कुछ लोगों की फिल्में बनती हैं और उन्हें लोग पसंद करते हैं। वहीं कुछ लोगों की फिल्में पहले लोगों को पसंद आती हैं तब ही वो बन पाती हैं। ये दूसरी तरह की फिल्मों का कॉन्सेप्ट भारत में नया है और कम प्रचलित भी। यहाँ सिनेमा पर बाजारवाद का प्रभाव कई बार कहानी पर हावी हो जाता है। मगर आज जिसकी बात हम कर रहे हैं, उनके सिनेमा का विषय भी आमजन हैं और बनाने वाले भी आमजन। ये क्राउड से फण्ड जुगाड़ करके फिल्में बनाते हैं। भारतीय सिनेमा में ये अद्भुत प्रयोग करने वाले निर्देशक हैं बिहार के छपरा के लाल पवन श्रीवास्तव! आइए आज ‘अपना बिहार’ के जरिये बात करते हैं पवन जी से इनकी फ़िल्म और जीवन के अनमोल क्षणों के बारे में-
1. अपने और अपनी फिल्मों के बारे में कुछ बताएँ।
मेरा जन्म बिहार में छपरा जिले के पास एक इंडस्ट्रियल टाउन ‘मढ़ौरा’ में हुआ| पिताजी वहां एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट में नौकरी करते थे। दसवीं तक वहीं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाई की और फिर हम इलाहाबाद आ गए। बचपन से ही मेरे ऊपर साहित्य का बहुत प्रभाव था। फिल्में भी बहुत देखते थे हम लोग, वीसीआर में एक रात में चार-चार फिल्में। सुबह उठते तो याद ही नहीं रहता था, एक कहानी दूसरी में मिल जाती थी। लेकिन अगले कुछ दिनों तक पापा फिल्म के बारे में ही बात करते थे, मोहल्ले भर में चर्चा होती थी। तब लगा कि फ़िल्में एक सशक्त माध्यम हैं।
मैंने देखा कि मेरे आस-पास की कहानियां फिल्मों में तो है ही नहीं! यहां भी तो कहानियां हैं! स्कूल जाते समय बहुत सारे दृश्य दिखते थे जैसे गर्मी की दोपहर है, सत्तूवाला सत्तू बेच रहा है, वहां एक आदमी आकर सत्तू पी रहा है। पेड़ के नीचे बैठकर एक मोची चप्पल सिल रहा हैं | वहीँ एक आदमी बैठा सुस्ता रहा है| लगता था कि कितना सुंदर दृश्य है! शरतचंद्र की कहानियों में पढ़ता था कि एक आदमी नाव से नदी पार कर रहा है, पोस्टमास्टर चिट्ठी बांट रहा है| लगा इन सब कहानियों को भी सिनेमा में आना चाहिए। इलाहाबाद आने के बाद गज़लों की तरफ़ रुझान हुआ, गज़लों ने संवेदना पैदा की मेरे अंदर। बारहवीं तक मुझे एहसास हो गया था कि मेरे अंदर कुछ कहानियां हैं जो बाहर निकलना चाहती हैं।
2. क्या है ‘लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट’? यह फ़िल्म किस भाषा में है?
फिल्म हिंदी में है| इस फिल्म की कहानी का मुख्य किरदार एक दलित है। उसके जीवन को दिखाया है; उसके वयस्क जीवन से बुढ़ापे तक की कहानी है। उसके जीवन के तीन महत्वपूर्ण हिस्सों को दिखाया है| कहानी यूपी के एक गांव की है। फ़िल्म शूट कर चुके हैं हमलोग और इसके पोस्ट-प्रोडक्शन के लिए पैसे जुटा रहा हूँ। इस बार मैं कुछ फिल्म सोसाइटीज़ और संस्थाओं को जोड़ने की कोशिश भी कर रहा हूँ। वह ऐसे ग्रुप हैं जो फ़िल्म को दिखाते हैं और इस तरह के सिनेमा को सपोर्ट करते हैं।
मैं चाहता हूँ कि सिनेमा जिनके लिए बना है उन तक पहुंचे। फिल्म रिलीज़ होने से पहले मैं 500 गांव में इसे स्क्रीन करना चाहता हूँ और दस स्थानीय भाषाओं में सब-टाइटल करना चाहता हूँ। मैं सिनेमा की रीच को बढ़ाना चाहता हूं। शहरी ऑडियंस तक पहुंचने के लिए फिल्म को रिलीज़ करने की कोशिश भी करूंगा।
3. इसमें शामिल लोगों को कैसे चुना गया, उनके साथ काम का अनुभव कैसा रहा?
फिल्म के मुख्य कलाकार रविभूषण भारतीय हैं| रवि ने FTII पुणे से पढाई की है| पानसिंह तोमर और फिल्मिस्तान में महतवपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं| कहानी लिखते समय से ही रवि मेरे दिमाग में थे| मैंने उनसे बात की फिल्म की कहानी सुनाई, वो तैयार हो गए| बाकी लोग भी फिल्म के कहानी और चरित्र के आधार पर ही चुने गए हैं| इस फिल्म में कोलकाता, लखनऊ, बिहार और शाहजहांपुर के एक्टर्स हैं|
4. पिछली फिल्मों की तरह ये भी क्राउड फंडेड है, ये आईडिया कहाँ से आया और हर बार यही क्यों?
क्यूंकि मुझे अपनी कहानियों के लिए कोइ प्रोड्यूसर नहीं मिलता है और मैं उनके पसंद की कहानियाँ नहीं लिख सकता| मैं फिल्म बनाऊंगा तो अपने पसंद की और अपनी कहानियों को ही कहूँगा| क्राउड फंडिंग एक महत्वपूर्ण विकल्प है| बाहर के देशो में इसके माध्यम से लोग बहुत सारी फिल्में बना रहे हैं| ये ज्यादा लोकतांत्रिक है और बाज़ार के दबाव से आपको बचाता है|
5. पहले आप पलायन जैसी गंभीर समस्या पर फ़िल्म ‘नया पता’ बना चुके हैं, अब जातिवाद की समस्या पर फ़िल्म… गंभीर मुद्दों पर फोकस की खास वजह?
मुझे लगता है सिनेमा एक बहुत ही सशक्त माध्यम है| समाज पर सिनेमा का बहुत असर है| मैं सिनेमा को गंभीर मुद्दों पर एक नई बहस और समझ पैदा करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता हूँ| हर तरह का सिनेमा बनना चाहिए| सब अपने-अपने तरीके का सिनेमा बना रहे हैं| मैं अपने तरीके का बना रहा हूँ| मैंने जो देखा है वही दिखा रहा हूँ| अब मैंने हेलीकाप्टर से अपने घर आने वाले लड़के को नहीं देखा है तो ‘कभी ख़ुशी कभी ग़म’ कैसे बना सकता हूँ| मेरा हीरो साईकल चलाता हैं और इसलिए मैं ‘लाईफ ऑफ एन आउटकास्ट’ बनाता हूँ|
6. पिछली फिल्म काफी देर से दर्शकों तक पहुँची, ‘लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट’ की क्या संभावना है?
हाँ| इस फिल्म को मैं रिलीज़ से पहले गाँव में ले जाऊँगा| इस फिल्म का वास्तविक दर्शक गाँव में है, इसलिए हम इस फिल्म को पहले देश के ५०० गाँवों में दिखायेंगे फिर शहरों में रिलीज़ के बारे में सोचेंगे|
7. अगले प्रोजेक्ट के बारे में कुछ बताएँ।
अगली फिल्म महिलाओं पर आधारित है| फिल्म की कहानी लिख चुका हूँ| इस फिल्म के पूरा होने के बाद उसपे काम शुरू करूँगा| फेमिनिजम के विषय के बारे में है अगली फिल्म|
8. बिहार से जुड़े और कौन-कौन से मुद्दे आकर्षित करते हैं?
बिहार में बहुत सारे विषय हैं और मैं उनसे परिचित भी हूँ| बिहारी लाईफ स्टाइल मुझे बहुत आकर्षित करती है, उसे लेकर कभी फिल्म ज़रूर बनाऊंगा| बहुत ह्यूमर है यहाँ और इतने रोचक एलेमेंट्स हैं कि इनसब को लेकर एक बहुत अच्छी कहानी लिखी जा सकती है|
9. एक ‘क्राउड फंडेड’ मूवी को शूट करने का एक्सपीरियंस कैसा रहा, लोग कैसे जुड़े?
अभी हमारे देश में क्राउड फंडिंग से सिनेमा बनाना बहुत मुश्किल काम है| लोगों को समझाने में बहुत दिक्कत आती है| जो लोग भी जुड़े हैं वो बस फिल्म की कहानी और इरादे को देखकर ही साथ आयें हैं| बहुत लोग चाहते हैं कि एक अच्छी और सार्थक फिल्म बने और तभी वो लोग सहयोग भी करते हैं|
10. आज की सिनेमा के बारे में क्या सोचते हैं?
हमारे देश में अभी सिनेमा को लेकर बहुत कुछ करने की सम्भावना है| यहाँ सिनेमा के विषय और उसके ट्रीटमेंट का दायरा बहुत छोटा है| भारतीय सिनेमा पूरी तरह से बाज़ार के गिरफ्त में आ चुका है| देश के मेजोरिटी को भूल चुका है यहाँ का सिनेमा| आज के सिनेमा में से गाँव बिलकुल गायब है| देश के ६० % लोग आज भारतीय सिनेमा के विषय नहीं हैं, वो केवल दर्शक बन कर रह गए हैं|
11. अक्सर विवादित मुद्दों पर ब्लॉग्स लिखते रहते हैं, मतलब आपकी अभिव्यक्ति का एक माध्यम लिखना भी है, कितना पसंद है लिखना?
मुझे नहीं पता विवादित मुद्दा क्या होता है| मुझे जो ज़रूरी लगता है और जो समझ में आता है वही लिखता हूँ| मैं कोइ भी विवाद नहीं खड़ा करना चाहता| मैं बस लोगो को थोड़ा तार्किक और ब्रॉड सोच का होते हुए देखना चाहता हूँ| देश अभी बहुत अलग तरीके के समय से गुज़र रहा है और इस समय लिखने, पढ़ने वाले लोगों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है|
12. सिनेमा करने की प्रेरणा कहाँ से मिली? कहाँ से सीखा आपने ?
मैंने सिनेमा की पढ़ाई नहीं की है| फिल्में देखकर और बंबई में लोगों के साथ काम करके सिखा है|
‘नया पता’ माइग्रेशन(विस्थापन) के मुद्दे पर मेरी पहली फिल्म है और यह ख़ास इसलिए थी क्योंकि मेरी ज़िंदगी के अनुभवों और मेरी यात्रा की यह पहली प्रस्तुति थी। ‘नया पता’ उसी जगह पर बेस्ड है जहां मेरा बचपन बीता और जो देखा है वही बनाया है। 1985-90 के आस–पास बहुत सारी शुगर फैक्ट्रीज़ बंद होने लगी थी और बहुत बड़ा पलायन होने लगा जिसने मुझे काफ़ी हद तक प्रभावित किया। मैंने इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द ‘नया-पता’ की कहानी लिखी।
अब समस्या आई प्रोड्यूसर की। कई विचार आए, कुछ लोगों ने नकारा भी, कुछ लोगों ने स्क्रिप्ट बदलने की राय दी वगैरह-वगैरह! पर मैं समझौता नहीं करना चाहता था। फिर कुछ दोस्तों की मदद से, कुछ क्राउड फंडिंग से, लगभग तीन साल के बाद बहुत मुश्किलों को पार करके फिल्म बनाई। PVR DIRECTOR’S RARE के बैनर तले फिल्म आखिरकार रिलीज़ हो ही गयी। फिर फिल्म फेस्टिवल में तारीफ़ हुई, हार्वर्ड से भी मेल आया और फिल्म सैन फ्रांसिस्को फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई गई।
मुझे अब मेरे सिनेमा पर काफ़ी विश्वास हो चुका था। मैंने वर्ल्ड सिनेमा को और समझना शुरू किया। मैं इतनी उर्जा में था कि मैंने एक बड़ी सी स्क्रिप्ट लिखी और उसका नाम ‘हाशिए के लोग’ रखा। जिसका बजट 1.5-2 करोड़ के आस-पास था। प्रोड्यूसर भी मिल गया, काफ़ी हद तक कास्टिंग और रिसर्च भी पूरा कर लिया था। प्रशांत नारायण अय्यर और राम गोपाल बजाज जी की कास्टिंग फाइनल भी हो गयी थी, लेकिन अचानक प्रोड्यूसर की कुछ निज़ी दिक्कतों के कारण फ़िल्म बीच में ही रुक गयी। फिर एक कम बजट की फिल्म लिखी पर एक साल बाद उसका भी प्रोड्यूसर बैक-आउट कर गया। दो बार मात खाने के बाद मैं तीसरी बार उस दिशा में नहीं जाना चाहता था। मैंने सोचा सबसे पहले मुझे फ़िल्म करनी चाहिए, कुछ अपने पैसे जुटाए कुछ दोस्तों को साथ जोड़ा और दसवें दिन हम लखनऊ में शूट कर रहे थे। अब अच्छा लग रहा है फिल्म शूट करके। फिल्म शूट की है तो दर्शकों तक ले के जाऊंगा ही।
13. अंत में, लोग इस फ़िल्म को कैसे सपोर्ट करें और कैसे देखें?
www.studiosarvahara.com पर हमने फिल्म का ट्रेलर लॉन्च किया है| २० जून को क्राउड फंडिंग कैंपेन पूरा हो चुका है| अब फिल्म के रिलीज की तैयारियाँ चल रही हैं, जिसके बाद इसे दिखाए जाने को लेकर सूचना दी जाएगी|