आज 15 अगस्त है. संपूर्ण राष्ट्र बड़े ही हर्षोल्लास से आजादी का 70वां पर्व मना रहा है.
आप सबों को बधाई हो ये पावन पर्व।
खैर बधाई आने की शुरुआत कई दिन पहले से ही हो गयी थी. राष्ट्रभक्ति की लाइन से मानों मेरा मैसेज-बॉक्स भी सराबोर हो चूका है। फेसबुक-व्हाट्सएप हर जगह तिरंगा से पट चूका है, लोगों की देशभक्ति अपने चरम पर है. हो भी क्यों नही इसी दिन हमारे राष्ट्र के बुनियादी पत्थर पर नव-निर्माण का सुनहला भविष्य हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों के रक्तों से लिखा गया था।
इस लिखावट का उद्देश्य था की हमारा भारत एक ऐसा राष्ट्र होगा जँहा न शोषक होगा न कोई शोषित, न मालिक न कोई मजदूर, न कोई आमिर न कोई गरीब।
सबके लिए शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा और उन्नति के सामान अवसर होंगे।
मगर साकार होने से पहले कहाँ दफ़न हो गया उनके द्वारा देखा गया वो स्वप्न ?
अफ़सोस आजादी के 69 वर्ष बीत गए पर आज भी आम आदमी न सुखी बना न समृद्ध, न सुरक्षित बना न संरक्षित, न शिक्षित बना और न स्वालंबी।
हिंसा, आतंकवाद, जातिवाद और राजनीतिक विवाद ने आम नागरिकों का जीना दुर्भर कर दिया।
आजादी के 69 वर्ष बीतने के बाद भी हमारे देश के नवनिहाल बच्चे छोटी उम्र में पेंसिल पकड़ने के बजाय स्वतंत्रता दिवस पर चौराहों पर तिरंगा बेचने को मजबूर हैं, जलेबी के दुकान के दुकान पर बर्तन धोने को मजबूर हैं।
आखिर कैसे गर्व से कहें की आज हमारा 70वां स्वतंत्रता दिवस है ?
जनगणना की समीक्षा से पता चलता है की भारत में बालमजदूरी में फंसे 7 से 14 साल के आयुवर्ग के करीब 14 लाख बच्चों को अपना नाम तक लिखना नही आता. जनगणना के आंकड़े के अनुसार भारत के हर तीन में से एक बच्चा मजदूरी करने को मजबूर हैं और अक्षरज्ञान से बिल्कुल वंचित हैं।
स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, लेकिन हम सात दशक की यात्रा के बाद भी इससे महरूम हैं।
ऐसा लगता है मानो केवल जमीन आजाद हुई जमीर तो आज भी किसी के पास गिरवीं रखा है।
कैसी बिडंबना है की एक सो कॉल्ड सुपरस्टार नशे में धुत होकर फुटपाथ पर सोये गरीब मजदूर को अपनी कार से कुचल देता है और शराबी को न्यायपालिका द्वारा बेगुनाह साबित किए जाने पर देश में विरोध होने के बजाय ईद और दिवाली एक साथ मनाई जाती है।
कैसी बिडंबना है की सुर्खियां बटोरने के लिए एक निर्वाचित मुख्यमंत्री अपने ही देश के प्रधानमंत्री पर हत्या करवा देने का आरोप लगाता है।
स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी हमारी राजनैतिक सोच इतना घिनौना होना देश के राजनीतिक परिदृश्य के लिए त्रासद से कम नही है।
कौन देगा इस लोकतंत्र को शुद्ध सांसे, कौन करेगा हमारे सपनों के आदर्श भारत का निर्माण जब हमारे जैसे युवा-पीढ़ी के लोग ही राजनीति से दूर भागने लगे।
बुद्ध, महावीर और गांधी अब वापिस नही आ सकते। अब इस व्यवस्था को सुधारने के लिए हम युवाओं को ही आगे आना होगा। अन्यथा हमारा लोकतंत्र ऐसे ही लहूलुहान होता रहेगा और जिस आदर्श स्थिति की हमे तलाश है वो आजादी के शताब्दी वर्ष पुरे होने के बाद भी न तो हमे मिलेगी और न ही हमारे आने वाले पीढ़ी को।
अंत में स्वतंत्रता दिवस की एक बार फिर से शुभकामनाएं उम्मीद है इसे पढ़ने के बाद एक आदर्श भारत के निर्माण के लिए आप जरूर आगे आयेंगे।