रॉल्स एक गाडी नहीं है, यह समृद्धता की पहचान है. पिछले सौ साल से यह पहचान बदली नहीं है। आजादी के पहले भी रॉल्स का होना उतनी ही समृद्धता को दर्शाती थी, जितनी आज। व्यक्ति से शहर और शहर से प्रदेश की समृद्धता देखी जाती है। बेशक दरभंगा के प्रवासी के पास आज भी राल्स हैं, लेकिन दरभंगा में आज एक भी रॉल्स नहीं है. दरभंगा के प्रवासी समृद्ध हैं, लेकिन दरभंगा अब समद्ध नहीं रहा|
वो जमाना था, जब तिरहुत सरकार की बात तो छोडिए दरभंगा मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य हो या शिवनंदन प्रसाद अग्रवाल जैसे दरभंगा के बडे कारोबारी, सबके पास थी तो केवल रॉल्स..।
उस वक्त रॉल्स के अलावा दूसरी गाडी खरीदना दरभंगा की शान के खिलाफ था| नैनो खरीद कर विकास का पाठ पढानेवाले आज रॉल्स को पूरी तरह भूल चुकें हैं|
तिरहुत सरकार महाराजा कामेश्वर सिंह की कंपनी वाल्डफोड न केवल भारत में रॉल्स की वितरक थी, बल्कि उनके पास रॉल्स की एक से एक गाडिया थी। बेंटली ने सौ साल से अधिक पुराने अपने इतिहास में केवल तीन स्पोर्टस कार बनायी, जिनमें से दो भारत के लोगों ने खरीदा। तीन में से एक कार दरभंगा की सडकों पर चलती थी। 1951 में जब भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद दरभंगा आये थे तो उनके काफिले में 34 रॉल्स गाडियां शामिल थी, जो उस वक्त का सबसे समृद्ध निजी काफिला माना गया था।
भारत के राष्ट्रपति जब पिछले दिनों दरभंगा आये थे तो उनके काफिले में रॉल्स की बात तो दूर 14 एम्बेसडर भी प्रोटोकॉल के तहत उपलब्ध नहीं हो पाया।
दरभंगा के आयुक्त पडोसी प्रमंडलों से गाडी की भीख मांगते रहे। किसी एक व्यक्ति की दरिद्रता ने शहर को दरिद्र बना दिया, प्रदेश को दरिद्र बना दिया. यह भारत के दूसरे शहरों में आपको शायद ही देखने को मिले।
सवाल ये नहीं है कि महाराजा कामेश्वर सिंह की वो कंपनी बंद हो गयी, सवाल ये भी नहीं है कि महाराजा कामेश्वर सिंह की सभी गाडिया बिक गयीं, सवाल है कि आज दरभंगा में एक भी रॉल्स क्यों नहीं है..। दरभंगा के दूसरे समृद्ध परिवारों की बात तो छोड दीजिए,
महाराजा कामेश्वर सिंह ने अपनी वसीयत के तहत 10 रॉल्स तिरहुत की जनता को देने को कहा था…पता नहीं वो किसे मिला..जिला प्रशासन भी इस पर खामोश है।
शहर का विकास हो रहा हैं..हम विकास कर रहे हैं। रॉल्स इसी देश में किसी दूसरे शहर में दरभंगा का उपहास कर रहा है, बिहार का उपहास कर रहा है |
लेखक: कुमुद सिंह, सम्पादक, इस्माद