असंख्य प्रसिद्ध एवं उनसे भी अधिक कोटिसंख्यक और संभवतः विस्मृत अनेक राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता सेनानीयों के दृढ निश्चय एवं सर्वस्व त्याग तथा समर्पण का जागृत प्रतीक रूप बना आज का दिन हर भारतीय के लिए अत्यंत गर्व एवं हर्ष का विषय है । सदियों के संघर्ष के प्रतिफल रूप में मिली स्वतंत्रता को स्मरण कराता यह दिवस अपने राष्ट्रीय पूर्वजों के कृत्यों के स्मरण तथा उनके जीवन दर्शन पर चिंतन का तो है ही परंतु उससे भी अधिक प्रासंगिक तब बनता है जब हम अपनी वर्तमान राष्ट्रीय स्थिति तथा नवगति का अवलोकन कर राष्ट्र के प्रति समर्पण तथा परस्पर सहयोग के निज संकल्प को और सुदृढ़ करें ।
आज के दिन हमें अपने राष्ट्रीय इतिहास पर गंभीर चिंतन करना चाहिए और विशेषकर उन कारणों एवं परिस्थितियों पर जिनके कारण कालांतर में परतंत्रता इस शक्तिशाली राष्ट्र को ग्रसित करने में सक्षम हो सकी ।
कहा जाता है कि जब कोई राष्ट्र अपने पूर्व इतिहास से नहीं सीखता तब ऐतिहासिक पुनरावृत्ति के लक्षण पुनः प्रबल होते दिखाई देते हैं ।
यदि हम भारत के इतिहास को देखते हैं तो अक्सर यह पाते हैं कि जब भी किसी बाह्यजनित चुनौति से इस राष्ट्र का सामना हुआ तब तत्कालीन राष्ट्राधिकारीयों ने एकत्रित होकर सामूहिक रूप से उसका प्रत्युत्तर नहीं दिया था । हर राजा अपने राजकीय सामर्थ्य के प्रति आश्वस्त तब तक बना रहता जब तक बाह्य आक्रान्ता सीमांत प्रदेशों का उद्भेदन कर संहार करता हुआ और अत्याधिक प्रबल बनता हुआ उसकी सीमाओं तक न पहुंच जाता । हर जनपद अपनी लड़ाई को भिन्न भिन्न लड़ता और पराजित होने पर अक्सर शत्रु से संधि कर जहाँ अपने अधिकारों की कुछ रक्षा करता वहीं अगले जनपद के विरुद्ध शत्रु के युद्ध में तत्स्थ न बन सहभागीता के लिए बाध्य बनता जिससे पराधीनता के संचार की गति बढती जाती और अपने ही बांधवों से पदाक्रान्त होकर मातृभूमि शत्रु के शौर्य के अधीन हो जाती ।
राजाओं और जनपदों के तुच्छ राजनीति में उलझे रहने के कारण राष्ट्र को बाह्य सम्राटों के अधीन होते इतिहास ने देखा है । निज तुच्छ स्वार्थों के कारण सांस्कृतिक पराभव की वृत्तियों का भी अनेक क्षेत्रों में बीजारोपण हुआ जिससे राष्ट्र आज भी जूझ रहा है । आचार्य चाणक्य ने आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व ही इन स्वार्थजनित कूवृत्तियों का अध्ययन कर जब यवनों के विरुद्ध राष्ट्रीय हितों के एकीकरण का प्रयास किया तब शिक्षकों और छात्रों को भी सत्ताओं से बृहत् संघर्ष करना पड़ा था परंतु परिणाम राष्ट्रहित में उत्तम रहे थे ।
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आवश्यकता है राष्ट्र विरोधी शक्तियों एवं वृत्तियों को समझने का तथा उज्जवल भविष्य के लिए नीति निर्धारण का चूंकि भारत का स्वतंत्र और सशक्त होना मानव हित के लिए अपरिहार्य है । एक तरफ जहाँ विश्व के अनेक राष्ट्र आज भी धर्म एवं संप्रदाय के नाम बंटकर विध्वंसक युद्धों का सूत्रपात कर रहे हैं वहां प्राचीन काल से ही भारत अपने “वसुधैव कुटुंबकम्” और “एकं सत्यं विप्रा बहुधा वदन्ति” के दर्शन के साथ सुदीर्घ विश्व का दिशाबोधक बना हुआ है ।
राष्ट्रकवि दिनकर ने अपनी पंक्तियों में राष्ट्रभाव को व्यक्त कर कहा था
“सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है” ।
स्वतंत्रता दिवस अवसर है अपने राष्ट्रीय सामर्थ्यों पर विचारण का और सशक्तिकरण का चूंकि भविष्य में हमारा सार्थक योगदान तभी होगा जब हम सुदृढ़ होंगे । जहाँ इकबाल की कविता “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा” की पंक्तियां “यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहाँ से, अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा । कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा॥”, सभी भारतीयों को प्रेरित एवं गौरवान्वित करती हैं, वहीं इतिहास याद दिलाता है कि इन्ही पंक्तियों के रचयिता रहे भारतप्रेमी कवि इकबाल का भी कालांतर में हृदय परिवर्तन हुआ था और स्वतंत्रता के पूर्व वर्षों में वे राष्ट्रीय विभाजन तथा पाकिस्तान के गठन के प्रखर समर्थक बन चुके थे ।
इतिहास अनेक तथ्यों और रहस्यों को अपने गर्भ में समेटे हुए है और विरासत हमें पुकार रही है । भिन्न भिन्न प्रदेशों, क्षेत्रों तथा खंडों में सर्वत्र विद्यमान भारतवर्ष की विशाल ऐतिहासिक विरासत हमें पूर्वकाल की समृद्धि का स्मरण कराते हुए पग-पग पर प्रेरित करती है । इस ऐतिहासिक भूमि में अपने आसपास कहीं भी भ्रमण करने पर हमारे पूर्वजों की अनंत तथा अभी भी अत्यंत रहस्यमय कीर्ति गाथा से हमारा साक्षात्कार होना अत्यंत स्वाभाविक है चूंकि इसमें भारतवर्ष की अनेकों पीढ़ीयों का निरंतर योगदान समर्पित है । इस विरासत के उत्तराधिकारी होने पर जहाँ मन हर्षित होता है वहीं वह कालांतर में विदेशी तथा आंतरिक अवरोधों के कारण सांस्कृतिक तथा स्वाभाविक विकास में उत्त्पन्न हुए ह्रासों से अत्यंत पीड़ित भी होता है ।
आवश्यकता आज अपने विरासत पर केवल गौरवान्वित हो प्रशंसात्मक छन्दों के नव सृजन का न होकर पूर्व की उपलब्धियों से सहस्रों गुना अग्रतर एवं सतत् प्रगति की ओर अग्रसर एक नव भविष्य के निर्माण की है जो तभी संभव है जब वर्तमान युवा वर्ग एवं आने वाली नई पीढियाँ इसके निमित्त पूर्णतः संकल्पित हों ।
आवश्यकता है भारत के भविष्य के प्रति अपने दायित्वों को समझने का तथा लक्ष्यप्राप्ति हेतु एकत्रित हो अपनी ऊर्जाओं के समेकित संचालन का चूंकि पूर्व में इनकी हानि होने पर हम अपने स्वाभाविक सांस्कृतिक उत्थान पथ में पिछड़कर अहितकर अवनति को प्राप्त हुए हैं ।
आईए, राष्ट्रीय विरासत के पुकार को उद्धृत करती कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित पंक्तियों को आत्मसात कर विचारण करें तथा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय भविष्य के नव निर्माण में अपने बहूमूल्य योगदान के प्रति दृढसंकल्पित रहें ।
“अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा॥
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर। छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा॥
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे। उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा॥
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा॥हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा॥”
इस अवसर पर पुनः हार्दिक शुभकामनाएँ !
जय हिन्द !
लेखक – आईपीएस विकास वैभव, डीआईजी भागलपुर व मुंगेर रेंज