक डी का बर्गर और बरिस्ता की कॉफ़ी निकाल माड़ और भात डाल के पूछूं कि, पेट भरा तो होगा पर मन कैसा करता है ये खा के? ये कहते हैं सरकारी नौकरी कर के क्या करोगे? अरे सरकारी नौकरी ही करके टीना डाबी किसी अतहर की शान से हो जाती है, वरना पकौड़ा बेचते तो अंजाम अंकित सक्सेना भी हो रहा इसी मुल्क में. और पूछते हो कि, क्या रखा है सरकारी नौकरी में? सुनो हम करेंगे सरकारी नौकरी!
ये जो बात बात पे बिहारी और यूपी वाले मजदूर हो जाते हैं, घटिया हो जाते हैं न उस बिहार-यूपी पे तुम्हारे लाख भरमाने पे भी हमे नाज़ क्यों है पता है? क्योंकि हमें पता है कि जब देश के टॉप सेवा के चयन की लिस्ट टंगेगी तो उसमें हम भरे हुए मिलेंगे.
क्या चाहते हो? ये नाज़ छोड़ दें? ये गौरव त्याग दें? तुम्हें नहीं पता कि, एक गांव के खाते अगर एक कलेक्टर लग जाता है न तो वो सूर्य की तरह आसपास के 50 गांव को प्रेरणा की रौशनी देता है. ये जो देश जिस पर इतरा रहे हो न, जिसके बारे में कहते हो कि देश बदला है.. गांव बदला है.. तो जान लो ये गांव और देश इसी एक-एक होने वाले सरकारी चयन से बदला है, किसी पकौड़े के ठेले से नहीं.
मालूम है हमें कि क्यों अखड़ रहा तुम्हें ये नौकरी, क्योंकि जब मलमल पे सोये धनपशु को मुनाफाखोरी और आय की चोरी में पकड़ के जब गांव-देहात का लड़का इनकम अधिकारी बन डंटा घुसेड़ता है न, तब चोट पिछवाड़े से ज्यादा ईगो पे लग रही तुम्हारे. और हम ये ईगो तो तोड़ेंगे मालिक.
और हां, अरे माना कि अगर नौकरी हाथ ना आई तो दो रोटी तो कमा ही लेंगे, बिना इस अमृत सलाह के भी कमा लेंगे पर इस बात से क्यों इंकार करते हो कि हम नौकरी कर सकने के सारे प्रयास तो जरूर आजमाएंगे.
और सुन लो साब, हम पकौड़ा भी बेच लेंगे लेकिन तब जब पकौड़ा खाने वाले हमसे हमारी जात न पूछे, हमारा प्रदेश पूछ न हंसे, हमारा परिवेश, हमारी बोली, हमारा रहन देख न हंसे और हमारे साथ बराबर में ठेला लगा मौज में पकौड़े बेचें, करो तैयार पहले इस देश को इस लायक. कोई काम छोटा नहीं होता, जात होता है न? पहले ये तो बदलो मालिक. रोटी देने की औकात देख ली है सरकार.
उन तमाम मित्रों का आभारी हूं जिन्हें संघर्ष करते देखा और आज देश की सर्वोच्च सेवा में योगदान करता देख रहा हूं. गांव-देहात के इन बेटों-बेटियों की सफलता से ही मुझ जैसे साधारण को इतनी ताकत मिलती है कि सीने पे चढ़ के कहता हूं, हुकूमत सुनो, हमें सरकारी नौकरी चाहिए… जय हो…