‘प्रेम’, ‘इश्क़’ या ‘मुहब्बत’ उस एहसास का नाम है जो कब, कहाँ, किसके साथ घटित हो, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। ‘कबीर’ हों या ‘मीरा’ कोई प्रेम से बच नहीं पाया। आज की इस भागदौड़ के बीच कई बार हम ये जान जाते हैं कि कहाँ हमारा मन रमा हुआ है तो कई बार बस उस एहसास हो दबाने में जिंदगी गुजार देते हैं। ‘माह-ए-मुहब्बत’ के आज के दिन की यह कहानी कुछ ऐसे ही विचित्र चित्र खींचने की कोशिश करती है, देखते हैं कैसे पहचान पाते हैं ये अपने इश्क़ को।
——————————बचपन में देखी कुछ फिल्मों ने वैसे ही मोहब्बत को बदनाम कर रखा था मेरी नज़र में। और ऊपर से दर्द भरे किस्से कहानियों और अल्ताफ़ राजा के बेवफ़ाई से लबालब नग्मों ने ऐसा घाव किया कि यौवनावस्था के प्रथम पड़ाव तक आते आते मोहब्बत को दगा, बेवफ़ाई और अधूरापन ही समझने लगा।
तब बस जुबाँ पर कुछ ऐसे ही शेर हुआ करते थे;
“तू मोहब्बत ना कर, ग़रीब है ऐ दोस्त
लोग बिकतें है और खरीदना तेरे बस में नहीं।”
(Unknown)
फ़िर अचानक एक समय आया जब यौवनावस्था में कदम रखते ही… कहते हैं ना कि प्यार होता नहीं, हो जाता है, वैसे ही पता भी ना चला और मैं कविता पढ़ने और लिखने का शौक़ीन हो गया।
प्यार अभी उतना प्रगाढ़ नहीं हुआ था, अभी बचपन की यादें ताज़ा थीं। लिखने का शौक़ तो पाल ही चुके थे। फ़िर मन में आया (संकेत मिला) कि ‘मोहब्बत’ पर लिखा जाए। मोहब्बत के अनेक पड़ाव हैं पर मेरे मन में तो कलयुग की मोहब्बत का अलग ही रूप छपा हुआ था। फ़िर मैंने पहली श्रृंगार-रस की कविता का सृजन किया- ‘प्रेमालय की चौखट’।
दर्द अब कलम से बहना शायद थोड़ा-थोड़ा सीख चूकी थी। इसका अंदाज़ा मुझे तब लगा जब ‘प्रेमालय की चौखट’ कविता मैंने फेसबुक पर पोस्ट की और उसके उपरान्त चाचा जी का फ़ोन कॉल दादा जी के पास आया। उस समय मैं यह नहीं समझ पाया कि चाचा जी मेरी कविता की गहराई को समझ कर मुझे आशीर्वाद दे रहे थे या भतीजे के जवान होने का संकेत दादा जी को दे रहे थे।
ख़ैर, इतना तो मैं समझ चूका था की कविता उन्हें पसंद आई थी। फ़िर मोहब्बत को
“मोहब्बत नहीं बिमारी है
हर आशिक़ को ये प्यारी है”,
जैसी कविता लिखकर मैं पुनः मोहब्बत को अधूरा कहने से बाज़ नहीं आया।
लेकिन अब समय बदल चुका था, अब कविता में रूचि इस कदर बढ़ गई थी कि मैं रात को सोते हुए में भी कविता लिखने लगा। इसे मैं अपना पहला प्यार कह सकता हूँ। आपका मानना भी है कि प्यार स्त्रीलिंग और पुलिंग के बिच एहसासों का सम्बन्ध है। तो ‘कविता’ ही मेरी वो मित्र है , वो प्यार है जिसमें मेरी भावनायें निहित हैं और जिसके ना होने से एक कमी सी खलती है। जिसे मैं जितना लिखता हूँ वो उतनी हसीन लगने लगती है। जिसे गाते ही नाचने का मन होता है और जब कभी मैं ख़ुद को अकेला महसूस करता हूँ तो वो गले लगा लेती है।
मैंने अपनी एक कविता जिसका शीर्षक भी ‘कविता’ है में लिखा है;
लिखूँ तू माँ सी प्यारी है,
या लिखूँ बहन सी न्यारी है।
हर रूप तुम्हारा है उत्तम
तू बेटी सी राज दुलारी है।
तू तन को शक्ति देती है,
तू मन की रिक्ति हरती है।
हर समय हृदय के तट पर,
गंगा-यमुना सी उमड़ती है।
कैसे ना कहूँ तूने ही मुझे कवि बनाया है,
ऐ कविता मैंने तुम्हें पाकर, सब कुछ पाया है।
अंगीकार : उसके बाद से मैंने जितने भी मुक्तक और गीत श्रृंगार-रस में लिखे हैं उन सभी रचनाओं में मैंने अपनी उसी प्रेयसी (कविता) को प्रेरणा समझ कर उनका सृजन किया है।
1)
कभी तुम लैला लगती हो , कभी तुम हीर लगती हो
मेरे दिल में जो बसती है, वही तस्वीर लगती हो
तुम्हारे तशबीह की तशरीह , गर मैं करूँ तबियत से
खुले जुल्फों में तुम मुझको , प्रिय कश्मीर लगती हो ।
2)
तस्वीर बनाने जब कभी मैं बैठता हूँ,
चाँद सबसे आसान है ये सोचता हूँ,
आकृति चाँद की जेहन में गढ़ते ही जानम,
तेरा ही चेहरा बना बैठता हूँ।
“मोहब्बत के लिए महीने और दिन की क्या तलाश,
जिस दिन तू हो मेरे पास, वह दिन हो जाए खास।”
नोट- प्रस्तुत कहानी बिहार के एक युवा कवि अमित शाण्डिल्य जी की खुद की कहानी है। आप भी अपनी या आसपास की कहानी हमें भेज सकते हैं और ‘आपन बिहार’ के जरिए अपने प्यार का इक़रार कर सकते हैं, पता है- contact@aapnabihar.com।