क्यों हैं बिहार के शिक्षक सहमे, क्यों शिक्षा यहाँ सिसकती है ?
क्यूँ सहता आरोप बिहार यह, डिग्रीयाँ यहाँ पर बिकती है ?
क्यों बिहार बदनाम हुआ है, शर्मसार सरेआम हुआ है ?
क्यों हल्ला चहुँ ओर मचा है, मानो बिहार निष्प्राण हुआ है ?
ऊंगली उठी है शिक्षक पर, ऊंगली उठी व्यवस्था पर,
आओ आज हम सच में परखें, आखिर है कठिनाई कहाँ पर ?
क्या ये शिक्षक हैं वैसे ही, बिका जो मीडिया बता रहा,
क्या सभी शिक्षक नालायक हैं, जैसा समाज है जता रहा ?
आओ आज करें हम मंथन, क्या शिक्षकों की है दशा-दिशा ?
खरी-खरी हम बात करेंगे, सभी पक्षों को मन में बसा I
—-अविनाश कुमार सिंह
‘बिहार में शिक्षकों की स्थिति राह में पड़े हुए दंतहीन-विषविहीन सर्प के समान हो गई है जिसे कोई भी ढेला मारकर चल देता है फिर चाहे वह मीडिया हो, अभिभावक हों, छात्र हों, शिक्षा माफिया हो, शिक्षा-विश्लेषक हों, या सरकारी तंत्र ही क्यों न हो I’
अमर्त्य सेन कहते हैं–‘एक तरफ बिहार का गौरवशाली शैक्षणिक अतीत है तो दूसरी तरफ आज इस राज्य का शैक्षणिक पिछड़ापन I ये सचमुच कचोटने वाला विरोधाभास है I’ नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन द्वारा बिहार में शिक्षा की स्थिति पर जारी (2011) सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में प्रारंभिक स्कूली शिक्षा की दिशा तो ठीक हुई है, लेकिन दशा अभी भी अच्छी नहीं है I रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य के स्कूलों में शिक्षकों के पढ़ाने और छात्रों के सीखने का स्तर अभी भी नीचे है, लेकिन कुछ सरकारी योजनाओं के कारण आरंभिक शिक्षा के प्रति रुझान बढ़ा है I यह रिपोर्ट चार विन्दुओं पर बल देती है-
(i) पहली ये कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों में इन्फ्रास्ट्रकचर यानी बुनियादी जरूरतों वाले ढांचे का घोर अभाव यहाँ स्कूली शिक्षा की स्थिति को कमजोर बनाए हुए है ।
(ii) दूसरी बात ये कि शिक्षकों और खासकर योग्य शिक्षकों की अभी भी भारी कमी है ।
(iii) तीसरी बात शिक्षकों का विद्यालय से अनुपस्थित रहना ।
(iv) चौथी बात यह है कि बिहार में शिक्षकों के पढ़ाने एवं बच्चों के सीखने का स्तर गुणवत्ता के लिहाज से काफी नीचे है I
पिछले एक दशक (2000-2010) में बिहार में साक्षरता वृद्धि दर 17% होने को रिपोर्ट में शुभ संकेत माना गया है पर इसके बावजूद बिहार की साक्षरता दर 61.8% (2011) तक ही पहुँच पाई है जो पूरे भारत में न्यूनतम साक्षरता दर है I
अमर्त्य सेन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार बिहार सरकार वयस्क साक्षरता, खासकर स्त्री-साक्षरता बढ़ाकर प्राथमिक शिक्षा के प्रति ग्रामीण जनमानस में ललक पैदा कर सकती है I विश्लेषक मानते हैं कि राज्य में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर नक़ल से प्राप्त डिग्री-सर्टिफिकेट धारी अयोग्य शिक्षकों की नियुक्ति का ग्रहण लग चुका है I बिना स्त्री-साक्षरता बढ़ाये जब प्रथम बार शिक्षक नियुक्ति में स्त्री-आरक्षण दिया गया, तो ज्यादातर ऐसी महिलाएँ सर्टिफिकेट के बल पर इस पेशे में आ गई जिनका शिक्षण-कर्म से कोई लेना-देना न था—शिक्षा व्यवस्था की बदहाली में यह भी एक महत्वपूर्ण कारक है I यहाँ मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ यह एक वास्तविक तथ्य है और लेखक का उद्देश्य महिला शिक्षिकाओं का अपमान करना नहीं है I
वर्ष 2016 में ‘प्रथम’ संस्था द्वारा जारी ‘असर’ नाम की एक रिपोर्ट में इस तथ्य को रेखांकित किया गया कि बिहार के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपनी कक्षा के स्तर का ज्ञान नहीं रखते तथा यह भी प्रकाश में लाया गया कि विद्यालयों में छात्रों का पंजीकरण तो बढ़ा है, किन्तु उनकी कक्षा में उपस्थिति अब भी काफी कम है I रिपोर्ट के अनुसार बिहार के 20.7% (राष्ट्रीय स्तर-25.1%) तीसरी कक्षा के बच्चे वर्ग दो का पाठ पढ़ने में सक्षम थे I यदि कक्षा 8 के स्तर की बात की जाय तो बिहार के 75.1 % बच्चे (राष्ट्रीय स्तर-73%) कक्षा दो स्तर के पाठ्यक्रम पढ़ने में सक्षम थे I यदि गणित की बात करें तो राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा 8 के महज 43.2 % बच्चे ही भाग करने में सक्षम पाए गए, जबकि बिहार में यह संख्या 62.3 %, झारखंड में 42.7 %, केरल में 53 %, गुजरात में 65.4 % और उत्तर प्रदेश में 37.4 % थी I निचोड़ यह है कि गणित के मामले में बिहार के छात्र केरल के छात्रों से बेहतर हैं I हाँ, यह अवश्य मानना पड़ेगा कि बिहार के विद्यार्थी अंग्रेजी भाषा में कुछ कमजोर हैं जिसका मुख्य कारण इसका अनिवार्य न होना है अर्थात हमारी नीति है I
रुक्मिणी बनर्जी (सीइओ, प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन) बताती हैं कि प्राथमिक स्तर पर सरकारी स्कूली शिक्षा की खराब हालत के लिए सिर्फ शिक्षक जिम्मेवार नहीं है I शिक्षक तो हमारी पूरी शिक्षा-व्यवस्था का एक हिस्सा मात्र है, न कि पूरी शिक्षा-व्यवस्था I प्राथमिक शिक्षा की इस दुर्दशा के लिए कई अन्य तथ्य भी जिम्मेवार-जवाबदेह हैं, इस बात को हमें समझना होगा I सबसे पहले हमें शिक्षा-व्यवस्था की उस हालत को देखने की जरूरत है, जिस हालत में एक शिक्षक बच्चों को पढ़ाने का काम करता है I अगर एक शिक्षक से पढ़नेवाले बच्चों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है, तो यह जरूरी नहीं कि शिक्षक ने मन से नहीं पढ़ाया I एक शिक्षक की गुणवत्ता को प्रभावित करनेवाले कई कारक हैं, जिनको दूर किये बिना शिक्षक से यह उम्मीद कर पाना मुश्किल है कि वह बच्चों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का वाहक बनेगा I
पहला कारक तो यही है कि हमारे नीति-निर्माता जो पाठ्यक्रम बनाते हैं, वह बच्चों के सोचने-समझने की क्षमता के स्तर से मेल नहीं खाता I हमारे नीति-निर्माता यह भी नहीं समझ पाते कि शिक्षक और पाठ्यक्रम में कोई तालमेल है कि नहीं I सिर्फ शिक्षक को शुरुआती ट्रेनिंग देकर छोड़ दिया जाता है कि वह उस पाठ्यक्रम को पूरा करने की जिम्मेवारी उठायेगा I शिक्षक यही करता है, उस पाठ्यक्रम को पूरा करने में ही शिक्षक का सारा समय चला जाता है I पाठ्यक्रम तो पूरा हो जाता है, लेकिन उस पाठ्यक्रम का कितना हिस्सा एक बच्चे के दिमाग में दर्ज हुआ, यह सवाल वहीं खड़ा हो जाता है I इसलिए हमें प्राथमिक स्तर पर ऐसे पाठ्यक्रम की जरूरत है, जो बच्चों की सोचने-समझने की क्षमता और स्तर के अनुकूल तो हो ही, शिक्षकों के भी अनुकूल हो, ताकि उसे पढ़ाने का आनंद आए I रुक्मिणी बताती हैं कि यदि कोई शिक्षक बहुत ही अच्छा हो, पाठ्यक्रम उसके अनुकूल हो, लेकिन बच्चों का मानसिक स्तर उस पाठ्यक्रम के अनुकूल न हो, तो वह अच्छा शिक्षक भी उन बच्चों को अच्छी तरह नहीं समझा पाएगा I शिक्षकों के साथ एक और बड़ी समस्या है कि वे अपने काम से संतुष्ट नहीं हो पाते, क्योंकि उन्हें शैक्षणिक सहयोग नहीं मिल पाता और वे अक्सर असहाय नजर आते हैं I हम शिक्षकों का सहयोग नहीं करते हैं और हर छोटी बात के लिए उन्हें जिम्मेवार मान लेते हैं I शिक्षा और शिक्षक की बदहाल स्थिति के कारण ही बहुत कम ही बच्चे शिक्षक के पेशे को अपनाना चाहते हैं I
सरकारी स्कूलों में शिक्षा की खराब गुणवत्ता के लिए सिर्फ शिक्षकों को दोष देना उचित नहीं है I जमीनी हकीकत यह है कि हमारे विद्यालयों का इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था बेहद लचर है I
अधिकतर विद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात समुचित नहीं है I शिक्षकों के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं I ऐसे में छात्रों का खराब प्रदर्शन एक स्वाभाविक परिणति है I शिक्षकों पर दोष मढ़ने की बजाय कमियों को दूर करने की कोशिश होनी चाहिए I राज्य में 1990 के दशक तक सरकारी स्कूलों का रिकॉर्ड बहुत अच्छा रहा, लेकिन उसके बाद शिक्षा के भूमंडलीकरण के नाम पर नॉन-फॉर्मल स्कूलिंग और कम वेतनवाले संविदा अध्यापकों की संख्या बढ़ने लगी, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई I हमें यह समझना होगा कि शिक्षा की गुणवत्ता सिस्टम के कारण प्रभावित हुई, इसलिए शिक्षक को खलनायक की तरह पेश करना उचित नहीं है I
वर्ष 2002 में शिक्षा का मौलिक अधिकार आया और वर्ष 2009 में ‘राइट टू एजुकेशन एक्ट’ I उस समय तय हुआ कि 2013 तक प्राइमरी लेवल पर 30 बच्चों पर एक शिक्षक और अपर-प्राइमरी लेवल पर 35 बच्चों पर एक शिक्षक होंगे I सर्व शिक्षा अभियान और अन्य कार्यक्रमों के तहत के तहत रखे गये सभी लो-पेड टीचर्स को मार्च, 2015 तक ट्रेनिंग मुहैया करा कर उन्हें नियमित किया जाना निर्धारित किया गया I इसमें शिक्षकों के सभी रिक्त पदों पर भरती कर लेने, छात्र-शिक्षक अनुपात, क्लासरूम की संख्या, लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट और प्लेग्राउंड समेत बुनियादी ढांचों के बारे में समग्रता से चीजें तय की गयीं I लेकिन, सात साल से ज्यादा समय बीतने के बावजूद हाल यह है कि अब तक 10 % से कम स्कूलों में ही ‘राइट टू एजुकेशन एक्ट’ लागू हो पाया है I
बहुत सारे ऐसे स्कूल हैं, जहां केवल दो शिक्षक सौ से दो सौ बच्चों को पढ़ाने के अलावा मिड-डे मील की देखरेख भी करते हैं I कहीं-कहीं तो एक ही शिक्षक के भरोसे स्कूल चल रहा है I बिहार के लगभग चार हजार स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं I
आज 3G/4G से ज्यादा जरूरी है कि पांचवीं तक के सभी स्कूलों में कम से कम पाँच शिक्षक हों I
शिक्षण व्यवस्था एवं अन्य कार्यों के लिए शिक्षकों के उपयोग के चलते बहुत से स्कूलों में शिक्षकों के अभाव में ताला जड़ा भी मिल सकता है I बहुत कम ही स्कूलों में क्लर्क हैं I स्कॉलरशिप से लेकर यूनिफॉर्म मैनेज करने जैसे स्कूल के तमाम क्लर्कियल काम शिक्षकों के ही जिम्मे हैं I इतना ही नहीं, केंद्र या राज्य सरकार द्वारा संचालित की जानेवाली अनेक योजनाओं, अभियानों या कार्यक्रमों के लिए जिला प्रशासन को जब किसी लोकल नेटवर्क की जरूरत होती है, तो इस काम में भी शिक्षकों को लगा दिया जाता है I इसके लिए उन्हें अनेक मीटिंग में भी शामिल होना पड़ता है I जनगणना, ए.पी.एल./बी.पी.एल. सर्वेक्षण कार्य, और पल्स पोलियो जैसे स्वास्थ्य कार्यक्रमों से लेकर चुनाव ड्यूटी व आपदा-प्रबंधन संबंधी विविध प्रकार के कार्यों की जिम्मेवारी इन्हें सौंपी जाती है I राजस्थान में शिक्षक अपने इलाके के उन लोगों की सूची बना रहे हैं जो बाहर शौच के लिए जाते हैं, क्या पता कल यह बिहार के शिक्षकों के कार्य में भी शामिल हो जाय ? यह भी एक रोचक तथ्य है कि केंद्रीय, नवोदय और प्रतिभा विद्यालयों पर ज्यादा धन खर्च किया जाता है और शिक्षकों की संख्या भी समुचित है I यहाँ के शिक्षकों के जिम्मे केवल पढ़ाने का काम होता है- अन्य कोई गैर-शैक्षणिक कार्य नहीं I
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए जरूरी है कि शिक्षक आर्थिक चिंताओं से मुक्त होकर पढ़ा सकें I भूखे भजन न होई गोपाला—भूखे पेट तो ईश्वर-वंदन में भी मन नहीं लगता, फिर शिक्षण में क्यों लगेगा I विकसित देशों से जब आप शिक्षा की तुलना करते हैं, तो यह नहीं देखते कि वहां शिक्षक केवल पढ़ाने का काम करते हैं, उनके जिम्मे कोई अन्य काम नहीं होता और वेतन भी बेहतर दिया जाता है I यहाँ तो भविष्य के राष्ट्र-निर्माता को एक कनिष्ठ क्लर्क के समान या उससे भी कम वेतन दिया जा रहा है–ऐसे में गुणवत्ता कहाँ से आयेगी I प्रारंभ में सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट पर बहाल शिक्षकों का वेतनमान दिहाड़ी मजदूर से भी कम तय किया I यह भी एक दुखद तथ्य है कि इन शिक्षकों को अपने वेतन के लिए सरकार की दया-दृष्टि पर निर्भर रहना होता है-वह वेतन जो 4-6 महीने के अंतराल पर मिलता है I
बिके हुए मीडिया ने खूब हल्ला मचाया कि बिहार के स्कूलों में शिक्षक पढ़ाने जाते ही नहीं हैं I स्कूलों में शिक्षकों की अनुपस्थिति विषय पर विश्व बैंक की रिपोर्ट (द फिस्कल कॉस्ट ऑफ वीक गवर्नेंस : एविडेंस फ्रॉम टीचर ऐब्सेंस इन इंडिया) एवं अन्य महत्वपूर्ण शोध-रिपोर्टों एवं जमीनी पड़ताल पर आधारित एक अध्ययन बताता है कि 2.5 % शिक्षक ही अपनी कक्षा से नदारद रहते हैं I यह उस धारणा के बिलकुल विपरीत है जो 25-50% शिक्षकों के नियमित रूप से अनुपस्थित रहने की बात करती है I इस अध्ययन का निष्कर्ष शिक्षकों के बारे में प्रचलित उस धारणा को तोड़ता है, जो उन्हें बदनाम करती है I
अनुराग बेहर (सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन) अपने एक लेख में कहते हैं कि ‘शिक्षक बदनामी के साथ जीने को अभिशप्त हैं, जबकि सच यह है कि वे अपने कर्तव्य को पूरा करने में जी जान लगा देते हैं, और वह भी अमूमन बहुत कठिन परिस्थितियों में I
कमजोर को निशाना बनाना आसान है, और शिक्षकों के साथ हम यही कर रहे हैं I शिक्षा में सुधार तभी संभव है, जब हम कक्षाओं में शैक्षणिक अभ्यास को प्रोत्साहित करें और स्कूली संस्कृति को सुधारें I यह सुधार पूरी तरह से शिक्षकों पर निर्भर है और यह काम शर्मसार करके, डराकर या धमकाकर नहीं हो सकता I भूलना नहीं चाहिए कि शिक्षण एक रचनात्मक कर्म है I हमें शिक्षकों को उनकी अपनी क्षमताओं के साथ ‘बदलाव को उत्सुक नेतृत्व’ की भावना पनपने के अवसर देने होंगे। इसके लिए माहौल बनाने के लिए निवेश के साथ शिक्षकों का सहयोग करना होगा I अगर उनसे सहयोग किया जाए, तो तस्वीर और बेहतर हो सकती है I मगर मुश्किल यह है कि हममें से कई लोग धारणाओं में उलझे हुए हैं, जिसे हम बदलना नहीं चाहते I’
मंथन करने वाली बात यह भी है कि बिहार ने, हमने, अपने शिक्षकों को क्या दिया है ?—गालियाँ, लाठियाँ, बदनामी और कलंक !
शिक्षक के मूल स्वरुप को छीन लिया गया, उन्हें कई वर्गों में विभाजित कर दिया गया, उनकी पहचान और सम्मान को क्षीण कर दिया गया, उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से विकलांग बना दिया जो उनकी मानसिक विकलांगता का भी कारण बन जाएँ तो आश्चर्य क्यों ! एक कुशल कुम्हार ही सुन्दर बर्तन के निर्माण में मिट्टी और जल के सही अनुपात को जानता है, एक कुशल शिल्पकार ही अनगढ़ लकड़ी पर भी चित्रकारी कर उसे खूबसूरत बना सकता है I अतः शिक्षकों को भी हमें मान-सम्मान के साथ प्रोत्साहन की नीति को अपनाते हुए पूर्ण स्वतंत्रता देनी होगी तभी बिहार की शिक्षा-व्यवस्था में सुधार संभव है—अन्यथा हमारे सभी प्रयास-प्रयोग निष्फल ही सिद्ध होंगे I
लेख का निचोड़ यह है कि शिक्षकों पर दोषारोपण के बजाय शिक्षा के स्तर को उठाने के लिए हमें ठोस कदम उठाने होंगे I कई अन्य सुधारों के साथ हमारी नयी शिक्षा नीति के तहत हमें तीन मुख्य बिंदुओं पर सुधार करना होगा :-
पहला, स्कूली पाठ्यक्रम को बच्चों और शिक्षकों के अनुकूल बनाना होगा, दूसरा, बच्चों की भाषा-बोली पर विशेष ध्यान देना होगा, तीसरा, शिक्षकों को एकेडमिक सपोर्ट देना होगा I
शिक्षकों के लिए सपोर्ट सिस्टम को मजबूत करना होगा I जरूरी नहीं कि उच्च-शिक्षा प्राप्त व्यक्ति अच्छी तरह पढ़ा भी सके I इसके लिए उन्हें ट्रेनिंग मुहैया कराना जरूरी है I राज्य में शिक्षकों के लिए सपोर्ट सिस्टम का वर्तमान में घोर अभाव है I
एक सफल सरकारी निगरानी तंत्र की व्यवस्था के साथ-साथ एक पारदर्शी व्यवस्था कायम करने की भी जरूरत है जिसमें शिक्षक, छात्र और उनके माता-पिता अपने स्तर पर मुद्दों और परेशानियों को साझा कर सकें I इसके लिए, सरकार को मजबूत नीति बनाने की जरूरत है, और साथ ही इसे लागू करने के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति की भी जरुरत है I शिक्षा माफियाओं पर लगाम कसते हुए शिक्षकों को समान वेतनमान, व्यवस्था में पारदर्शिता तथा अभिभावकों का समावेश किया जाना एक बेहतर शिक्षा व्यवस्था की नींव हो सकता है I
शिक्षक समाज की आधारशिला है I शिक्षक समाज का शिल्पकार है I एक शिक्षक द्वारा दी गयी शिक्षा ही शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास का मूलाधार है I शिक्षक को ईश्वर तुल्य माना गया है I आधुनिक युग में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है I किन्तु आज बिहार में शिक्षा की बदहाली का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि शिक्षकों के प्रति समाज में सम्मान की भावना क्षीण हो गई है I आज शिक्षक समाज में सबसे बदनसीब प्राणी है I यदि शिक्षक के प्रति सम्मान या कृतज्ञता की भावना जागृत होती है तो ज्यादा पढ़े-लिखे लोग-जो दूसरे पेशे में चले जाते हैं-भी इस पेशे से जुड़ने में गर्व महसूस करेंगे I यदि कुछ शिक्षक अयोग्य हैं तो उनकी पहचान कीजिए (यह कार्य एक लिखित परीक्षा लेकर भी किया जा सकता है ) और उन्हें सिस्टम से निकाल फेंकिए I किन्तु सारे शिक्षकों को एक ही चश्मे से देखना योग्य शिक्षकों का अपमान है I अतः शिक्षकों को गरियाने के बजाय व्यवस्था को सुधारा जाय, शिक्षक-भर्ती प्रक्रिया को सुधारा जाय, अयोग्य शिक्षकों की छंटनी की जाय—कुछ भी कीजिए पर ‘शिक्षक’ का अपमान मत कीजिए I जब हम सभी उन्हें सम्मान देंगे, समाज में उनके लिए सम्मानजनक स्थान बनाएँगे, तभी सही अर्थों में शिक्षा और शिक्षणशाला रूपी गंगा-जो अभी प्रदूषित है—स्वच्छ होगी, शुद्ध होगी और एक बार फिर बिहार शिक्षा के क्षेत्र में विश्व-गुरु बनकर उठ खड़ा होगा I
गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः I
गुरु साक्षात् परब्रह्मः, तस्मै श्री गुरुवे नमः II
(यह लेख ‘बिहार की शिक्षा व्यवस्था : एक समग्र समीक्षा’ श्रृंखला का प्रथम भाग है I इस प्रथम भाग में शिक्षा के महत्वपूर्ण स्तम्भ ‘शिक्षक’ की वर्तमान भूमिका और स्थिति को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है I जल्द ही इसका दूसरा भाग अन्य पक्षों को समेटते हुए आपके सम्मुख होगा I अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएं I बिहार का एक पुत्र—अविनाश कुमार सिंह, राजपत्रित पदाधिकारी, गृह मंत्रालय, भारत सरकार )