(कुछ भी कहने से पूर्व यह बात स्पष्ट कर दूं कि इस लेख का उद्देश्य किसी अयोग्य छात्र का पक्ष लेना नहीं है और न ही किसी शिक्षा-व्यवस्था की आलोचना करना है I इसका मूल उद्देश्य बिहार बोर्ड के सामान्य छात्रों की मनोदशा का परिचय देना है और साथ ही हिंदी पट्टी के कुछ (सब नहीं) स्वयंभू विद्वान पत्रकारों, जो विद्यार्थियों के मीडिया ट्रायल में शामिल रहते हैं, का भी परिचय देना है I यदि किसी छात्र ने सफल होने के लिए गलत तरीके का प्रयोग किया है तो यह लेख उसकी निंदा करता है और विधि-सम्मत कार्यवाही का समर्थन करता है – अविनाश कुमार सिंह )
कल रात सपने में बिहार बोर्ड से इस बार इंटर उत्तीर्ण एक छात्र मिला I पास कर जाने के बाद भी चेहरे पर ख़ुशी की कोई झलक नहीं थी I मैंने पूछा—भाई ! पास हो जाने के बाद भी दुखी क्यों दिख रहे हो ? उसने बड़ी ही मार्मिकता से जो जवाब दिया, पहले उसे सुनिए—
बिहार बोर्ड के विद्यार्थी हम, हिंदी माध्यम से पढ़ते हैं
जो भी रहता हमारा सिलेबस, जान लगाकर हम पढ़ते हैं
बिन बिजली के, बिन सुविधा के, पोथी घोंट के हम पढ़ते हैं
टूटी हुई मड़ईया में भी, कोना पकड़ के हम पढ़ते हैं
कई रेफरेंस किताबें लेकर, सबसे मिलाकर हम पढ़ते हैं
शिक्षक उपलब्ध रहें न रहें, ग्रुप बनाकर हम पढ़ते हैं
लिखने में हम आगे रहते, पर माइक के सामने पिछड़ जाते हैं
एसी हाल में राउंड टेबल पर, बहस का मौका नहीं पाते हैं
मिलता नहीं हमें तो मौका, कभी मंच पर अभिव्यक्ति का
वाद-विवाद का चलन नहीं है, न ही मौका एक्सपोजर का
आज का मीडिया पीछे पड़ा है, हम तो इनसे ही घबराएँ
टॉप न हम तो कर जाएँ, यह भी डर हमें रोज सताए
नब्बे से सौ फीसदी अंक भी, दूसरे बोर्ड के छात्र तो पाएँ
उनकी प्रतिभा पर तो कोई भी, ऊँगली मीडिया नहीं उठाए
किन्तु हम यदि अस्सी पाएँ, दृष्टि इनकी वक्र हो जाए
दौड़े-दौड़े हमको खोजें, लिस्ट सवालों के ये लाएँ
माइक-फोबिया के कारण, जब जवाब हम न दे पाएँ
नमक-मिर्च फिर उसमें लगाकर, मीडिया नित दिन वही दिखाए
इससे तो यह अच्छा होता, हम तो सिर्फ पास कर जाते
और प्रतियोगी परीक्षाओं में असली प्रतिभा हम दिखलाते
फिर न हम पर ऊँगली उठती, फिर न हम पर कोई हँसता
दुहरा चरित्र ये मीडिया का, किन्तु सबको पता न चलता
मुझे लगा बंदा कह तो ठीक ही रहा है I शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा या अधिकांश शिक्षामित्रों की अयोग्यता (योग्य और कुशल शिक्षामित्रों से क्षमा-याचना सहित) अपनी जगह है और विद्यार्थी की लेखन-कुशलता और वक्तृता-कौशल अपनी जगह I परीक्षा ऐसी किरणमाला है जो छात्रों के जीवन में संभावनाओं के शतदल को प्रस्फुटित करती है I छात्र परीक्षा देता है किन्तु उसमें अच्छा-बुरा होने का श्रेय परीक्षकों की मनःस्थिति पर भी निर्भर करता है I यदि उनकी मनःस्थिति ठीक रहती है तो उत्तर-पुस्तिकाओं की सही जांच होती है, यदि नहीं तो जांच भी ठीक से नहीं होती—और फिर अंक देने में पर्याप्त अंतर हो जाता है I कुछ परीक्षक सनकी भी होते हैं I कई बार एक ही उत्तर-पुस्तिका में 18 और 81 का भी अंतर देखा गया है I
खैर मूल मुद्दे पर लौटते हैं I बिहार बोर्ड और सीबीएसई/आईसीएसई में उत्तर-पुस्तिका के मूल्यांकन-पद्धति में भी मूलभूत अंतर है I सीबीएसई में कोई छात्र अपनी सामजिक विज्ञान या साहित्य के विषय में 100 अंक भी पा जाता है I वही उत्तर-पुस्तिका यदि बिहार बोर्ड से जुड़े परीक्षक जाँचें तो अधिकतम 75-80 अंक ही आएँगे या इससे भी कम आए I लेकिन मीडिया को इस पहलू से कोई मतलब नहीं है I उसके अनुसार तो जो भी बिहार बोर्ड में अच्छे अंक पा गया वो फर्जीवाड़े से ही लाया है और इस फर्जीवाड़े का खुलासा करने जेम्स बांड पत्रकार घर से किताबें देखकर सवाल-जवाब की एक लिस्ट बना छात्रों के पास पहुँच जाते हैं और धड़ाधड़ सवालें दागने लगते हैं I बिहार बोर्ड के जिस छात्र ने कभी मंच-माइक पर न बोला हो उसके हलक में ये अपने चैनल का माइक घुसेड़ देते हैं कि बता नहीं तो आज गया ! इनकी गतिविधियों से पहले ही मानसिक अवसाद में जा चुका छात्र जवाब नहीं दे पाता और इस तरह उस छात्र के साथ-साथ पूरी व्यवस्था पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया जाता है I
सिर्फ बिहार बोर्ड के विद्यार्थियों को ही निशाना बनाना और प्रताड़ित करना मीडिया की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है और उसके दुहरे चरित्र को उजागर करता है I इसमें कोई संदेह नहीं कि बिहार की शिक्षा-व्यवस्था में बहुत कमियां हैं, स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है, योग्य शिक्षकों की कमी है किन्तु इसके बावजूद योग्य विद्यार्थियों की कमी नहीं है I इसी बिहार के सर्वाधिक छात्र-छात्राएँ अखिल-भारतीय प्रतियोगिता परीक्षाओं में सबसे ज्यादा सफल होते हैं I रेलवे हो, एसएससी हो, बैंक हो, आईआईटी हो या संघ लोक सेवा आयोग हो —इन सबकी परीक्षाओं में बिहारी छात्र ही सबसे ज्यादा सफल होते हैं I इस बार भी कई ऐसे छात्र हैं जिन्होंने आईआईटी की कठिन परीक्षा तो पहले ही पास कर रखी थी पर बिहार बोर्ड में फेल हो गए I तो इससे क्या उनकी प्रतिभा पर सवाल उठाया जा सकता है ? नहीं ! यह दोष व्यवस्था का है I
अब जरा विद्यार्थियों का मीडिया ट्रायल कर रहे विद्वान पत्रकारों के साथ इस प्रक्रिया को विपरीत दिशा में ले चलते हैं I यदि इन मीडिया संस्थानों से जुड़े संवाददाताओं की योग्यता जाँची जाय तो आधे फेल हो जाएँगे I इनसे एक पेज हिंदी में कुछ भी लिखवा लीजिए उसमें पचास भूलें मिलेंगी—यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है I एक उदाहरण लेते हैं I एक मित्र मीडिया रिपोर्टर हैं और अपने आपको हिंदी का दूसरा रामचंद्र शुक्ल समझते हैं–नाम लेना उचित न होगा I हिन्दी में एक दोहा बहुत लोकप्रिय है-
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केश I
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देश II
हमारे उन मित्र ने बताया कि उपयुक्त दोहा एक श्रृंगार-प्रधान छंद है और उन्होंने नायिका के नख-शिख वर्णन के साथ दोहे की बड़ी श्रृंगारिक व्याख्या की I मैंने उन्हें प्रणाम किया I ऐसे तथाकथित विद्वान प्रातःस्मरणीय हैं, जिनके मजबूत कन्धों पर भारत की बिंदी, हिन्दी,का भारी-भरकम शरीर टिका है I वास्तव में उपयुक्त पंक्तियाँ (दोहा) अनायास और बड़ी गहरी वेदना से जन्मी थीं I खुसरो शाही कार्यवश दिल्ली से बाहर प्रवास पर थे I इधर उनके गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया का देहांत हो गया I जैसे ही खुसरो को सूचना मिली, वे नंगे पाँव दौड़े हुए आए I जब तक पहुँचे, तब तक पीर साहब का पार्थिव शारीर कब्र में उतारा जा चुका था I खुसरो ने कफ़न सरकाकर उनके मुख के अंतिम दर्शन किए, नेत्रों से अश्रुधार बह चली I वेदना की अधिकता से हृदय चीत्कार कर उठा I और तब खुसरो के मुँह से एक दर्द भरी आह के रूप में उपयुक्त दोहा फूटा जिसका भावार्थ है-
‘मेरे प्राणप्रिय ने आँखें मूँद ली I चिर विश्राम में लीन I चारों दिशाओं में अँधेरी रात छा गई ! अब यहाँ क्या रखा है ? चल, तू भी अपने घर, अंतिम विश्रामस्थली को सिधार !’
फिर वहाँ से उठकर नहीं गये I वहीं डेरा डाल लिया I सारा धन जरुरतमंदों में बाँट दिया I कुछ ही महीने गुजरे थे कि सद्गुरु का प्रिय शिष्य भी, संसार के सारे बन्धनों से मुक्त होकर इस असार संसार से सिधार गया I सारी उम्र सद्गुरु के चरणों में व्यतीत की थीं, उन्हीं चरणों के समीप चिर विश्राम में लीन है I
एक विद्वान के अनुसार ऐसे स्वयंभू विद्वान पत्रकार ज्योतिषी होते हैं I जैसे गोलाध्याय के ज्योतिषी कुंडली देखकर ही समझ जाते हैं कि यजमान की पत्नी मोटी होगी और बच्चे की कुंडली से ही उन्हें यह पता चल जाता है कि वह अपने पिता की फसल नहीं है –
उपपदे बुधकेतुभ्यां योगसम्बन्धके द्विज I
स्थूलांगी गृहिणी तस्य जायते नात्र संशयः II
भग्नपादर्क्षसंयोगाद द्वितीया द्वादशी यदि I
सप्तमी चार्कमंदारे जायते जारजो ध्रुवम् II
वैसे ही ये थोड़े से पत्रकारगण किसी भी छात्र की मौलिक प्रतिभा का तुरंत पता लगा लेते हैं I इनके पास दिव्यदृष्टि होती है जिससे ये पता लगा लेते हैं कि छात्र असली है या फ़र्जी I
संदेहग्रस्त साहित्य-कला विहीन हृदय तो मात्र प्रतिभाओं की मौलिकता पर प्रश्न-चिन्ह ही लगा सकता है I स्वयं कुछ रचनात्मक कर सकने की सामर्थ्य तो उसमें कम ही पायी जाती है I गीता का मूल-मन्त्र है- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन I इन कुछ पत्रकारों का मूल-मन्त्र है-फलेश्वेवाधिकारस्तु मा कर्मणि कदाचन I ऐसे ही लोगों पर निराला का कुकुरमुत्ता हँसता है-
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतराता है कैपिटलिस्ट !
……………………………….
तू है नकली, मैं हूँ मौलिक
तू है बकरा, मैं हूँ कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुलबुला
हे बिहार के छात्रगण ! आपकी बेचैन दशा देखकर मुझे दुष्यंत कुमार याद आते हैं—
वे जो प्रतिभावान बड़े हैं
उनके साथ बड़े लफड़े हैं
अंतिम निर्णय का अवसर है
इन प्रश्नों पर आज मनन कर
चल भई गंगाराम भजन कर
अब आपके लिए तो विश्वनाथ मिश्र की निम्नलिखित पंक्तियाँ ही पाथेय है–
अकेला चला था, अकेला चलूँगा
सफ़र के सहारो, न दो साथ मेरा I
सहज मिल सके वह नहीं लक्ष्य मेरा
बहुत दूर मेरी निशा का सबेरा I
अगर थक गए हो, तो तुम लौट जाओ,
गगन के सितारों, न दो साथ मेरा I
किन्तु हे कुछ स्वयंभू पत्रकारगण ! यह बिहार की प्रतिभा है I आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, इनकी रचनात्मक क्षमता न तो भावुकता के आंच से झुलसती है और न ही कुतर्क के तुषारापात से मुरझाती है I यह हृदय के पातालभेदी अंतस्तल से अपना रस संचय करती है I न आंधी उसे उखाड़ सकती है और न पानी उसे बहा सकता है I इन बिहारी प्रतिभाओं की तीव्रता आत्मानुभूति का विवर्त है I यह किसी मीडिया या पत्रकार के प्रमाणपत्र की मोहताज नहीं है I अखंड विश्वास ही इसका मूल-मंत्र है-
जाके मन विश्वास है, सदा प्रभु हैं संग I
कोटि काल झकझोरहि, तऊ न हो चित भंग II
लेखक : अविनाश कुमार सिंह
नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं I