खुद को बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे सुप्रसिद्ध लंगट सिंह कॉलेज का छात्र बनने का अवसर मिला। एक छोटे से गाँव से इस ऐतिहासिक कॉलेज में नामांकित होने का स्वप्न पूरा होना अपने आप में एक बड़ी बात थी। आज इस कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी किए वर्षों बीत गए लेकिन कॉलेज से कभी मोह भंग नहीं हुआ! न जाने कैसा रिश्ता बन गया कि दिल्ली आने के बाद भी वह कमजोर नही बल्कि दिनोंदिन इस रिश्ते की गांठ और मजबूत होती गई। आज बड़े फक्र से कह सकता हूँ कि हजारों किलोमीटर दूर रहने के बाद भी वैसा ही लगाव बना है जैसा पढ़ाई के दौरान था। शायद कुछ ज्यादा ही! ड्यूक हॉस्टल में बिताए दिन हो या शिक्षकों के असीमित पाए स्नेह, सच कहे तो आज भी यह अपना ही लगता है! बिल्कुल अपने घर जैसा! इसलिए जब कभी मुजफ्फरपुर जाता हूँ, कॉलेज जाना कभी नही भूलता। कॉलेज की लाल दीवारों को निहारने से एक सुखद और आत्मीय अनुभूति होती है, वही हरे-भरे और आसमान से बातें करते वृक्षों से सुसज्जित परिसर में कदम रखते ही एक नई उर्जा का संचार होता है!
ऐसी क्या खासियत है इस अपनेपन की, यह प्रश्न आना स्वाभाविक है। दरअसल इस कॉलेज की बिल्डिंग आकर्षित तो करती ही है, इसका नाम, इसका गौरवशाली इतिहास इस कॉलेज से जुड़े हर विद्यार्थी के लिए आकर्षण का केंद्रबिंदु है, जिससे जुड़े होने में वह गर्व करता है । केवल विद्यार्थी ही नही, इस कॉलेज से जाने-अनजाने में जुड़े हर व्यक्ति इस महान विरासत पर गर्व करता है, जो समाज को परहित सोचने और देशहित जीने का मूक सन्देश देता है।
इस कॉलेज की स्थापना का स्वप्न बाबू लंगट सिंह ने देखा। तब उस समय काशी और कलकत्ता के मध्य गंगा के उत्तरी तट पर कोई कॉलेज नहीं था। बिहार के वैशाली जिले के धरहरा गाँव निवासी लंगट बाबू स्वयं निर्धनता का अभिशाप झेलते, जीवन जीने को संघर्ष करते परिवार में जन्म लेने की वजह से पढ़ाई नहीं कर पाए। लेकिन जब संघर्ष व कठोर मेहनत से धन कमाया तो उसे इलाके में ज्ञान का दीप जलाने में लगा दिया। 1899 ई. में कॉलेज विधिवत स्थापित होकर भूमिहार-ब्राह्मण कॉलेज के नाम से सरैयागंज, मुजफ्फरपुर स्थित एक मकान में चलने लगा। 70 विद्यार्थियों के साथ शुरू हुए इस कॉलेज की सम्बद्धता कलकत्ता यूनिवर्सिटी से ली गई। आज़ादी के बाद 1950 में इसका नाम बाबू लंगट सिंह के नाम पर लंगट सिंह कॉलेज रख दिया गया, जो एल.एस.कॉलेज के रूप में पुरे देश-दुनिया में जाना जाने लगा।
सरैयागंज से जब कॉलेज अपने वर्तमान स्थल पर आया तो इसके भवन का उद्घाटन काशी नरेश महाराजा प्रभुनारायण सिंह ने किया। इस कार्यक्रम में पंडित मदन मोहन मालवीय विशेष रूप से उपस्थित थे। मुजफ्फरपुर के कई भू-स्वामियों, दानी-प्रवृति के लोगों के सहयोग से एवं बेलियोल (Balliol) कॉलेज, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की तर्ज़ पर बने इस कॉलेज के भव्य भवन का उद्घाटन 26 जुलाई 1922 को तत्कालीन गवर्नर सर हेनरी व्हीलर ने किया था। कॉलेज में प्रवेश के साथ ही कॉलेज का विशाल परिसर, गेरुआ रंग में रंगा भवन, मुख्य प्रवेश द्वार से शुरू हुई विशालकाय वृक्षों की कतार, लंगट बाबू की ऊँची मूर्ति, 1917 के चंपारण आंदोलन की मूक गवाह रही ऐतिहासिक गाँधी कूप, 1984 ई. में जयप्रकाश नारायण द्वारा उद्घाटित महात्मा गाँधी की प्रतिमा बरबस सबका ध्यान अपनी ओर खींचती है। मुजफ्फरपुर के लाल किले के तौर पर प्रसिद्ध इस कॉलेज का न केवल खेल मैदान काफी बड़ा है बल्कि विज्ञान संकाय इतना विशाल है कि हर कमरा देखकर आने की बात हो तो पुरे दिन लग जाए। इस कॉलेज के भवन निर्माण में वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना भी देखने को मिलता है। भूकंप से बचने के उपाय, पानी के निकासी की व्यवस्था, मुख्य भवन के ऊपर बना गुम्बद जैसे कई चीजें देखने में आकर्षक लगती है।
सुव्यवस्थित तरीके से परिसर की संरचना शिक्षा के इस मंदिर की सुन्दरता को बढ़ाते है। देश के गिने-चुने कॉलेजों में लंगट सिंह कॉलेज एक था, जहां विज्ञान की प्रयोगशालाओं के संचालन के लिए अपनी व्यवस्था से गैस का निर्माण किया जाता था। 1952 में स्थापित यह विशाल गैस प्लांट अब सिर्फ अपनी यादें बरकरार रखने की जद्दोजहद में है, जहाँ कभी केरोसीन तेल की क्रैकिंग कर गैस का निर्माण किया जाता था। कॉलेज की धरोहरों में ऐतिहासिक तारामंडल भी है, जिसका निर्माण मई, 1916 में जर्मनी से मंगाई सामग्री से हुआ था और जो रखरखाव के अभाव में 1990 के आसपास से बंद है।
कॉलेज कई ऐतिहासिक घटनाओं का भी साक्षी रहा। महात्मा गाँधी चंपारण यात्रा के क्रम में 10 अप्रैल,1917 को कॉलेज परिसर में आए। यही 11-12 अप्रैल को पुरे चंपारण आन्दोलन की रुपरेखा तैयार की गयी थी। उस समय जे.बी.कृपलानी और प्रख्यात शिक्षाविद व ड्यूक छात्रावास के तत्कालीन छात्रावास अधीक्षक एच आर मलकानी ने उनके विश्राम और आतिथ्य की व्यवस्था की थी। गांधी ने परिसर स्थित कुँए पर प्रातःकालीन स्नान-ध्यान कर किसानों की दुर्दशा सुधारने का संकल्प लिया, जिसकी याद के रूप में गाँधी शांति प्रतिष्ठान के सहयोग से बनाई गई ‘गाँधी- कूप’ कॉलेज परिसर में मौजूद है। बाद में इसी घटना की वजह से जे.बी.कृपलानी को कॉलेज से निष्काषित कर दिया गया। कॉलेज के छात्रों ने स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्ती भूमिका निभाई। छात्रों ने असहयोग आन्दोलन व भारत छोड़ों आंदोलन में खूब भाग लिया। भारत छोड़ों आंदोलन के समय ड्यूक व लंगट छात्रावासों को खाली करवाकर उनमें आंदोलन को कुचलने के लिए गोरी फ़ौज ने अपना पड़ाव डाल दिया था।
इस कॉलेज का जिक्र ख्यातिनाम शिक्षकों व छात्रों के नामों से किया जाता है। इसमें पहला स्थान भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का आता है, जो न केवल लंगट सिंह कॉलेज के शिक्षक रहे, बल्कि आज जिस जगह पर परिसर अवस्थित है, उसका चयन करने का श्रेय भी उन्हें जाता है। बहुत कम लोगों को पता है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद कभी किसी कॉलेज में शिक्षक भी रहे। 1959 ई. में कॉलेज की स्थापना के हीरक जयंती अवसर पर उन्होंने कॉलेज भवन के लिए जगह चुनने सम्बन्धी यादों को साझा भी किया था जो आज भी कॉलेज के डायमंड जुबली सोवेनीयर में मौजूद है। स्वतंत्रता सेनानी व प्रख्यात विचारक आचार्य जे. बी. कृपलानी वर्षों कॉलेज में शिक्षक रहे। उन्होंने अपने किताब “माई टाईम्स” में कॉलेज के दिनों का जिक्र किया है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर इतिहास विभाग के शिक्षक के नाते कॉलेज में अपनी सेवाएँ दी। “संस्कृति के चार अध्याय” जैसी कालजयी रचना उन्होंने इसी परिसर में की। इनके अलावे अनेकों शिक्षक हुए, जिन्होंने इस कॉलेज की गरिमा को बढ़ाया। ख्यातिनाम शिक्षकों की विरासत यहाँ मौजूद है, जो न केवल छात्रों को पढ़ाते है, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित भी करते रहते है। इस वजह से मुजफ्फरपुर, वैशाली, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, मोतिहारी ही नही, बिहार के दूर-दराज के छात्रों के लिए आज भी लंगट सिंह कॉलेज में पढ़ाई करने का मौका मिलना एक स्वप्न पूरा होना जैसा लगता है। वैसे समय में जबकि गुरु-शिष्य परंपरा लुप्तप्राय होती जा रही है, आज भी प्रतिभाओं का तराशना ही यहाँ कई शिक्षकों का मुख्य कार्य है। मानो संस्कार में उन्हें यही सौंपा गया हो देश सेवा के लिए लोगों को तैयार करने में!
आज इंटर व पीजी के साथ साथ कॉलेज में फिलहाल 16 विषयों में स्नातक स्तर तक की पढ़ाई होती है। चार महत्वपूर्ण कोर्स माइक्रोबायोलॉजी, बीबीए, बीसीए व बीएमसी(बैचलर इन मास कम्युनिकेशन) की भी पढ़ाई होती है। कॉलेज में एक कम्युनिटी कॉलेज भी कई महत्वपूर्ण विषयों में सर्टिफिकेट कोर्स चलाता है, जिनसे विद्यार्थियों को रोजगार मिलने में मदद मिलती है। इन सब बातों के बीच कॉलेज परिसर आजकल खामोश दिखती है! वह उदास लगती है! ऐसा लगता है जैसे वह अपनी उपेक्षा से खिन्न है! अपनी दुर्दशा पर उसे दुःख है और बातें करने पर मानो फफ़ककर कहती है– शिक्षा के उत्कृष्ट मंदिर बनाने, देश के युवा पीढ़ी को शिक्षित कर उसे नवनिर्माण के कार्य में लगाने के जिस मकसद से लंगट बाबू ने इस कॉलेज की नींव रखी थी, उस मंदिर की कैसी दुर्दशा कर दी सबने! शैक्षणिक स्तर बाकियों से ठीक है, लेकिन अपेक्षा से बेहद निम्न। विद्यार्थियों का मानो अकाल दीखता है। केवल नामांकन और परीक्षा फॉर्म भरते वक़्त परिसर गुलजार हो उठती है बाकी के दिन बहुत कम विद्यार्थी कॉलेज की तरफ रुख करते है। विगत कई वर्षों से राज्य स्तर की छोड़िये, जिले स्तर पर भी कोई विद्यार्थी सर्वोच्च स्थान नही पा सका, जबकि यहाँ का कट ऑफ सबसे ज्यादा होता है। एनसीसी, एनएसएस, खेल-कूद में कभी अव्वल रहने वाला कॉलेज अब तो नियमित गतिविधियाँ होते देखने को भी तरसता है। किसी ज़माने में हर विभाग में क्लब हुआ करते थे, आज किसी का अस्तित्व नही है। दुखद तथ्य तो यह है कि कॉलेज बहुत आगे बढ़ा है लेकिन वर्तमान हालात इसके स्वर्णिम अतीत से कही मेल नही खाते। पिछले दिनों इसी टिस लिए पूर्व विद्यार्थियों ने लंगट सिंह कॉलेज एलुमनी एसोसिएशन की स्थापना की ताकि स्वर्णिम अतीत को संजोने के साथ साथ अतीत व वर्तमान को जोड़ने की एक कड़ी बन सकें। कॉलेज के विद्वान प्राध्यापक डॉ अशोक अंशुमन के नेतृत्व में एक पुस्तक भी लिखी गई है, जिसकी वजह से कॉलेज के इतिहास को एक पुस्तक में समेट कर भावी पीढ़ी को सौंपने का काम किया गया है।
पिछले दिनों नैक से मूल्यांकन करवाने की प्रक्रिया में वर्षों से जमे धुल हटाने की कोशिश हुई, परिसर का रंगरोगन किया गया। निरिक्षण करने आई टीम खुश होकर गई। कॉलेज को ए ग्रेड भी मिला। ऐसी उपलब्धि पाने वाला यह बिहार का छठा कॉलेज बना। लेकिन वर्तमान अभी भी स्वर्णिम अतीत के आगे कही नही ठहरता। पढ़ाई से लेकर खेल-कूद तक में कभी सर्वश्रेष्ठ रहने वाला यह कॉलेज अब इक्के-दुक्के उपलब्धियों के सहारे ही खुश है। इस कॉलेज का मान-सम्मान बस अपने उन विद्याथियों व शिक्षकों की वजह से बचा है, जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानी, प्रशासनिक अधिकारी, न्यायाधीश, पत्रकार, राजनेता, समाजसेवीयों बनकर देश समाज की सेवा की। अब तो सम्मान की छोड़िए, कॉलेज हमेशा अपने ही विद्यार्थियों की करतूतों से अपमानित होता रहता है। असामाजिक तत्वों के हुड़दंग और गुंडागर्दी की वजह से कॉलेज बदनाम होता रहता है, वही पिछले दिनों जिस तरीके से कॉलेज की ज़मीन हड़पने की साजिश शिक्षा माफियाओं द्वारा किया गया, उससे कॉलेज के वर्तमान अस्तित्व के बचे रहने पर भी शंका है। पहले ही कॉलेज के कई हिस्सों को बिहार विश्वविद्यालय अपने कब्जे में ले चूका है लेकिन उसकी भूख समाप्त नही हुई। आज स्थिति यह है कि लंगट सिंह कॉलेज की ज़मीन पर विश्वविद्यालय के कई विभाग चल रहे है। यहाँ तक कि प्राचार्य निवास भी विश्वविद्यालय हिंदी विभाग को सौंप दिया गया है।
पिछले लगभग एक दशक में काफी तस्वीर बदली है। 117 वर्ष पुराने इस कॉलेज ने महज नैक के प्रमाण पत्र ही नही पाए बल्कि पिछले ही वर्ष इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग(यूजीसी) द्वारा राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा भी दिया गया। कोशिशों के बावजूद इसे सीपीई (कॉलेज विथ पोटेंशियल फॉर एक्सीलेंस) का दर्जा नही मिल पाया, जिसका यह पूरा हक़ रखता है। उम्मीद है, बदलते वक़्त के साथ साथ कॉलेज की सूरत बदलेगी, भवनों की सेहत ठीक रहेगी और शानदार अतीत की ज़मीन पर खड़ा कॉलेज वर्तमान की दुश्वारियों से बाहर निकलकर उज्जवल भविष्य की बुनियाद तैयार करेगा! यह कॉलेज फिर से पढ़ने-पढ़ाने की उत्कृष्ट जगह बने, ऐसी कामना सबकी है। शायद यही लंगट बाबू के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
अभिषेक रंजन कुमार
सचिव, लंगट सिंह कॉलेज एलुमनी एसोसिएशन