आज पाकिस्तान में चुनाव की बात हो रही है। भारत में भी कहा जा रहा है कि चुनाव में मोदी के मुकाबले में कोई नहीं। बांग्लादेश में भी लोग अब चुनाव और मतदान से परिचित हो चुके हैं।
आपने कभी सोचा है कि चुनाव की यह परंपरा हमारे इस महाद्वीप में कब और कहां से शुरु हुई। जब भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं बल्कि वर्मा जैसे देश भी भारत के हिस्सा थे उस वक्त उस अखंड भारत की राजधानी थी कलकत्ता। वही देश का सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था राज्य परिषद था, जो आज राज्यसभा के नाम से दिल्ली में हैं। उसी राज्य परिषद के लिए पहली बार चुनाव हुआ था। नामांकन हुए थे, मतदान हुआ था और कोई भारतीय पहली बार चुनाव जीत कर सदन का सदस्य बना था। 1883 का वह चुनाव केवल भारत का ही नहीं बल्कि पाकिस्तान और बांग्लादेश का भी इतिहास है। क्योंकि उस वक्त परिषद मे निर्वाचित वो इकलौते सदस्य ढाका से कराची तक के इकलौते नेता के रूप में भारतीयों का पक्ष रखते थे।
दुख बस इतना है कि भारत में चुनाव लड कर सदन में पहुंचनेवाले इस प्रथम राजनेता को अखंड भारत के खंड-खंड होने के बावजूद किसी खंड ने अपना घमंड नहीं बनाया, याद नहीं किया।…लेकिन चुनाव और मताधिकार की बात यहां हर कोई करता मिलेगा…. ~ कुमुद सिंह
तिरहुत सरकार महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह 1883 में शाही परिषद के लिए निर्वाचित होनेवाले पहले भारतीय जनप्रतिनिधि हैं। कोलकाता में स्थापित तिरहुत सरकार महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की यह प्रतिमा एक मायने में देश में अकेली और अनोखी प्रतिमा कही जा सकती है।
इस प्रतिमा का अनावरण करने भारत के वायसराय द अर्ल ऑफ एल्गिन जब आये तो उन्हें यह जानकार आश्चर्य हुआ कि तिरहुत के महाराजा की प्रतिमा को कलकत्ता में स्थापित करने के लिए कलकत्ता के आम लोगों ने अपने खर्चे से बनवाया है।
यह देश में एक मात्र उदाहरण है जब किसी दूसरे प्रांत के लोगों ने पैसे जमा कर किसी दूसरे प्रांत के राजा की प्रतिमा अपने प्रांत में स्थापित की हो। यह कलकत्ता के प्रति तिरहुत का और तिरहुत के प्रति कलकत्ता का संबंध बताता है। इस इलाके को यूनेस्को ने धरोहर घोषित कर रखा है।
आज भी किसी की मूर्ति जनता यूं ही अपने पैसे से नहीं लगा देती है, फिर वो जमाना तो राजाओं का था। कोलकाता की जनता ने अगर अपने पैसे से तिरहुत सरकार की मूर्ति चौराहे पर लगा दी। तो यह जानने की इच्छा जरूर बढ जाती है कि आखिर इन्होंने ऐसा क्या किया, जो राज्य के बाहर की जनता भी इन्हें अपना आदर्श मानने से परहेज नहीं किया। दरअसल तिरहुत सरकार लक्ष्मीश्वर सिंह महज 40 वर्ष की उम्र में स्वर्गवासी होने से पूर्व कई सामाजिक और वैज्ञानिक क्रांति की शुरुआत की।
बहु विवाह पर रोक लगाने के लिए इन्होंने अपने कार्यकाल में दंड का प्रावधान किया। गौ रक्षा संघ के संस्थापक बने। अंग्रेजी शिक्षा व एलोपैथी चिकित्सा को बढावा दिया। इनके कार्यकाल में ही अंग्रेजी स्कूल व मेडिकल डिसपेंसरी की स्थापना हुई। भारत में जैविक क्रांति के अगुआ रहे और जर्सी गाय की नस्ल इनके कार्यकाल की सबसे बडी देन है। तिरहुत स्टेट रेलवे की स्थापना कर इन्होंने तिरहुत में विकास की एक नयी लकीर खींच दी। तिरहुत सरकार लक्ष्मीश्वर सिंह ने ही तिरहुत में औद्योगिक क्रांति का सबसे पहले सपना देखा। दरभंगा सूत कारखाने की स्थापना और नील की खेती खत्म करने का सैद्धांतिक फैसला उनके विकास मॉडल को रेखांकित करता है। इंपिरियल कॉउंसिल के पहले भारतीय सदस्य रहे तिरहुत सरकार लक्ष्मीश्वर सिंह बहादुर साह जफर के बडे पोते को राजनीतिक संरक्षण देकर राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता आंदोलन को जिंदा रखने का एलान किया। अफ्रीका में गांधी को मदद करनेवाले पहले भारतीय बने। कांग्रेस के पालनहार बन कर उसकी नींव मजबूत की। पूणा सार्वजनिक सभा के संरक्षक बने। रूलिंग किंग का दर्जा नहीं मिलने के बावजूद कोलकाता में गवर्नर से सलामी लेनेवाले तिरहुत सरकार हिंदू-मुस्लिम एकता के भी प्रतीक माने जाते हैं।
बहुविवाह पर लगाम लगाकर भी सामाजिक आंदोलन के ब्रांड नहीं बन पाये तिरहुत सरकार
बहुविवाह पर लगाम लगाने के बावजूद राजा राम मोहन राय की तरह महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह सामाजिक सुधार के लिए याद नहीं किये गये। जबकि खुद राजा राम मोहन राय ने अपने एक भाषण में तिरहुत सरकार के समाज सुधार को प्रेरणादायक बताया है। इस बात को बिहार के सामाजिक आंदोलनों पर काम करनेवालों ने कभी उल्लेखित नहीं किया, भारतीय परिदृश्य में वो रेखांकित ही नहीं हुए। कारण जो कुछ भी हो, लेकिन तिरहुत में बहुविवाह के खत्मे के लिए इन्होंने न केवल सामाजिक जागरुकता फैलाया, बल्कि दुल्हा, पंजीकार और परोहितों पर दंड का भी प्रावधान किया। दस्तावेज के अनुसार 19वीं शताब्दी तक तिरहुत में एक व्यक्ति 35 से 45 शादियां करते थे। पहली पत्नी तो ससुराल आती थी, लेकिन बाकी पूरी जिंदगी मायके में ही गुजार देती थी। इसे बिकौआ विवाह कहा जाता है, जिसमें गरीब अपनी बेटी का बिवाह कुलीन(एलीट) परिवार के व्यक्तियों से कराने के लिए बिक जाता था। इस घिनौनी प्रथा का सबसे दुखद पक्ष यह था कि एक कुलीन व्यक्ति की मौत पर कई महिलाएं विधवा हो जाती थी। 1876 में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने इस प्रथा काे बंद करने का प्रयास शुरु किया। सबसे पहले उन्होंने इस संबंध में सर्वे कराने का फैसला किया। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार उस वर्ष 54 ऐसे कूलीन व्यक्ति की मौत हुई जिनके कारण कुल 665 महिलाएं विधवा हुई। कोइलख गांव में एक 50 वर्षीय कूलीन व्यक्ति की मौत से 35 महिलाएं विधवा हुई, जबकि रामनगर में एक 40 वर्षीय कूलीन व्यक्ति की मौत से 14 महिलाएं विधवा हुई, महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह इन आंकडों को देखकर तत्काल अपने चाचा गुणेश्वर सिंह व गोपेश्वर सिंह के साथ मंत्रणा की और बिकौआ विवाह पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया। साथ ही इसे सामाजिक आंदोलन बनाने के लिए 1000 रुपये का फंड भी आवंटित किया। सौराठ सभा में एक निगरानी ब्यूरो की स्थापना की गयी और ऐसे लोगों पर दंडात्मक कार्रवाई शुरु हुई। 1878 में सौराठ सभा में कुल 2289 विवाह का निबंधन हुआ। इनमें 107 विवाह पंजीयन बिकौआ बिवाह माना गया। 96 लोगों (पंजीकार, दूल्हा, पुरोहित) को सजा सुनाई गयी, जिनसे कुल 298 रुपये का दंड वसूला गया। 10 युवाओं को रिहा किया गया, जबकि 26 दूल्हे को महाराजा कोर्ट में भेज दिया गया। 23 नवंबर 1878 को तिरहुत में पहली बार बिकौआ विवाह करने के कारण किसी व्यक्ति को कारावास हुआ। क्या आप इसे सामाजिक आंदोलन नहीं कहेंगे। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह के कारण तिरहुत में दूल्हन की खरीद तो बंद हो गयी, लेकिन यहां आज भी दूल्हा बिकता है बोलो खरीदोगे का मंत्रजाप जारी है, यहां के कुछ लोगाें काे आज भी लक्ष्मीश्वर सिंह में एक समाज सुधारक की छवि दिखायी नहीं देता है लेकिन वो दहेज मुक्त मिथिला चाहते हैं। संभव है क्या..।
गौरक्षा अभियान और तिरहुत सरकार
शहंशाह अकबर ने महेश ठाकुर को 1556 में तिरहुत का सरकार बनाया। अकबर के कार्यकाल में गौ हत्या पर प्रतिबंध था। आज गाय के दूध का जो वैज्ञानिक आधार बताया जा रहा हो, लेकिन उस वक्त गौ हत्या पर धार्मिक और आर्थिक आधार पर ही प्रतिबंध लगाया गया था।तिरहुत सरकार ने भी गौ हत्या पर 1556 से ही प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन देश के अन्य भागों में गौ हत्या पर से प्रतिबंध हटा लिया गया।
एक बतकही के अनुसार दरभंगी खां ने एक नबाव के घर गाय का गोश्त देखकर कहा था कि हमारे तिरहुत में कोई इतना भी गरीब नहीं है कि गाय का गोश्त खाये।
मतलब उस वक्त तक गाय का गोश्त आर्थिक विपन्नता को दिखाता था। 1878 में तिरहुत सरकार बनने के बाद लक्ष्मेश्वर सिह ने पहली बार गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठायी। 1888 में उन्होंने सरकार की आमदनी का एक फीसदी रकम गौरक्षा आंदोलन को देने का फैसला किया, जो उस जमाने में करीब 2500 रुपया होता था। राज अभिलेखागार के दस्तावेज के अनुसार काउ प्रोटेक्शन एसोसिएशन की स्थापना वह पहला प्रयास था जिससे गौरक्षा की आवाज बुलंद हुई थी। इंडियन मिरर नामक अखबार के अनुसार 17 मार्च 1888 को महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने काउ मेमोरियल फंड की स्थापना की। इसके साथ ही महाराजा ने एक anti-kine killing society की स्थापना की जिसकी पहली बैठक सितंबर 1888 में दरभंगा में हुई। इस सोसायटी को एक लाख रुपये शुरुआती काम करने के लिए उस वक्त दिया गया। साथ ही मोती महल में इसका स्थायी कार्यालय खोला गया। इंडियन मिरर का एक रिपोर्ट बताता है कि इस बैठक में 4000 लोग शामिल हुए थे। 1993 आते-आते यह आंदोलन पूरे भारत में सक्रिय हो गया। दरभंगा से निकली यह आवाज मद्रास तक पहुंच गयी। 1898 में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के निधन के उपरांत इस आंदोलन का क्या हुआ, संस्था कैसे खत्म हुई, रकम कहां गया, इन सब बातों की जानकारी तो हमें नहीं है, लेकिन इतना जरुर पता है कि अगर लक्ष्मीश्वर सिंह कुछ दिन और जीवित रहते ताे गौ हत्या पर प्रतिबंध 1955 से पहले ही लग गया होता।
भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की आवाज
किसान के हित में भूमि अधिग्रहण बिल में बदलाव की बात सबसे पहले महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने ही उठायी। 1885 में तिरहुत सरकार महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने जमीन पर पहला अधिकार किसानों का हो यह प्रस्ताव रखा। उस वक्त अधिग्रहण जैसा कोई कानून नहीं था। रेलवे के लिए तिरहुत में बडे पैमाने पर किसानों से जमीन ली जा रही थी, किसानों को जमीन के बदले कुछ नहीं मिल रहा था। किसान के सामने विकट समस्या उत्पन्न हो रही थी। ऐसे में तिरहुत सरकार ने शाही परिषद (जो अभी राज्य सभा के नाम से जाना जाता है) में जमीन अधिग्रहण के लिए एक कानून का बनाने प्रस्ताव किया। जब सदन में कानून पेश हुआ तो तिरहुत सरकार ने उसमें कई संशोधन का प्रस्ताव दिया, जिनमें कई स्वीकार हुए और कई खारिज कर दिये गये। बहस के दौरान उनके इस तर्क को इतिहासकारों ने नजरअंदाज कर दिया कि जमीन पर पहला हक उसका होता है जो जमीन जोतता है, इसलिए उससे अगर जमीन ली जाती है तो उसे उचित मुआवजा मिलना चाहिए। किसानों की जो लडाई उन्होंने 1885 में शुरु की, लडाई को जो दिशा दी, उसे ही बाद में आंदोलनकारियों ने आगे बढाया और आज भी लडाई कहीं ना कहीं जारी है। इतिहास लिखने की नहीं, पढने की चीज है।
कम उम्र में सहवास के खिलाफ थे तिरहुत सरकार
बंगाल में 10 वर्षीय फुलमणि देवी के काल पूर्व सहवास ( Premature consumation) पर बहस के बाद 1890 में जब Supreme Legislative Council मे The Age of Consent Bill लाया गया तो बालगंगाधर तिलक जैसे नेताओं ने उसका विरोध किया। इस विधेयक के पक्ष में तिरहुत सरकार महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह, दुर्गाचरण लॉ, पीसी मजुमदार, डा रास बिहारी बोस आदि नेताओं ने मतदान किया। बालिका बधू की प्रथा समाप्त करने में यह कानून मील का पत्थर साबित हुआ।
सभार – कुमुद सिंह, संपादक , ईस्माद
(यह लेख कुमुद सिंह के फेसबुक प्रोफाइल से लिया गया है ।)
प्रेरक साभार – रमानंद झा रमन ।
पुस्तक स्रोत : Aspects of the History of Modern Bihar, Dr. Jata Shankar Jha, 1988
तस्वीरें- प्रभाकर झा व अन्य की ।