“आवाज नीची कर के बात करो; ऐसे ठहाके न लगाओ; पैर मोड़ के बैठना सीखो; दुपट्टा लिए बिना कहाँ चली; आधे घंटे से ज्यादा मत रुकना; भाई को साथ ले जाओ; 10 साल की हो गयी, अब क्या खेलती ही रहेगी ताउम्र; ये क्या प्यार-व्यार वाली शायरी लिखती हो; सुशील लड़कियाँ किसी को जवाब नहीं देतीं; बाइक लड़कियाँ नहीं चलातीं; घर में रहना है हवाई-जहाज उड़ा कर क्या करेगी; वो सब तो ठीक है अब शादी कर देनी चाहिए; लड़कियाँ कब तक पिता के घर रहेंगी, जवान बेटी बाप के घर शोभा नहीं देती; काम भर पढ़ ली अब क्या पी.एच.डी करेगी; बैंक में नौकरी लेने का प्रयास करो या टीचर बन जाओ, ये रेडियो-शेडियो तुम्हारे वश का नहीं; शरीफ घर की लड़कियाँ नाच-गाना नहीं करतीं; भाई इंजीनियर है, तुम इंजीनियरिंग कर के क्या करोगी; लड़की हो, आग से मत खेलो; शाम हो गयी है, ट्यूशन छोड़ो; फील्ड में घंटों प्रैक्टिस कर के क्या उखाड़ लोगी, घर चलो; लड़की के हाथ में कैमरा हमारे समाज में नहीं दिया जाता; ……… और न जाने क्या-क्या|”
मैं अपनी मर्जी या कल्पना से ये सब नहीं लिख रही| ये तो महान हकीकत है हमारे समाज का| हमने लड़कियों को लड़ना कब सिखाया? हमने लड़कियों को आगे बढ़ने से पहले कितनी बार उसका सपोर्ट किया? हमने कब सोचा कि एक लड़की, लड़की होने से ज्यादा भी कुछ है? खुबसुरत-कोमल चेहरे के पीछे कब हमने एक मजबूत इरादा देखा? दूसरे की बेटी आगे बढ़ती हुई थोड़ी अच्छी भी लगे, अपनी बेटी को घर से बाहर ही कब निकलने दिया?
शायद अब तक नहीं| लड़कियाँ जब तक सफल नहीं हो जायें, घर वाले भी गर्व से कहीं नहीं कह पाते कि “हाँ मेरी बेटी हॉकी खेलती है”| हम स्वीकार नहीं कर पाते कि कैसे कोई लड़की बुलेट चला पायेगी| हम सहन नहीं कर पाते किसी लड़की का फाइटर प्लेन उड़ाने की तमन्ना रखना| अपनी माँ के इलाज के लिए महिला डॉ. की तलाश में जरुर रहते हैं लेकिन अपनी बेटी को डॉ. सिर्फ इसलिए नहीं बना पाते कि पढ़ाने में खर्च करेंगे तो वर भी उसी अनुसार तलाशना होगा|
ये कैसी मानसिकता से घिरा हुआ समाज है हमारा| लड़कियाँ इनसब से निकलकर खुद को साबित कर रही हैं| वो बता रही हैं कि देखो, मैं सिर्फ एक खुबसूरत शरीर भर नहीं हूँ, हाथ में गोल्फ स्टिक थमा दो तो ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व फाइनल तक ले जा सकती हूँ; मैं सिर्फ नज़रें टिकाने के लिए वस्तु नहीं हूँ, हाथ में तीर-धनुष थमा दो तो दीपिका कुमारी बनते देर न लगेगी; सिर्फ घर में हिंसा का शिकार होने के लिए नहीं हूँ, साँस लेने की फुरसत भर दो तो सामने वाले के छक्के छुड़ा दूँ; सिर्फ तुम्हारे मनोरंजन का साधन भर नहीं हूँ, एक प्यार की नज़र भर दो तो उपन्यास लिख डालूँ; सिर्फ तुम्हारी जायदाद भर नहीं मैं, बैंक की मालकिन भी बन सकती हूँ; मेकअप का भण्डार नहीं हूँ, मौका तो दो दुश्मन देश से भी लड़ सकती हूँ|
क्या तुम कभी गर्व कर पाओगे उनपर? क्या उन्हें कोख में मारना बंद करोगे? क्या उन्हें देवी समझना छोड़, इंसान ही समझ पाओगे? क्या एक सहारा बनोगे कभी अपनी बेटी का? क्या सपने देखने की ललक फिर से भरोगे, जब भी वो हार के बैठ जाए? क्या एक चुटकी भर भरोसा दे सकोगे आधे घंटे से ज्यादा बाहर जाने का? क्या शहर में उसकी उपलब्धियों की भी चर्चा करोगे? क्या खुश रह पाओगे उसे खुश होता देखकर? क्या उसकी ताकत बन पाओगे, उसे किसी मोड़ पर टूटता देखकर? आज नहीं तो कल ये करना ही होगा| कब तक आगे निकलती बेटियों को देखकर खुद पर शर्म करोगे? कब तक उनकी हथेली से ‘मुक्के’ छीनते रहोगे? कब तक उनके कलम की आवाज दबाते रहोगे? कब तक सिर्फ शादी भर की जिम्मेदारी समझोगे अपना? आखिर कब तक वर ढूंढने भर को फर्ज़ करार दोगे? आगे तो बढना होगा न तुम्हें भी, उन बढ़ती बेटियों के बाप की तरह तुम्हें भी तो गर्व होगा एकदिन बेटी के सफल होने का|
तुम कहते रह गये, ठहाके न लगाने को, आज उसकी आवाज से शहर की सुबह-शाम खुशगवार गुजरती है| तुम टोकते थे न दुपट्टे सम्भालने के लिए, आज उसके लहराते हाथ में फहराता तिरंगा देखो| गली में साइकिल चलाने से मना किया था न तुमने, देखो शरहद पार 7 मुल्कों से होकर आई है, बुलेट चला के| और वो क्या कहा था तुमने, शादी कर लो, घर बसा लो… देखो कैसे उसके बिसनेस से आज सैकड़ों परिवार का घर बसा हुआ है| रोटियाँ सेंकते-सेंकते आग से खेलना भी सीख गई है| ट्रेन, बस, ऑटो क्या चीज़ है, प्लेन भी तो उड़ा ही लेती है| और वो फोटो-शोटो वाला शौक सिर्फ तुम नहीं पालते, वो भी साथ में है तुम्हारे|
प्यार तो करते ही हो, कभी भरोसा भी करना| बहुत कुछ कहना चाहती हैं बेटियाँ तुमसे, कभी पास बिठा के पूछना| अगर न कह पाए तो उसके इरादे उसकी आँखों में झाँक कर जानने की कोशिश करना| तुम जो सुनोगे, बस उसी को शब्द दे रही हूँ मैं-
“तुमने औकात मेरी जरा कम आंकी है,
मैं बताऊँगी, मेरा पैमाना है क्या|
टोकने वालों! अब परे रहो वर्ना,
जानोगे इरादों से टकराना है क्या|”