बचपन का घरौंदा !
दसे दशहरा बीसे दिवाली ,छउए छठ ,नउए नहान …
दशहरा खत्म होते ही बच्चों के दिल के कठघरे में मातमी उदासी तो छा गई लेकिन दिल में बूम-बूम वाली दिवाली भी दस्तक देने को तैयार बैठी थी| दस दिन पहले ही लइकन का झुण्ड बगल के करियकी, पियरकी माटी के मटखोना में था| माटी कोड़ते, खुरपी के खप- खप की बजती स्वर के साथ, नाक से पोटा पोछते हुए मुकेशवा बुदबुदाये जा रहा था –“अबकी बार हम तो पांचमंजिलाs घर बनायेंगे”, तभी बगल में माटी कोड़ता हुआ उसका सबसे बड़ा दुश्मन सोनू टोन मार दिया –“बनावसs न! पांचमंजिला चाहे दसमंजिला, साले, अबकी बार बीड़िया पड़ाका डाल के घरवेs फोड़ देंगे” … सुन कर मुकेशवा पिनिक गया -“साले जरनियाs के बेटा तो हईयेs हो तुम, तुम्हारा बाप भी जरनियाहांs, तुम्हारी मातारी भी जरनियाहाs, हम छोड़ देंगे काs? साले तुम्हारे घर में चकलेट बम और आलू बम दुनु लगा के फोड़ेंगे ,”सोनू भी मुकेशवा के दिमाग में आग लगा दिया|
मुकेश्वा बिरनी की तरह बिन-बिना गया| झगड़ते हुए मिट्टी लेकर सभी अपने घर पर मिटटी को सान कर बगल के दर्शन काका के चहारदीवारी से ईट चुराने गए अब तो ककवाs देख लिया- “रे ससुरा सन! तहनी के हमरे ईटा देखाई देता काs रे?” सुनते ही सभी लफेडिये नौ दो ग्यारह, खैर कही से ईंट चुरा के अपने अपने महल बनाने में जुट गए तभी ललवा आ के टोन मारने लगा-“हम तो दिवाली के दिन ही कुट अउरी लकड़ी से एकदम झकाझक घर बनाएंगे अउरी मर्करी भी लागयेंगे”
“चुप रे साला खाली ढिलता रहता है, सबसे बढ़िया तो माटी का ही घर होता है, “मुकेशवा बिनबिना गया। सबका घर सुख गया, मुकेशवा चुना और नील से घर पोतने लगा तभी सोनुआ आया –
“ऐ मुकेश थोड़ा हमको भी चुना में से दोगे? बाबू पैसा नहीं दे रहे है चुना खरीदने के लिये”, मुकेशवा को तरस आ गया और अपना बाल्टी उठा के सोनुआ को थमा दिया।
दिवाली आया, आज दुश्मनी दोस्ती में बदल चुकी थी, सब अपने अपने महल में दीया जलाने में जुट गए अउरी लाइ लाइचिदाना बताशा एक दूसरे को खिलाने लगे|
सभी को हैप्पी बचपन वाला दिवाली..