माँ!
आज मदर्स डे मन रहा है। सब कह रहे कि ये फ़क़त एक दिन नहीं मनाया जाना चाहिए, मगर सभी मना रहे। आज सोशल मीडिया, अख़बार या फिर टीवी पर आने वाले प्रोग्राम्स, सभी मदर्स डे में रंगे हुए हैं। ये दिनांक मदर्स डे विशेषांक बन चुका है।
खैर! ये मनाने वाले ज्यादातर वही लोग हैं जो अपना लिखा अपनी माँ तक नहीं पहुँचा पाते, या फिर दूर रहते होंगे माँ से। यहाँ मैं तो हमेशा तुम्हारे ही साथ रही हूँ, तुम्हें ही सुनाया और पढ़ाया है मैंने अपना लिखा, सबसे पहले… फिर भी लिख रही हूँ, पता है क्यों?
क्योंकि आज नहीं तो कल मैं भी दूर हो जाऊँगी तुमसे, कोसों या मीलों दूर, कुछ साल बाद शायद अवसर पर ही याद आऊँ, या शायद वैसे ही छुप-छुप के याद करूँ जैसे तुम करती हो, अपनी माँ को। और… और कुछ साल बाद तो शायद मैं भी तुम जैसी ही बन जाऊँ, घर की महज एक डाँटने वाली औरत!
सेंटी-वेंटी नहीं हूँ मैं, हरगिज़ नहीं। ये सब तो खैर… क्या कहूँ, सिर्फ महसूस हो सकता है, लिखा थोड़े ही जा सकता है! महसूस वो भी हुआ था मुझे जो तुम महसूस कर रही थी दीदी की शादी में! जब वो अपने नए शादी वाले कपड़े खोल-खोल के दिखाया करती तो तुम्हारी भटकती आँखों में दो बूंद महसूस हुए थे। जब वो संगीत में नाच रही थी, नोट उड़ाते समय की हँसी तुम्हारी कुछ और कह गयी मुझसे! जयमाल से पहले जब वो सजधज कर सामने आयी तुम्हारे… उतनी भीड़ में भी तुम्हारी साँसों की गिनती सुन गयी मैं। मंडप में कन्यादान का वक़्त याद ही नहीं करना चाहती! ये वक़्त इसलिए ही बनाया गया होगा कि जी भर के अपना दर्द बहाया जा सके!
जानती हो, तुम्हें जो इतनी फ़िक्र रहती है न हम बेटियों की, अब समझ में आता है वो क्यों है! क्यों तुम कहती थी कि “तुम पर भरोसा है, जमाने पर नहीं”! इस एक वाक्य ने जाने कितनी बेटियों के सपने रोक रखे हैं न माँ, शायद तुम्हारे भी! अब तो “माँ” कहने पर किसी ‘निर्भया’ की माँ का चेहरा याद आने लगा है। इस खबर को पढ़कर कैसे तुम्हारे चेहरे के रंग उड़े थे और दोषियों को सज़ा के बाद भी जो असंतोष था आँखों में, सब देखा है मैंने, धीरे-धीरे सही, सब समझ भी जाऊँगी माँ, समझ तो मैं भी जाऊँगी न सब!
फ़िलहाल तो मैं उन गालियों को समझने की ही कोशिश कर रही हूँ जो माँ के नाम पर देते हैं सब। क्या ये गालियाँ देने वाले इनका अर्थ नहीं जानते? या फिर क्या ये किसी की माँ की इज्जत नहीं करते? क्या इनकी नज़र में किसी औरत की अहमियत बस उनके देह तक ही है? अगर ऐसा है माँ, तब तो तुम्हारी भावनाओं का सम्मान बहुत जल्द इस दुनिया से दूर हो जाएगा! कहीं ऐसा न हो माँ के नाम पर फिर सिर्फ गालियाँ और ये सोशल मीडिया वाले पोस्ट्स ही बचें!
नहीं! माँ! सुनो न! डर लगता है उस आने वाले वक्त से! और तुम सही लगती हो, “जमाने पर भरोसा नहीं कर सकते”।
न जाने तुम्हारा महत्त्व समझाने में दुनिया को कितना वक़्त लगेगा! न जाने ये समझाने वाले कब तक समझाते रहेंगे! कहीं ये हार न जाएँ! न जाने ये समझते हैं या नहीं कि “माँ की इज्जत करने से पहले औरत की इज्जत जरूरी है”! तुम भी तो नौ महीने वाले तमाम कष्ट तभी सहन कर पाई न माँ, क्योंकि तुम औरत थी!
जानती हो माँ, हमलोग लेस एक्सप्रेसिव लोग हैं। अपनी भावनाएँ छुपाते फिरते हैं, कभी हँसी में, कभी गुस्से में और कभी रात को तकिए पर! अगर ऐसा नहीं होता, अगर हम लेस एक्सप्रेसिव नहीं होते, अगर हम तुम्हें बता सकते तो बताते कि तुम्हारा हमें छोड़कर नानीघर जाना अब उतना नहीं खलता, क्योंकि समझ में आ गया है तुम्हें भी दुनिया भर के कष्ट से उबरने के लिए नानी का चेहरा देखने की जरूरत तो पड़ती ही होगी। कब तक मूर्तियों और तस्वीरों में भगवान् को तलाशा जा सकता है, जब मालूम हो भगवान् किस चेहरे में बस रहा है! लेस एक्सप्रेसिव नहीं होती तो आज तुम्हें गले लगाती और कहती ये सारी बातें जो अभी लिख रही हूँ! क्या करूँ, ऐसा ही समाज बनाया है हमने जहाँ प्रेम जैसी चीजें व्यक्त करना थोड़ा ऑक्वर्ड लगता है।
ओह! एक बात की शिकायत रहती है न तुम्हें कि पूजा क्यों नहीं करती मैं! सुनो! आस्था रखने के लिए भगवान् ने तुम्हें भेजा, और तुम्हारे जरिये मुझे। प्रेम तो किसी से भी हो सकता है, आस्था एक तुमसे! प्रेम नहीं, आस्था हो तुम मेरी! बाकी सब ठीक है और रहेगा माँ, जब तक तुम चैन से हो!