किसने सोचा था वर्षों से सड़कों पर नज़र आ रहे ऑटोरिक्शा का समूहन हो जाएगा और इसकी भी बैलेंस सीट बनाई जाएगी, वो भी मुनाफे ही मुनाफे वाली बैलेंस सीट। एक बिहारी अपने जज़्बे और मेहनत के बल बूते पर कुछ भी हासिल कर सकता है। पोलियो ग्रस्त हो जाने के बाद अक्सर लोग अपने बच्चों से भरोसा खो देते हैं। मगर निर्मल ने बताया कि अगर भरोसा किया जाए तो निःशक्त भी समाज के बदलाव में सशक्त भूमिका निभा सकते हैं।
बिहार के सीवान जिले के एक छोटे से गांव में जन्में निर्मल जब तीन साल के थे तभी पोलियो जैसी बीमारी ने उन्हें जकड़ लिया। माता-पिता ने डॉक्टर्स से लेकर नीम-हकीमों से भी इलाज करवाया, मगर सब बेअसर रहा।
बावजूद इसके निर्मल और उनके माता-पिता ने हार नहीं मानी। यह जानते हुए कि वह बाकि बच्चों से अलग हैं, उन्होंने पढ़ने की अपनी लगन को कम नहीं होने दिया। निर्मल ने खूब मेहनत से बारहवीं तक पढ़ाई की और हर क्लास में अव्वल आए। डॉक्टर बनने के सपने के साथ वह पटना चले गए ताकि वहाँ रहकर मेडिकल की तैयारी कर सकें।
लेकिन पटना में जिंदगी आसान नहीं थी। घर में माता-पिता का साथ था, लेकिन पटना में उन्हें सबकुछ खुद करना पड़ता था। पटना में वह 14 से 15 किलोमीटर तक का सफर पैदल ही तय किया करते थे। उन्होंने मेडिकल के लिए जी तोड़ मेहनत की लेकिन मेडिकल में दाखिला नहीं मिल सका। निर्मल ने तब हैदराबाद के आचार्य एन.जी.रंगा कृषि विश्वविद्यालय से बीटेक(कृषि विज्ञान) करने की सोची। वह इतने होनहार छात्र थे कि इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय प्रतिभा छात्रवृत्ति भी मिली थी और हर महीने भारत सरकार की ओर से 800 रूपये की छात्रवृत्ति मिलने लगी। लेकिन यह राशि जरूरतों के हिसाब से कम थी इसलिए वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे।
बिहार के ज्यादातर बच्चों की तरह वह भी आईएएस या आईपीएस बनने के सपने देखने लगे। लेकिन उन्होंने इस सपने को किसी और कारण से छोड़ दिया। हुआ यूं कि एक दिन एक कॉलेज सीनियर ने उन्हें आईआईएम के बारे में बताया और कहा कि वहां के बच्चों की सलाना आय 50 लाख तक होती है। तभी उन्होंने सोचा कि वह भी आईआईएम में दाखिला लेंगे।
निर्मल ने आईआईएम के लिए तैयारी की और पहले ही अटेंप्ट में क्लीयर हो गया। आईआईएम अहमदाबाद पहुंचने के बाद उन्होंने बिजनेस के गुर सीखना शुरू किया और खुद भी एक दिन उद्यमी बनने की सोची। बिजनेसमैन बनने का उनका सपना तब सच हुआ जब उन्होंने ऑटोचालकों का एक समूह बनाने की सोची। अपने कॉलेज के बाहर से ही उन्होंने ऑटो वालों को संगठित करने की पहल की।
निर्मल ने सभी के बैंक में खाते खुलवाये और उनका जीवन बीमा भी कराया, साथ ही अपनी जेब से उन्हें इंसेंटिव देना भी शुरू किया। ऑटो में यात्री की सुविधा के लिए उन्होंने डस्टबीन, फोन चार्जर लगवाए और अखबार और पत्रिकाएँ उपलब्ध करवाईं।
निर्मल ने इस प्रोजेक्ट का नाम ‘जी-ऑटो’ रखा।
अपनी महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट के उद्घाटन के लिए उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रित किया। श्री नरेंद्र मोदी ने उनके प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया और उनकी तारिफ भी की। अब ‘जी-ऑटो’ अहमदाबाद से निकल कर दिल्ली, गुड़गावं, राजकोट, सूरत और गांधीनगर पहुंच चुका है। कई बैंकों और कंपनियों ने ‘जी-ऑटो’ की मदद की और उनके लिए संसाधन मुहैया करवाए।
बिहार में करेंगे अपने कंपनी का विस्तार
निर्मल इन दिनों जी ऑटो परियोजना को विस्तार देने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। वो चाहते है की इसका फैलाव बिहार में भी हो , उनकी संस्था अभी 6 बड़े शहरों में काम कर रही है और वे जल्द ही अपनी संस्था की सेवाओं को 100 नए शहरों में ले जाना चाहते हैं। निर्मल को किसी बात की कोई जल्दबाजी नहीं है और वे एक ठोस रणनीति के तहत काम कर रहे हैं। निर्मल का मानना है कि ऑटोरिक्शा की प्रासंगकिता और उपयोगिता भारत में कम नहीं होगी। ‘लास्ट माइल कनेक्टिविटी’ यानी आखिरी मंजिल तक पहुँचने के लिए ऑटोरिक्शा हमेशा ज़रूरी रहेंगे। कार और कैब की बढ़ती संख्या से ऑटोरिक्शा को कोई खतरा नहीं है। वे कहते हैं,
“आने वाले दिनों में परिवहन के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विस्तार होने वाला है। परिवहन का क्षेत्र बहुत बड़ा है और इसके विस्तार की गुंजाइश भी बहुत ज्यादा है। हम भी अपनी सेवाओं का विस्तार करने के साथ-साथ उसमें बहुरूपता लाने की कोशिश कर रहे हैं।
निर्मल ये कहते हुए फूले नहीं समाते कि उनकी कंपनी ही पहली ऐसी कंपनी है जिसने दुनिया को वाहन समूहन का सिद्धांत दिया।वे कहते हैं, “भारत में वाहन समूहन के क्षेत्र में हमारी कंपनी ही एकलौती ऐसी कंपनी है जिसकी बैलेंस शीट पॉजिटिव है यानी सिर्फ हम ही मुनाफे में हैं।”